क्रान्तिगाथा-६२

अब भी गांव-देहातों में रहनेवाले भारतीय कई सुविधाओं-सुधारों से दूर थे। खेती ही अधिकांश देहातों का रोजीरोटी का साधन था। खेती की कमाई पर ही गांव के आम भारतीय अपने परिवार सहित गुजारा करते थे।

लेकिन, इसके बावजूद भी कुछ प्रांतों में ‘खेतों में क्या उगाना है’ इसका वहाँ के किसानों को अधिकार नहीं था। तो कुछ प्रांतों में यह अधिकार अँग्रेज़ों के हाथ में था।

‘चम्पारण’ बिहार का एक ज़िला। इस ज़िले के गांवों के किसानों को किसी समझौते के तहत अँग्रेज़ों ने ‘नील’ की खेती करने पर मजबूर किया था। कुछ जगहों पर किसानों के अपने खेत थें, तो कहीं किसान दूसरों के खेतों में मजदूरी करते थे। इनमें से अधिकतर खेतों के मालिक अँग्रेज़ थें।

अँग्रेज़ों के साथ हुए समझौते के अनुसार किसानों के लिए उनकी जमिन के ३/२० वें हिस्से पर ‘नील’ की खेती करना यह बंधनकारक था। इसे ‘तिनकठिया पद्धति’ कहा जाता था।

२० वीं सदी के पूर्वार्ध में कई महत्त्वपूर्ण अन्वेषण हो रहे थे, उनमें से ही एक था रासायनिक रंगों (केमिकल डाईज) की खोज़। जिसका परिणाम सीधे सीधे ‘नील’ की खेती करनेवाले इन किसानों पर हुआ।

रासायनिक रंगों की खोज के कारण बाजार में नील की माँग कम हो गयी। इससे ‘नील’ की खेती करनेवाले किसानों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। क्योंकि नील की खेती करना अँग्रेज़ों ने उनके लिए बंधनकारक बना दिया था। इस वजह से उन्होंने उनके खेतों में कोई भी अनाज नहीं बोया था। ऐसे वक्त नील की खेती से कुछ भी प्राप्ती नहीं हो रहीं थी और साथ में अनाज की खेती न होने के कारण खाने के लिए अनाज नहीं था, ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में ‘चम्पारण’ के किसान फँस गये थे।

क्रान्तिगाथा, इतिहास, ग़िरफ्तार, मुक़दमे, क़ानून, भारत, अँग्रेज़इसी में नील का निर्माण करनेवाले कारखाने भी बंद हो गये और अँग्रेज़ों ने किसानों पर लगाया जानेवाला लगान बहुत ज्यादा बढा दिया। खाने के लिए अनाज नहीं, पास में पैसा नहीं, खेती में उगाये गये नील को बाजार में माँग नहीं और किमत भी नहीं, उसी में अँग्रेज़ों द्वारा बढाया गया लगान और मानो यह सब कम था तो उस कमी को पूरा करने के लिए सूखा पड़ा था। ऐसे वक्त ‘हम कैसे जिये’, यही एक सवाल वहाँ के किसानों के सामने था।

हमेशा की निर्धनता के साथ साथ छोटे-छोटे गांवों में अशिक्षितता, जातीव्यवस्था, गंदगी और बिमारी ये बाते प्रमुख रूप से थी। यहाँ के किसानों और गांववालों को इससे छुटकारा मिलना अतिआवश्यक था।

अब अँग्रेज़ों द्वारा बढाया गया लगान और अँग्रेज़ों की मर्जी के अनुसार खेती करना, इन बातों के खिलाफ चम्पारण के किसान खड़े हो रहे थे और तभी उन्हें गांधीजी के रूप में एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शक प्राप्त हुआ।

गांधीजी ने किसानों की इन तकलीफों के खिलाफ आवाज उठायी और उसी के साथ गांवों की सफाई, गांव के लोगों को शिक्षा देना, अस्पताल बनाना आदि काम किये।

इस काम में गांधीजी को उन गांवों के लोगों के साथ अन्य लोगों का सहकार्य भी प्राप्त हुआ। अब धीरे धीरे अँग्रेज़ों को गांधीजी के कार्य के प्रभाव का एहसास होने लगा और अब गांधीजी चम्पारण छोडकर जाये इस दिशा में अँग्रेज़ों के कदम उठने लगे। जब गांधीजी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया, तब उस इलाके में अशांति उत्पन्न करने का इल्जाम अँग्रेज़ सरकार द्वारा गांधीजी पर रखा गया और इस इल्जाम के तहत उन्हें गिरफ़्तार किया गया।

गांधीजी की गिरफ़्तारी की खबर मिलते ही उस प्रदेश के लोगों में असंतोष उत्पन्न हुआ। अँग्रेज़ सरकार के इस फैसले के खिलाफ हजारों लोग कोर्ट, कारागार और पुलिस थाने के बाहर इकठ्ठा होकर इस निर्णय का निषेध करने लगे। स्थिति को देखते हुए कोर्ट ने गांधीजी की रिहाई का आदेश दे दिया ।

लेकिन रिहाई होने के बाद भी गांधीजी चूप नहीं बैठे, बल्कि मूल प्रश्‍न के लिए उन्होंने आंदोलन जारी रखा। आखिरकार अँग्रेज़ सरकार को झुकना पड़ा और इन सब बातों पर विचार-विमर्श करने के लिए एक कमिटी का गठन किया गया।

इस कमिटी को ‘चम्पारण अग्रेरियन कमिटी’ यह नाम दिया गया। इस कमिटी ने इन सब बातों पर विचार-विमर्श करके किसानों पर लादे गये इस बंधन को शिथिल किया की, ‘उन्हें अपने खेतों के ३/२० वें हिस्से पर नील की खेती करनी होगी’।

किसानों को मनचाहा अनाज उगाने की छूट दी गयी। साथ ही उन पर लगाये गये लगान को भी कुछ कम कर देने का निर्णय लिया गया।
चम्पारण जिले की इस घटना के बाद गांधीजी आम लोगों के ‘महात्मा’ बन गये।

Leave a Reply

Your email address will not be published.