कोल्हापुर भाग-३

कोल्हापुर, इतिहास, अतुलनिय भारत, पन्हाळगढ़, शिवाजी महाराज, भारत, भाग-३

छत्रपति शिवाजी महाराज के वास्तव्य से पावन हुआ पन्हाळगढ़! कहा जाता है कि शिवाजी महाराज का इस गढ़ पर सब से अधिक अवधि तक वास्तव्य रहा है।

सिद्दी जोहर को चकमा देकर शिवाजी महाराज विशाळगढ़ गये और उसके बाद पन्हाळगढ़ पर दुश्मन ने कब्ज़ा कर लिया। उसके कुछ समय पश्‍चात् शिवाजी महाराज ने पन्हाळगढ़ को पुन: जीत लिया। इस क़िले के इतिहास पर ग़ौर किया जाये, तो यह बात हमारी समझ में आती है कि इस क़िले पर कब्ज़ा करने की कोशिशें स्वकीयों की तरह विदेशियों ने भी कीं। इसकी वजह है- इस क़िले का महत्त्वपूर्ण भौगोलिक स्थान।

शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज का भी इस क़िले पर वास्तव्य रहा है। हालाँकि उस समय यह क़िला मराठों के अधिपत्य में था, मग़र दुश्मन की इसपर नज़र थी और मौका मिलते ही उसपर कब्जा करने की कोशिशें वह कर रहा था।

१७वीं सदी के अन्त में परशुरामपंतजी प्रतिनिधि के मार्गदर्शन में मराठों ने इस क़िले को पुन: जीत लिया; लेकिन १८वीं सदी के प्रारंभ में मुग़लों ने उसे फिरसे अपने कब्ज़े में कर लिया। यह क़िला सत्ता के कईं परिवर्तन देख चुका है।

मुग़लों से पुन: इस क़िले को रामचंद्रपंत अमात्य के मार्गदर्शन में मराठों ने जीत लिया और कोल्हापुर पर सत्ता स्थापित हो जाते ही ताराबाई ने इसे राजधानी बना दिया।

इसी क़िले में एक अँग्रेज़ अफसर को क्रान्तिकारियों ने बंदी बनाया था, ऐसा कहा जाता है। कर्नल ओवन्स नाम का सातारा शहर का एक अँग्रेज़ अफ़सर पन्हाळा आया था। उसे क्रान्तिकारियों ने पकड़कर यहाँ पर बंदी बनाकर रखा था। उसे रिहा करने के लिए अँग्रेज़ फ़ौज को आक्रमण करना पड़ा। लेकिन इस घटना के बाद अँग्रेजों ने सेना के एक दल को इस क़िले पर हमेशा के लिए तैनात कर दिया। हालाँकि पन्हाळे पर कोल्हापूर रियासत का अधिपत्य था, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप में शासन अँग्रेज़ ही कर रहे थे। भारत के आज़ाद होने के बाद ही पन्हाळे ने पुन: खुली हवा में साँस ली।

तो हमने देखा कि पन्हाळे का इतिहास इस तरह संघर्षमय रहा है। आइए, अब इस क़िले की सैर करते हैं।

२,५०० फीट की ऊँचाई पर बसे इस क़िले में से बाहर निकलनेवालीं कईं सुरंगें हैं। सुरंग यानि कि क़िले में से बाहर निकलने के लिए ज़मीन में खोदकर बनाया गया गुप्त मार्ग। दुश्मन को चकमा देकर बाहर निकलने के लिए इन सुरंगों का उयोग किया जाता था। क़िले से कुछ ही दूरी पर ये सुरंगें खुलती थीं और उन स्थानों की जानकारी सिर्फ़ विश्‍वसनीय सूत्र ही जानते थे और इस जानकारी को गुप्त रखना बहुत ही ज़रूरी रहता था।

कोल्हापुर, इतिहास, अतुलनिय भारत, पन्हाळगढ़, शिवाजी महाराज, भारत, भाग-३इस क़िले की चहारदीवारी की लंबाई लगभग ७ कि.मी. है और उसीमें बाहरी आक्रमण पर नज़र रखने के लिए उचित रचना भी की गयी है। १६वीं सदी में बनाये गये ‘तीन दरवाज़ा’ इस मुख्य प्रवेशद्वार में से भीतर जाते ही पन्हाळे के अंतरंग के दर्शन हमें होते हैं। इस दरवाज़े के अलावा ‘वाघ दरवाजा’ नाम का एक और मार्ग तथा प्रवेशद्वार भी बनाया गया है। लेकिन इसके निर्माण का हेतु दुश्मन को घेरकर उसे परास्त कर देना, यही था।

पन्हाळे में आज कुछ वास्तुएँ सुस्थिति में हैं, वहीं कुछ को समय निगल चुका है।

क़िला कहते ही हमारी आँखों के सामने राजमहल, रानियों के लिए बनाये गये महल और राजाओं के नित्यव्यवहार में उपयोगी साबित होनेवालीं वस्तुएँ ये सब बातें आ जाती हैं। लेकिन यहाँ पर जिन्हें ‘कुछ हटके’ ऐसा कहा जा सकता है, ऐसी वास्तुएँ हमें देखने मिलती हैं।

