क्रान्तिगाथा-६१

अँग्रेज़ सरकार प्रथम विश्‍वयुद्ध की दौड़-धूप में व्यस्त था। मगर इसके बावजूद भी भारत पर रहनेवाली उनकी पकड़ जरा भी ढिली नहीं पडी थी। दरअसल इस प्रथम विश्‍वयुद्ध की घटना का उपयोग करके उन्होंने भारत में स्थित अपने शासन को अधिक मजबूत करने की दृष्टि से प्रयास किये।

इंग्लैंड के प्रथम विश्‍वयुद्ध में शामील हो जाने के कारण, इंग्लैंड की जनता का मनोधैर्य ऊँचा बना रहे ऐसी वहाँ के सरकार की इच्छा थी। ऐसे समय में यानी की युद्धजन्य परिस्थितियों में अपने शत्रुओं को फायदा हो, ऐसा बर्ताव अपने नागरिकों द्वारा न हो और युद्ध के बारे में गलत बातें जनता और पूरी दुनिया में प्रसारीत न की जाये, इस हेतु अँगेज़ सरकार ने एक कानून बनाया। सन १९१४ में यह कानून बनाया गया। इसे ‘डिफेन्स ऑफ द रिआल्म अ‍ॅक्ट’ इस नाम से जाना जाता है। इस कानून के तहत प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान युद्ध काल में ब्रिटिश शासन के खिलाफ ब्रिटन में बर्ताव करनेवालों पर सजा की कार्रवाई करने की व्यवस्था की गयी थी।

प्रथम विश्‍वयुद्ध में इंग्लैंड को उलझा हुआ देखकर, भारतीय क्रांतिवीरों की, दरअसल भारत के बाहरी देशों में स्थित भारतीय क्रांतिवीरों की गतिविधियाँ जोर पकडने लगी थी। यह सब बातें अँग्रेज़ों की भारत में स्थित सत्ता को उखाडने के लिए ही थी। इसलिए अब इस पर कुछ पाबंदी लगाना इस बात की अँग्रेज़ों को जरूरत महसूस हुई होगी और इसीसे भारतीयों के लिए एक नये कानून का जन्म हुआ।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़डिफेन्स ऑफ इंडिया अ‍ॅक्ट १९१५’ यह कानून अँग्रेज़ों द्वारा भारत में लागू किया गया। इसे ही ‘डिफेन्स ऑफ इंडिया रेग्युलेशन्स अ‍ॅक्ट’ इस नाम से भी जाना जाता है। यह जल्दबाजी में लागू किया गया अपराधिक कानून था। भारत के ब्रिटिश गव्हर्नर जनरल द्वारा इसे लागू किया गया था।

इस कानून का एक ही उद्देश था। प्रथम विश्‍वयुद्ध के दौरान और उसके बाद भी भारतीय क्रांतिवीरों की गतिविधियों पर पाबंदी लगाना। भारतीय क्रांतिवीर, स्वतन्त्रता सेनानी और देशभक्त यह तो अँग्रेज़ों की दृष्टि से अपराधी थे। क्योंकि वे अँग्रेज़ों के शासन को उखाडने के प्रयास कर रहे थे और यहीं उनका अपराध था।

१८ मार्च १९१५ में इस कानून को पारित किया गया और लागू भी किया गया। शुरुआत में प्रथम विश्‍वयुद्ध का समय और उसके बाद छह महिनें का समय ऐसी कालमर्यादा इस कानून को कार्यान्वित करने के लिए निश्‍चित की गयी थी।

इस कानून के तहत अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ़ गतिविधियाँ करनेवालों को उनकी इस गतिविधियों के लिए जुर्माना या ७ साल की कैद या दोनों बातें दी जानेवाली थी। साथ ही अँग्रेज़ सरकार के शत्रुओं को मदद करनेवाले या अँग्रेज़ सरकार के खिलाफ़ जंग का ऐलान करनेवालों को मदद करनेवाले भी इस कानून के तहत गुनाहगार करार दिये जाते थे और उनके इन गुनाहों के लिए पहले बताये गये अनुसार बड़ी सजा या मृत्युदंड भी दिया जा सकता था।

गव्हर्नर जनरल की अनुमति से यह कानून किसी भी प्रोव्हीन्स में लागू किया जा सकता था, लेकिन बंगाल और पंजाब प्रांत में तो इसकी कार्यवाही विशेष रूप से की ही जानेवाली थी। इस कानून के तहत दोषी करार दिये गये भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिवीरों और देशभक्तों के लिए एक विशेष कोर्ट की स्थापना करके वहाँ ३ कमिशनरों के सामने उनकी केस पेश की जानेवाली थी और यहाँ पर जो फैसला सुनाया जायेगा उसके खिलाफ भारतीयों को किसी भी कोर्ट में अपील करने की इजाजत नहीं थी।

संक्षेप में एक नया कानून बनाकर अँग्रेज़ों ने भारतीयों के खिलाफ दमनतंत्र जारी रखा ही था।

भारत लौट आये महात्मा गांधी का नाम अब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ जुडने लगा था। दक्षिण आफ़िका में यशस्वीरूप से लडकर लौटे हुए गांधीजी अब स्वयं के भाई-बहेनों के लिए लडने के लिए सिद्ध हो चुके थे।

महात्मा गांधीजी के द्वारा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश करने के बाद अहिंसा और सत्याग्रह के एक नये दौर की शुरुआत हो गयी।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गांधीजी का प्रवेश हो जाने के बाद अँग्रेज़ों को फिर एक बार आम भारतीय जनता की और संघटितता की शक्ती का एहसास हुआ। क्योंकि भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने के लिए आम भारतीय सिद्ध हुआ था। गांधीजी के नेतृत्व में लड़े गये सभी आंदोलन अहिंसा के मार्ग पर से ही चलनेवाले थे और इसके बावजूद भी उसमें भारतीयों की जो संघटित शक्ती समायी हुई थी, वह अँग्रेज़ सरकार को बारबार झटके देनेवाली ही साबित हुई।

इस समय अधिकांश भारत गांव-देहातों में ही समाया हुआ था और ज़ाहिर है की अँग्रेज़ इन गांवों तक पहुँच ही चुके थे। इसी कारण वहाँ की जनता भी अँग्रेज़ों के ज़ुल्म और दमनतंत्र का शिकार हो रही थी और ऐसे ही एक गांव से गांधीजी के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के योगदान की शुरुआत हुई।

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