कोझिकोड भाग-३

‘व्यापारीयों की लगातार हो रही आवाजाही, माल ले आने-जानेवालें देश-विदेशों के कई जहाज़’ ऐसा ही कुछ स्वरूप था, पुराने कोझिकोड का यानि कोळिकोड या कालिकत का। समय के साथ साथ कोझिकोड का चेहरा भी बदलने लगा और आज का कालिकत आधुनिक युग के स्पर्श से भी अछूता नहीं रहा। आज यह बंदरगाह एक शहर के रूप में विकसित हो चुका है।

पश्‍चिमी घाटी में उद्भवित हुई ‘कल्लाई’ नदी कोझिकोड में से गुज़रती है। इस कल्लाई नदी की एक ख़ासियत यह थी कि लगभग उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में इस नदी में से लट्ठों (पेड़ के तनों) की यातायात की जाती थी। पुराने सयम में दुनिया भर की कई नदियों में से इस तरह से लट्ठों की यातायात की जाती थी। साधारणत: बारिश के मौसम में नदियाँ जब पानी से भरकर बहती थीं, तब उनकी धारा में लट्ठों को छोड़ा जाता था और बहती धारा के साथ वह बहते जाते थे। फिर नदीतटीय अन्य स्थल में यानि जहाँ उन्हें पहुँचाना होता था, वहाँ उन्हें धारा में से निकाला जाता था।

कल्लाई नदी से परिचित होने के बाद अब सीधे चलते हैं, कोझिकोड शहर में।

शहर के बीचों बीच पानी की एक बड़ी झील है। उस झील का नाम है- ‘मनचिर’ या ‘मनविक्रमन्’। ऐसा माना जाता है कि पुराने समय में यह झील राजमहल को जल की आपूर्ति करनेवाला एक स्त्रोत थी। अब इस पूरे इला़के को सुशोभित किया गया है और उसे ‘मनचिर चौक’ इस नाम से जाना जाता है।

पुराने समय से एक बंदरगाह के रूप में मशहूर रहने के कारण इस शहर में अर्थकारण (इकॉनॉमी) की नींव तो पहले से ही मज़बूत थी। इसी वजह से यहाँ के प्रमुख बाज़ार में काफ़ी चहलपहल रहती थी और बड़े बड़े सौदे भी किये जाते थे। आज भी यह बाज़ार काफ़ी व्यस्त रहता है। इसके संदर्भ में एक लोककथा भी प्रचलित है कि पहले झामोरिन के किसी सचिवने तपस्या करके लक्ष्मीमाता को प्रसन्न किया और उनसे यहीं पर बसने की गुज़ारिश की। भक्त को दिये हुए वचन का पालन करनेवाली लक्ष्मीमाता ने फिर वहीं पर नित्य वास किया। संक्षेप में, मज़बूत अर्थकारण, जो पुराने कालिकत में था, वही आज के कोझिकोड में भी बरक़रार है।

इस शहर में कई मन्दिर हैं। उनमें से दो मन्दिर बहुत ही प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण हैं।

कल्लाई नदी के तट की एक पहाड़ी पर बसा है, ‘पन्नियंकर भगवती मन्दिर’। कोझिकोड शहर की स्थापना होने के पूर्व इस मन्दिर की स्थापना की गयी थी, ऐसा माना जाता है। इसकी वजह यह बतायी जाती है कि इस मन्दिर की रचना चेर राजवंश के शासनकाल में बनाये गये मन्दिरों जैसी है।

तालि शिव मन्दिर’ का निर्माण इस शहर की स्थापना के दौरान ही किया गया, ऐसी राय है। मन्दिर के गर्भगृह में लगभग २ फीट की ऊँचाई का शिवलिंग है और यह शिवलिंग स्वयंभू है, ऐसा भी कहते हैं।

