कोल्हापुर भाग-२

कोल्हापुर, इतिहास, अतुलनिय भारत, महालक्ष्मी, श्रीचक्र, भारत, भाग-२

कोल्हापुर में यानि कि करवीर क्षेत्र में भाविकों का श्रद्धास्थान रहनेवालीं जगज्जननी ही महालक्ष्मी अर्थात् अंबाबाई इन नामों के साथ प्रतिष्ठित हैं।

महालक्ष्मी के इस मंदिर का निर्माण ‘कर्णदेव’ नाम के किसी सुभेदार ने ७वीं या ८वीं शताब्दी में हेमाडपंतीय रचनाशैली द्वारा किया था, ऐसा कहा जाता है। आगे चलकर कोल्हापुर पर जब शिलाहारों का शासन स्थापित हो गया, तब ‘मारसिंह’ नामक राजा ने ११वीं सदी में इस मंदिर का अधिक विस्तार किया। आगे चलकर इन्हीं शिलाहारों में से ‘गंडरादित्य’ नाम के राजा ने १२वीं सदी में मंदिर के कलश का निर्माण किया, ऐसा भी कहा जाता है।

पत्थर में से तराशी गयी इस मंदिररचना में कईं ऩक़्क़ाशीदार स्तंभ यानि खंभें हैं और साथ ही कईं शिल्पाकृतियाँ भी।

पश्‍चिमाभिमुख महाद्वार में से मंदिर के भीतर प्रवेश करते ही सर्वप्रथम सामने दिखायी देती हैं, ऊँचीं ऊँचीं दीपमालाएँ। दीपमाला यह महाराष्ट्र के कईं मंदिरों की ख़ासियत मानी जाती है। ऊँचें मीनार जैसी यह एक पत्थर से बनी रचना रहती है और उसमें विशिष्ट दूरी पर दियें रखने के लिए कोनें बनाये गये होते हैं। शाम के समय अन्धेरा होने से पहले इस दीपमाला में दियें अथवा चिराग जलाये जाते हैं। इनकी रोशनी के कारण दूर से भी यह दीपमाला दिखायी देती है।

कोल्हापुर के महालक्ष्मी मंदिर की ख़ासियत यह है कि मंदिररचना में दो पत्थरों को एकदूसरे के साथ इस तरह जोड़ा गया है कि उनके बीच में चूना आदि भरने की ज़रूरत ही न पड़ें। दीपमालाओं से आगे बढ़ते हुए हम प्रवेश करते हैं, गरुड मंडप में। चौकोर आकार के स्तंभ और लकड़ी का ऩक़्क़ाशीकाम रहनेवाले इस मंडप का निर्माण १८वीं सदी में किया गया है, ऐसा कहा जाता है। अब इस गरुड मंडप में भगवान के वाहन रहनेवाले गरुडजी की प्रतिमा का होना तो स्वाभाविक ही है।

फिर हम प्रवेश करते हैं, गर्भगृह में। गर्भगृह में देवी महालक्ष्मी की मूर्ति है। इस गर्भगृह के दाहिनी ओर महाकाली और बायीं ओर महासरस्वती इनके मंदिर हैं।

काले पत्थर से बनी देवी महालक्ष्मी की मूर्ति की ऊँचाई लगभग ३ फीट है। मूर्ति की चार भुजाओं में देवीमाँ ने मातुलिंग, गदा, खेटक और पानपात्र इन चार आयुधों को धारण किया है। उनके सिर पर मुकुट है और उसपर शेषछत्र है, ऐसा कहा जाता है। देवी के पीछे उनका वाहन सिंह है। बहुत ही सुंदर एवं मनोहारी ऐसी महालक्ष्मी की इस मूर्ति के दर्शन करते ही प्रत्येक भाविक माँ के सामने नतमस्तक हो जाता है।

अब आइए, इस मंदिर की एक अनोखी बात देखते हैं। गर्भगृह का निर्माण करते हुए यहाँ की पश्‍चिमी दीवार में एक खिड़की इस तरह बनायी गयी है, जिससे कि मार्च और सितंबर महीने की २१ तारीख़ को ठीक सूर्यास्त के समय अस्तमान सूर्य की किरनें देवी के मुखमंडल पर पड़ती हैं और उसके बाद लगातार तीन दिनों तक सूर्यास्त के समय ऐसा होता है। संक्षेप में, मंदिर के गर्भगृह की रचना, देवी की मूर्ति की दिशा और उस खिड़की का स्थान इनकी अनोखी रचना से यह सुन्दर दृश्य हमें यहाँ पर देखने मिलता है। सूर्य द्वारा देवीमाता को दी हुई यह उनके किरनों की मानवंदना ‘किरणोत्सव’ इस नाम से प्रख्यात है। साधारणत: ७वीं सदी में बनायी गयी इस अनोखी स्थापत्यशैली को देखकर उस ज़माने के उन कारीगरों की सराहना किये बिना कोई भला कैसे रह सकता है!

