क्रान्तिगाथा – ६

अँग्रेज़ों की हुकूमत को पहला धक्का पहुँचा, २९ मार्च १८५७ के दिन। मातृभूमिभक्त भारतीय मन में ओतप्रोत भरे हुए असंतोष को प्रकट किया, मंगल पांडे नाम के एक सैनिक ने अपनी कृति के द्वारा। सारे भारत भर में एक चेतना की लहर दौड़ गयी, इस ग़ुलामी को खत्म कर देने के लिए, उद्धत और खूँखार अँग्रेज़ों को भारत में से खदेड़ देने के लिए, ‘स्वतन्त्रता’ इस अपने अधिकार को प्राप्त करने के लिए। लेकिन यह बात उतनी आसान भी तो नहीं थी, क्योंकि अब तक सारा भारतवर्ष अँग्रेज़ों के कब्ज़े में आ चुका था और यहाँ की प्रजा को वे अपनी मनमानी और मरज़ी के अनुसार कुचलना चाहते थे।

nanasaheb - नानासाहब पेशवा
Photo Courtesy: c4n.in

मग़र नीति, पवित्रता और मर्यादा की सन्तुलनमय संस्कृति में पनपे ये मन अब शान्त बैठनेवाले नहीं थे,  क्योंकि उनकी जडों पर ही अब घाव किये जा रहे थे और इसी दौरान अप्रैल का महीना आ गया। अप्रैल की शुरुआत ही हुई, मंगल पांडे को फाँसी दिये जाने की दुखद घटना से। लेकिन अब चिंगारी भडक उठी थी। अप्रैल में तपती गरमी के साथ अंबाला, आग्रा और अलाहाबाद में स्वतन्त्रतासंग्राम की ज्वालाएँ भड़क उठी थीं।

अंबाला में अँग्रेज़ों की फ़ौज का एक बड़ा थाना था। बंगाल आर्मी का कमांडर-इन-चीफ अंबाला में रह रहा था। अब यहाँ भी कारतूसों के मामले को लेकर सैनिक कुछ करेंगे ऐसा अनुमान यहाँ के अँग्रेज़ सेना के मुख्य अधिकारी कर रहे थे। सैनिकी प्रशिक्षण के लिए आसपास के फ़ौजी थानों के सैनिकों को एकत्रित करने का तय हो रहा था। लेकिन बराकपुर की घटना के बाद इस कार्यक्रम को स्थगित कर दिया गया। मग़र फिर भी सैनिकों में फैले हुए असन्तोष को रोकने में अँग्रेज़ नाकाम रहे थे। यहाँ के सैनिकों ने यहाँ के अँग्रेज़ अफसरों एवं उनकी सहायता करनेवालें यहाँ के लोगों की जायदाद को नुक़सान पहुचाना शुरू कर दिया। ये सैनिक इतनी होशियारी से अपने काम को अंजाम देते थे कि यह काम किसका है इसका पता लगाया नहीं जा सकता था। यह काम करनेवालों को पकड़ने के लिए ख़बर देनेवालों को इनाम देने का लालच भी दिखाया गया। मग़र देशप्रेम और राष्ट्रभक्ति जिनकी रग रग में दौड़ रही थी, वे सभी एकदिल से इसमें सम्मिलित हुए थे और इसीलिए कोई भी पकड़ा नहीं गया।

tatya_tope
Photo Courtesy: bsgp.org

घटित हो रही घटनाओं से अँग्रेज़ शुरू शुरू में अचंभित तो ज़रूर हो गये होंगे, लेकिन अब इन घटनाओं से मानो उन्हें भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए, भारतीयों का दमन करने के लिए अवसर ही मिल गया। दर असल आगे चलकर ९० वर्षों तक उनके द्वारा किये गये अमानुष अत्याचार की यह पहली कड़ी थी।

किसी भी सकारात्मक क्रान्ति को करने के लिए जिस तरह खौलते हुए खून की ज़रूरत होती है, उसी तरह विचारशील मन भी आवश्यक होते हैं। क्योंकि किसी भी क्रान्ति के सकारात्मक परिणाम होने के लिए विशिष्ट योजना को बनाना भी आवश्यक होता है और ऐसी योजना पहले बनायी भी गयी थी।