केरल के इतिहास में इस ‘तालि शिव मन्दिर’ का स्थान सांस्कृतिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसकी वजह है, पुराने समय में यहाँ पर होने वालीं सभाएँ। यह सभाएँ विद्वानों की होती थीं। इस सभा को ‘रेवती पट्टथनम्’ कहा जाता था। प्रतिवर्ष होनेवाली इस सभा का स्वरूप स्पर्धात्मक (प्रतियोगितात्मक) सभा का रहता था।

कोझिकोड के झामोरिन की अध्यक्षता में आयोजित की जानेवाली इस स्पर्धासभा के अन्त में विजयी होनेवाले विद्वानों को विशिष्ट उपाधी (पदवी) प्रदान की जाती थी और उन्हें सम्मानित भी किया जाता था। दर असल ‘पट्टथनम्’ इस शब्द का उद्गम ‘पदवीदान’ शब्द से हुआ है, ऐसा भी कहा जाता है।

रेवती नक्षत्र के साथ इस स्पर्धासभा का संबंध होने के कारण ‘रेवती पट्टथनम्’ कहा जाता था। सात दिनों तक इस सभा का कार्य चलता था।

मध्य समय में दक्षिण भारत में इस स्पर्धासभा को बहुत ही महत्त्वपूर्ण माना जाता था। इसमें सम्मीलित होने के लिए विभिन्न स्थानों से विद्वज्जन यहाँ आते थे।

पुराने समय में ज्ञान की जो शाखाएँ रहती थीं, उनका समावेश इस स्पर्धा में किया जाता था। तर्क, व्याकरण, वेदान्त और मीमांसा इन चार प्रमुख ज्ञानशाखाओं का इसमें समावेश था। आगे चलकर अन्य ज्ञानशाखाओं का भी इसमें समावेश किया गया। इस सभा का स्वरूप संक्षेप में कहना हो, तो यह एक वादस्पर्धा रहती थी। लेकिन यहाँ पर वाद का अर्थ विवाद या झगड़ा यह नहीं है, बल्कि स्वयं के पक्ष (मत) को स्थापित करने के लिए शास्त्रसिद्धान्तों के आधार से अपनी बात कहना।

तालि शिव मन्दिर में होनेवाली इस वादसभा के लिए उस समय विशेष व्यवस्था की जाती थी। अब वादसभा का अन्तिम निर्णय करने के लिए परीक्षकों का उपस्थित रहना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था क्योंकि आख़िर फ़ैसला तो वे ही सुनाते थे। गत वर्ष के विजयी उपाधि (पदवी) प्राप्त विद्वानों में से ही कुछ को परीक्षक पद पर नियुक्त किया जाता था।

वादस्पर्धा के अन्तिम दिन विजेताओं के नाम घोषित किये जाते थे और राजा के हाथों उन्हें उपाधि प्रदान की जाती थी, साथ ही उन्हें सम्मानित भी किया जाता था।

तो ऐसा यह तालि शिव मन्दिर केवल कोझिकोड की ही नहीं, बल्कि केरल के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक धरोहर है।

तालि शिव मन्दिर से अब हम सीधे चलते हैं, एक सागरतट पर, जहाँ एक विदेशी मुसाफ़िर सबसे पहले उतरा था।

कप्पड’ या ‘कप्पक्कडवु’ इस नाम से जाने जानेवाले, प्राकृतिक सुन्दरता से लैस सागरतट पर ‘वास्को-द-गामा’ अपने १७० सहकर्मियों के साथ लगभग ५००-५५० वर्ष पहले उतरा था। इस बात की याद को यहाँ आज एक ‘बोर्ड’ के रूप में जतन किया गया है। कोझिकोड से लगभग १६ कि.मी. की दूरी पर कप्पड बसा है। यहाँ की ही एक पहाड़ी पर बसा एक मन्दिर लगभग ८०० साल पुराना है, ऐसा भी माना जाता है।

कप्पड से अब चलते हैं ‘बेपोर’ की ओर। केरल के इतिहास एवं वर्तमान में ‘बेपोर’ का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है।

