क्रान्तिगाथा- ४०

अब तक खुदीराम को लग रहा था कि प्रफुल्ल शायद अँग्रेज़ों की गिरफ्त में नहीं आया होगा और इस वध की ज़िम्मेदारी उसने अपने सिर पर ले ही ली थी; मग़र दुर्भाग्यवश उसे जल्द ही इस बात का पता चल गया कि उसका साथी प्रफुल्ल तो कब का यह दुनिया छोड़कर जा चुका था। अत एव प्रफुल्ल अँग्रेज़ों की गिरफ्त में न आये इस उद्देश्य से खुदीराम के द्वारा की गयी सारी कोशिशें नाकाम हो गयीं।

इस घटना में शामिल खुदीराम को तो अँग्रेज़ों ने गिरफ्तार किया ही था, लेकिन प्रफुल्ल भी इसमें शामिल था और अँग्रेज़ों की दृष्टि से वह भी इस मुकदमे का एक मुजरिम था। उसे भी कोर्ट में पेश करना अँग्रेज़ों को ज़रूरी लग रहा था। यहाँ पर अँग्रेज़ों की क्रूरता ने सारी हदें पार कर दी। उन्होंने प्रफुल्ल का सिर उसके शरीर से कलम करके सिर्फ़ उस सिर को कोर्ट में पेश करने के लिए भेज दिया।

अँग्रेज़ों की इस दरिंदगी से प्रत्येक भारतीय का ख़ून खौल उठा। अब खुदीराम पर दायर किये गये मुक़दमे का काम शुरू हो गया। अँग्रेज़ श़ख्स की हत्या और अँग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ बग़ावत इन इलज़ामों को साबित करने के लिए अँग्रेज़ों ने कमर कस ली। यहाँ पर अँग्रेज़ों का क़ानून खुदीराम की नाबालिक उम्र को नज़रअंदाज़ कर रहा था, उनकी दृष्टि से तो वह था उनकी हुकूमत को ललकारनेवाला एक भारतीय।

खुदीराम का पक्ष रखने के लिए भारतीय वकील कोर्ट में खड़े हो गये। अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने की कोशिश करनेवाले एक नवयुवक को अँग्रेज़ों ने कटघरे में खड़ा किया था। खुदीराम का पक्ष रखने से कुछ भी हासिल होनेवाला नहीं था, क्योंकि अँग्रेज़ों के खिलाफ क्रान्ति करनेवाले प्रत्येक को ‘मृत्युदंड’ देने की बात अँग्रेज़ तय कर ही चुके थे। चंद कुछ ही दिनों में मुकदमे का यह फार्स ख़त्म हो गया और खुदीराम को अँग्रेज़ों ने ङ्गाँसी की सजा सुनायी। यह सजा सुनकर खुदीराम को ना तो दुख हुआ ना ही डर लगा। क्योंकि उसकी शहादत अपनी मातृभूमि के लिए थी।

आख़िर वह दिन आ गया। ११ अगस्त १९०८। इस दिन सुबह ६ बजे खुदीराम को जेल में फाँसी देने की बात तय की गयी थी और यह महज़ १९ साल का नवयुवक हँसते हँसते फाँसी चढ़ गया। इस नवयुवक को देखने के लिए जगह जगह से लोग इकठ्ठा हुए थे, आँखों में आँसू और मन में अँग्रेज़ों के खिलाफ धधगती हुई ज्वाला लेकर।

खुदीराम की इस शहादत के बारे में लिखने से एक ब्रिटिश समाचार पत्र अपने आप को रोक नहीं सका। उनकी दृष्टि से एक नौजवान का हँसते हँसते फाँसी के फंदे को गले में पहन लेना यह बात आश्‍चर्यजनक थी। क्योंकि उसके पीछे की उस नौजवान की लगन उनकी समझ में आना मुश्किल था।

देश को आज़ाद करने की कोशिशें अनेक देशभक्त कर रहे थे। इनमें से दो प्रमुख नाम थे – अरविन्द घोष और बारीन्द्र घोष।

भारतीय स्वतन्त्रता के आन्दोलन में अनेक इलाक़ों में सारा परिवार या एक ही परिवार के अनेक सदस्य स्वयं को समर्पित कर रहे थे।

ऐसे ही दो देशभक्त व्यक्तित्व थे, अरविन्द घोष और बारीन्द्र घोष ये दो भाई। उनके पिताजी का नाम था डॉ. कृष्ण धन घोष और माँ का नाम था स्वर्णलतादेवी। पिता पर अँग्रेज़ संस्कृति का गहरा प्रभाव था।

अरविन्द घोष का जन्म हुआ १५ अगस्त १८७२ को बंगाल में; वहीं बारीन्द्र घोष का जन्म इंग्लैंड़ में ५ जनवरी १८८० को हुआ था। अरविन्द की प्राथमिक शिक्षा भारत में ही हुई, लेकिन उन्हें उच्चशिक्षित करने की कल्पना उनके पिता के दिल में इस कदर बस गयी थी कि उन्हें ७ वर्ष की आयु में ही पढ़ने के लिए इंग्लैंड़ भेजा गया। अरविंद घोष के साथ बारीन्द्र घोष और उनके और एक भाई भी इंग्लैंड़ में ही पढ़ रहे थे। १८ वें वर्ष में अरविंद घोष आय.ए.एस्. की परीक्षा पास हो गये, साथ ही अनेक युरोपीय भाषाओं पर भी उन्होंने प्रभुत्व प्राप्त कर लिया। लेकिन मातृभूमि का प्रेम उन्हें बेचैन कर रहा था। वडोदरा के महाराज के साथ उनका इंग्लैंड़ में परिचय होने के बाद अरविन्द घोष जब भारत लौटे तब वे वडोदरा गये। यहाँ पर कई सालों तक उन्होंने राजनैतिक कार्य के साथ साथ पढ़ाने का कार्य भी किया। शिक्षा के माध्यम से उन्होंने अपने छात्रों में देशप्रेम की ज्योति जगायी।

१९०५ में हुए बंगाल के बटवारे ने अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष ने ज़ोर पकड़ लिया था। अब अरविंद घोष बंगाल लौट चुके थें और उनका कार्य शुरु हो चुका था। स्वदेशी आंदोलन, ‘वन्दे मातरम्’ जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन और कोलकाता में नॅशनल लॉ कॉलेज की स्थापना करके उन्होंने वही पर अध्यापन करना शुरू किया था। इस तरह अरविंद घोष का कार्य बंगाल में शुरु हुआ। उनके तेजस्वी विचार और वाणी ने युवावर्ग में चेतना जगायी। सशस्त्र क्रान्ति के उद्देश्य से कई क्रांतिकारी संगठन गुप्त रूप से कार्य करने लगे। इन क्रांतिवीरों को अरविंद घोष, बारीन्द्र घोष, स्वामी विवेकानंदजी के भाई भूपेन्द्रनाथ जैसे व्यक्तित्वों का मार्गदर्शन प्राप्त हो रहा था।

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