१८५७ के स्वतन्त्रतासंग्राम के अग्रणी के रूप में जिनका उल्लेख किया जाता है, उन नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे, रंगो बापुजी, अज़िमुल्लाखान आदि ने मिलकर १८५७ की ३१ मई यह तारीख भी अँग्रेज़ों के खिलाफ जंग छेड़ने के लिए मुक़र्रर की थी।

इस बारे में जगह जगह बड़ी ही गुप्तता से संदेश भी भेजे जा चुके थे। लेकिन अँग्रेज़ों को इस बात की कानो कान खबर तक नहीं हुई थी। अँग्रेज़ विरोधी इस कृति के प्रतीक के रूप में ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ को भारत भर में भेजा गया था। जहाँ जहाँ ‘लाल कमल’ और ‘रोटी’ पहुँच रही थी, वहाँ वहाँ अँग्रेज़ों के खिलाफ जंग छेड़ देने का संदेश उनके ज़रिये पहॅुंच रहा था।

लेकिन कभी कभी बुद्धि पर भावनाएँ हावी हो जाती हैं और यहाँ पर मातृभूमि के प्रति रहनेवाले प्रेम की भावना इसी तरह प्रबल रही और २९ मार्च की चिंगारी भड़क उठी।

अब हमारे मन में यह सवाल उठता है कि अँग्रेज़ों के खिलाफ खड़े रहने की योजना बनाने वालें ये स्वतन्त्रतासमर के अग्रणी कौन थे?

नानासाहब पेशवा! इनके नाम से ही आप यह जान गये होंगे कि ये पेशवाई के वारिस थे। ये दूसरे बाजीराव के गोद लिये सुपुत्र थे। पेशवा के राज्य पर कब्ज़ा करके अँग्रेज़ों ने दूसरे बाजीराव को बिठूर (कानपुर के पास की एक जगह) भेज दिया था और गोदविधान को नामंजूर करके नानासाहब से उनका ‘शासक’ का अधिकार भी छीन लिया था।

azi-mullah-khan
Photo Courtesy: hudsonhousemysteries.wordpress.com

इन्हीं नानासाहब के अधिकार में काम करते थे, तात्या टोपे और अज़िमुल्लाखान, जो कारोबार चलाने में उनकी सहायता करते थे। फिर रंगो बापुजी कौन थे?

रंगो बापुजी थे, सातारा के शासकों के दरबार में। मराठा शासकों की एक शाखा सातारा में थी। ‘गोदविधान नामंज़ूर’ क़ानून की आड़ में १८३९ में अँग्रेज़ों ने सातारा संस्थान खालसा कर दिया। उस वक़्त सातारा के शासकों ने अपना पक्ष रखने के लिए उनके दरबार में रहनेवाले रंगो बापुजी को इंग्लैंड़ भेजा था। ब्रिटिश पार्लमेंट के सामने अपना पक्ष रखने के लिए रंगो बापुजी इंग्लैंड़ गये। वहाँ चौदह साल तक वे अपना काम करते रहे। इस दौरान उन्होंने अँग्रेज़ी भाषा भी सीख ली ऐसा उनके चरित्र से ज्ञात होता है।

इतिहास से यह ज्ञात होता है कि उनका पूरा नाम था – रंगो बापुजी गुप्ते। इंग्लैंड़ में चौदह वर्ष तक क़ोशिशें करने के बावजूद भी उन्हें सफलता नहीं मिली और खाली हाथ ही भारत लौटना पड़ा। वहीं यहाँ पर अँग्रेज़ों ने सातारा रियासत को बड़ी चालाक़ी से कब का निगल लिया था।

चतुर राजनीतिज्ञ और जोशीले सेनानी के रूप में इतिहास के पन्नों पर उन्हें नवाज़ा गया है। भारत लौटने के बाद रंगो बापुजी ने अपना कार्य तेज़ी से शुरू कर दिया। फिर १८५७ के स्वतन्त्रतासमर में इनका कार्य क्या था?

Leave a Reply

Your email address will not be published.