आपने जहाज़ तो देखा ही होगा! प्रत्यक्ष रूप में नहीं, लेकिन फोटो में तो अवश्य ही देखा होगा। अब बेपोर और जहाज़ के बीच के संबंध को जानने के लिए बेपोर में दाखिल होना ही चाहिए।

बेपोर यह केरल का एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह माना जाता है और आज भी उसका यह सम्मान बरक़रार है। कोझिकोड से लगभर दस किलोमीटर की दूरी पर बसा यह बेपोर जहाज़ों का निर्माण करनेवाला एक प्रमुख स्थान था और आज भी है।

इस बेपोर की ख्याति यह भी है कि कोझिकोड की तरह यहाँ पर भी सिरिया, अरब, चीन, युरोप के व्यापारी और यात्री भी आते थे।

पुराने समय में ‘व्यपुर’ या ‘वदपरप्पनाड’ इस नाम से बेपोर जाना जाता था। यहाँ से मसालों, रबर, नारियल के छिलके की रेशा, सागवान, कॉफी, धातु (मेटल्स) एवं वस्त्रों का व्यापार किया जाता था।

साथ ही ‘बेपोर’ का नाम जुड़ा है, जहाज़ बनाने के साथ भी।

पुराने समय से बेपोर में ‘उरू’ या बड़े जहाज़ बनाये जाते थे। आज भी यहाँ पर कुछ जहाज़ बनानेवाले कारीगर रहते हैं। लेकिन किसी ज़माने में बेपोर और बेपोर के जहाज़ों की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई थी।

उरू बनाना यह यहाँ के निवासियों का एक परंपरागत व्यवसाय है। यह कला लगभग १५०० वर्ष पूर्व यहाँ पर अस्तित्व में आयी, ऐसा कहा जाता है। पुराने समय में देश-विदेश के व्यापारी यहाँ के कारीगरों से जहाज़ों का निर्माण करवाते थे और वे जहाज़ छोटे नहीं, बल्कि बहुत ही विशाल रहते थे, ३०० से ६०० टन जितने वजन के।

उरू बनाने की इन कारीगरों की ख़ास शैली थी। प्रारम्भिक स्थिती से लेक़र अन्तिम स्थिती तक इन जहाज़ों के निर्माण के बारे में लिखित वर्णन या डायग्राम्स आदि उपलब्ध नहीं थे, यानि उरू निर्माण के संदर्भ में कोई भी लिखित पुस्तिका उपलब्ध नहीं थी। प्रतिदिन किस हिस्से को किस तरह बनाना है, आदि बातें प्रमुख कारीगर ही अन्य कारीगरों को बताता था। लकड़ियों की तख़्तियों को तराशना, अन्य काम करना इसमें बढई (सुतार) के प्रारम्भिक औज़ारों (बेसिक इन्स्ट्रुमेंटस्) का ही इस्तेमाल किया जाता था। बिना किसी आधुनिक औज़ारों के जहाज़ का निर्माण किया जाता था। जहाज़ की लकड़ी को वॉटरप्रूफ बनाने के लिए प्राकृतिक वनस्पतिजन्य पदार्थों तथा तेल का उपयोग किया जाता था। जहाज़ को बनाने के बाद उसका कितना हिस्सा जल में कहाँ तक डूबेगा इसका निशान भी उसपर बनाया जाता था और ताज्जुब की बात यह थी कि वह निशान बिलकुल सौफ़ीसदी सही रहता था।

उरू बनाने का काम पूरा हो जाने के बाद उसे समारोहपूर्वक सागर में ले जाया जाता था। संक्षेप में कहना हो, तो ‘उरू’ बनाना यह एक पारंपारिक कला थी।

अरे, देखिए! वहाँ दूर सागर में सूर्यदेवता अपने घर लौटने की तैयारी में लग गये हैं। मग़र हमें कोझिकोड के अन्य सांस्कृतिक पहलुओं को भी देखना है। इसलिए आज के लिए बस इतना ही। यहीं पर विश्राम लेते हैं।

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