इसी मंदिर में काले पत्थर में तराशा गया ‘श्रीचक्र’ भी है। महाकाली और महासरस्वती के मंदिरों में से महाकाली का मंदिर यह शिल्पकला का एक बेहतरीन नमूना माना जाता है। प्रमुख गर्भगृह के दोनो ओर स्थित ये दोनों मंदिर यादव राजाओं के शासनकाल में बनाये गये हैं, ऐसा भी कहा जाता है।

भोर में होनेवाले घंटानाद से मंदिर की नित्य पूजा-अर्चना आदि का प्रारंभ होता है। मुखमार्जन पूजा, पाद्यपूजा, पंचामृत अभिषेक, कुंकुमार्चन और अलग अलग समय पर होनेवाली आरती इस तरह मंदिर के नित्य पूजन आदि विधि होते रहते हैं। ॠतुओं के अनुसार इस कार्यक्रम में थोड़ा बहुत परिवर्तन भी किया जाता है।

इस मंदिर के निर्माण के साथ ही इस क्षेत्र की महिमा बढ़ती रही; लेकिन विदेशी आक्रमणों के कारण मंदिर के विस्तार और विकास की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न हो गयी। आगे चलकर विदेशी दुष्टचक्र के नष्ट हो जाते ही फिर एक बार भाविक निर्घोरतापूर्वक अपने आराध्य के दर्शन करने यहाँ पर आने लगे।

साल भर यहाँ पर विभिन्न उत्सव मनाये जाते हैं। उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण है – नवरात्री उत्सव। इस पर्वकाल में भाविकों की भीड़ उमड़ पड़ती है।

यह करवीर क्षेत्र आध्यात्मिक महिमा के साथ साथ यहाँ की मिट्टी में जन्मे वीरों की शूरता के लिए भी मशहूर है।हमारे भारत में हमेशा ही अध्यात्म्य और वीरता हाथ में हाथ लिये आगे बढ़ते रहे हैं। दर असल यहाँ की संस्कृति में अध्यात्म और वीरता ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

कोल्हापुर की इस भूमि ने जिस तरह मराठों का शासन देखा, उसी तरह विदेशियों का भी। उनके बीच के सत्तासंघर्ष में इस भूमि ने कुछ ऐसे वीररत्न भी देखे हैं, जिनके पँवाडें (वीरगाथा) यहाँ का कण कण आज भी गा रहा है। चलिए, तो उन बहादुर वीरों की कथा सुनने नहीं, बल्कि देखने पन्हाळा चलते हैं।

पन्हाळा! कोल्हापुर से लगभग १८-२० कि.मी. की दूरी पर बसा एक छोटा सा कसबा। लेकिन आज उसका काफ़ी विस्तार हो चुका है और वह एक हिल स्टेशन के रूप में मशहूर हो रहा है। लेकिन हम पन्हाळा जा रहे हैं, ‘पन्हाळे का क़िला’ देखने।

भोजराजा द्वारा बनाये गये इस क़िले ने भी यक़ीनन तब धन्यता महसूस की होगी, जब प्रत्यक्ष छत्रपति शिवाजी महाराज का यहाँ पर वास्तव्य था।

ऊँचाई पर स्थित इस पन्हाळे के दो प्रमुख विभाग हैं – पन्हाळा क़िला और पन्हाळा गाँव। इस गाँव की आबादी इस क़िले के भीतर ही बसी है। सह्याद्रि की पर्वतशृंखला में पन्हाळा ऐसे महत्त्वपूर्ण जगह पर स्थित है, जहाँ से यहाँ के आसपास के इला़के की आसानी से निगरानी की जा सकती है।

कहा जाता है कि पराशर ॠषि का यहाँ पर निवास था। पुराने शिलालेखों में पन्हाळा का ‘पद्मनल’ किंवा ‘प्रण्लक’ इन नामों से भी वर्णन किया गया है। राजा भोज ने इस प्रदेश में उसके शासनकाल में कुल १५ क़िलों का निर्माण किया था। उनसे कुछ के नाम हैं- बावडा, विशाळगढ़, भुदरगढ़, पन्हाळा। १३वीं सदी में देवगिरि के यादवों से परास्त होने के बाद राजा भोज की यहाँ के प्रदेश पर रहनेवाली सत्ता समाप्त हो गयी। सातारा में किये गये उत्खननकार्य में प्राप्त हुए एक ताम्रपट में लिखा हुआ है कि १२वीं सदी के अन्त में यहाँ पर भोज का दरबार भरता था।

१५वीं सदी में विजापुर के शासकों ने यहाँ पर हुकूमत स्थापित की। उन्होंने चहारदीवारी का निर्माण करके इसे और भी मज़बूत बनाया; क्योंकि वह दौर तीखें सत्तासंघर्ष का दौर था।

१७वीं सदी में शिवाजी महाराज ने पन्हाळा जीत लिया। पन्हाळे पर पुन: अपना शिकंजा कसने के लिए विजापुर के आदिलशाह ने सिद्दी जौहर के अधिपत्य में बहुत बड़ी सेना को पन्हाळे की ओर भेजा। सिद्दी जौहर ने पन्हाळे को चारों तरफ़ से घेर लिया। लगभग साढ़े चार महीनों तक उसने इस क़िले को घेर लिया था। उसी समय पुणे में शायिस्तखान ने हुड़दंग मचाया था। अब किसी भी तरह पन्हाळे के घेरे में से बाहर निकलना शिवाजी महाराज के लिए अत्यावश्यक बन गया।

इन हालातों में उन्होंने सिद्दी के साथ सुलह की बातचीत करना शुरू कर दिया और महाराज के पास अब शरणागति के अलावा और कोई चारा ही नहीं है, ऐसा उसे प्रतीत कराने की चाल भी चली। महाराज की इस युक्ति के कारण सिद्दी क़ामयाबी मिलने की धुन में बेपरवाह रहने लगा और पन्हाळे का घेरा भी शिथिल हो गया। ङ्गिर मूसलाधार बारिश की एक रात में सिद्दी और उसकी सेना को चकमा देकर शिवाजी महाराज पन्हाळा से निकल पड़े। अपने चुनिंदा मावळों (एकनिष्ठ सैनिकों) के साथ शिवाजी महाराज ने विशाळगढ़ की ओर प्रस्थान किया। सिद्दी को जब इस बात का पता चला, तब तक तो महाराज पन्हाळा छोड़कर निकल भी चुके थे।

लेकिन विशाळगढ़ तक पहुँचने के लिए ‘घोडखिंड’ नाम की घाटी को पार करना ज़रूरी था। इस सँकरी घाटी को पार करना यह बड़ा ही जोखिम भरा काम था; क्योंकि दुश्मन को महाराज के निकलने की ख़बर मिलने के कारण वह पीछा करते हुए आक्रमण करने निकल चुका था। अब दुश्मन को इसी जगह पर रोकना ज़रूरी बन गया था, जिससे कि महाराज आगे विशाळगढ़ तक सुरक्षित रूप से पहुँच सकते थे। ऐसी नाज़ुक घड़ी में निर्भय बाजीप्रभु देशपांडे उनके चुनिंदा साथियों के साथ वहाँ पर ड़ँटकर खड़े रहे। घाटी के प्रवेशद्वार पर अडिगतापूर्वक खड़े रहकर जब तक शिवाजी महाराज विशाळगढ़ पर नहीं पहुँचे, तब तक वे दुश्मन से जूझते रहे। महाराज के विशाळगढ़ पर सुरक्षित पहुँच जाते ही तोपें चलाकर उनकी आवाज़ के द्वारा महाराज के आगमन को सूचित किया जानेवाला था। जब तक वह संकेत नहीं मिला, तब तक बाजीप्रभु ने दुश्मन को ज़बरदस्त टक्कर देते हुए घोडखिंड में घमासान युद्ध किया। दुश्मन के शस्त्रों के घावों से छलनी हो चुके देह के साथ वे लड़ रहे थे और जब तक महाराज के विशाळगढ़ पहुँचने का संकेत नहीं मिला, तब तक उन्होंने दुश्मन को एक कदम तक आगे बढ़ाने नहीं दिया। बाजीप्रभु ने अपना लहू सींचकर इस खिंड को ‘पावन’ कर दिया, इसीलिए इस खिंड का नाम ‘पावनखिंड’ हो गया।

पावनखिंडीत पाऊल रोवून।
शरीर पिंजे तो केले रण॥

(बाजीप्रभु की बहादुरी का वर्णन करते हुए महाराष्ट्र के कवि ‘कुसुमाग्रज’ जी लिखते हैं कि बाजीप्रभु ने पावनखिंड में दुश्मन का ड़ँटकर मुक़ाबला किया और दुश्मन के शस्त्रों के घाव से शरीर के छलनी हो जाने तक वे अडिग रहकर युद्ध करते रहे।)

……और आख़िर तोपों की आवाज़ का वह संकेत इन वीरशिरोमणि ने सुना और उसके बाद ही हँसते हँसते आख़िरी साँस ली। उनके इस बलिदान से घोडखिंड ‘पावनखिंड’ बन गयी।

अब तक तो हमने पन्हाळे के भूतकाल की एक झाँकी देखी; पन्हाळगढ़ की सफ़र करना तो अभी बाक़ी है।

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