कोल्हापुर, इतिहास, अतुलनिय भारत, पन्हाळगढ़, शिवाजी महाराज, भारत, भाग-३‘अंधार बाव’ यह नाम सुनकर यह अन्धेरे से संबंधित कोई वास्तु होगी, ऐसा प्रतीत हो सकता है। जब कोई भी शत्रु किसी स्थान पर हमला करता है, तब उस विशिष्ट स्थान पर कब्ज़ा करने के लिए इनमें से कुछ तरीक़ों को अपनाया जाता है – वहाँ के सैनिकों एवं निवासियों को अन्न-जल आदि बातों से वंचित रखना या उनमें जहर अथवा विषाणु आदि को मिला देना। दुश्मन के इस तरह के हथखण्डों से बचने के लिए इस ‘अंधार बाव’ का निर्माण किया गया है। अंधार बाव यानि गुप्त कुआँ। यह कुआँ लगभग तीन मंज़िला गहरा है। इसमें बनी सीढ़ियों का उपयोग करके यहाँ के जलस्तर पक पहुँचने की व्यवस्था की गयी है। इसे क़िले का प्रमुख जलस्रोत माना जाता था और इसीलिए इसे सुरक्षित रखने के लिए यह युक्तिपूर्ण रचना की गयी है। यहाँ की दीवारों में हमेशा सैनिकों को तैनात किया जाता था; क्योंकि दुश्मन को इस कुए के बारे में यदि जानकारी मिल भी जाती है, तब भी वह इस जलस्रोत तक पहुँच न पाये।

क़िले पर जितना महत्त्व जलस्रोत का रहता है, उतना ही अनाज के भंडार का भी। जब कईं महीनों तक दुश्मन क़िले को घेर लेता था, तब क़िले पर अनाज का पर्याप्त मात्रा में संग्रह होना, यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात साबित होती थी। यहाँ पर इस दृष्टि से भी बेहतरीन व्यवस्था की गयी है। सिद्दी जौहर ने जब इस क़िले को ४१/२ महीनों तक घेर लिया था, तब शिवाजी महाराज उनके सैनिकों के साथ इस क़िले में ही थे। उस मुसीबत की घड़ी में यहाँ के अनाज-भंडार ने बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी, इसमें कोई दोराय नहीं है।

‘अंबरखाना’ यानि कि अनाज का भंडार। गंगा, यमुना और सरस्वती इन नामों से जाने जानेवाले तीन भंडार यानि कि यह अंबरखाना। इसमें अनाज का संग्रह करने की बेहतरीन व्यवस्था की गयी है। यहाँ पर मुख्य रूप से मँडुआ, चावल और तिन्नी इन धान्यों का संग्रह किया जाता था। लगभग २५ हज़ार खंडी (एक खंडी यानि बीस मन, आठ सौ सेर) अनाज का संग्रह किया जा सकता है। यह पढ़कर आपको इसकी विशालता का अँदाज़ा आ ही चुका होगा। अंबरखाने में से अनाज को निकालने के लिए खिड़कियों जैसी रचनाएँ भी बनायी गयी हैं।

अनाज और जल इन दो महत्त्वपूर्ण जीवनावश्यक घटकों को सुरक्षित रखने के लिए क़िले पर की गयी इस सुरक्षा व्यवस्था को देखकर उस समय की आपत्ति निवारण योजना के बारे में हमें पता चलता है।

इस अंबरखाने में इन तीन भंडारों के अलावा ‘धर्म कोठी’ नाम की एक कोठी में भी अनाज का संग्रह करने की व्यवस्था की गयी है। यहाँ पर संग्रहित अनाज का ज़रूरतमंदों को दान किया जाता था।

‘सज्जा कोठी’ नाम की एक वास्तु भी यहाँ पर है। इस एक मंज़िला वास्तु का उपयोग क़िले पर से आसपास के इला़के पर नज़र रखने के लिए किया जाता था।

‘राजदिंडी’ नाम का एक गुप्त निर्गमनद्वार भी यहाँ पर है। कहा जाता है कि इसीमें से शिवाजी महाराज ने सिद्दी जौहर को चकमा देकर विशाळगढ़ की ओर प्रस्थान किया था।

क़िले पर वहाँ के शासकों एवं सैनिकों का वास्तव्य होना तो स्वाभाविक ही है और साथ ही मंदिरों का बनाया जाना भी। पन्हाळे पर स्थित कईं मंदिरों में से दो प्रमुख मंदिर हैं- सोमेश्‍वर और अंबाबाई इनके मंदिर।

ताराबाई के शासनकाल में जहाँ उनका निवास रहता था, वह राजमहल आज भी सुस्थिति में है। पन्हाळे के संघर्षमय इतिहास को ध्यान में रखकर यहाँ की वास्तुओं को देखा जाये तो उनकी रचना का उद्देश्य एवं महत्त्व हमें ज्ञात होता है।

स्कूल में मराठी भाषा का अध्ययन करते समय ‘आर्या मोरोपंतांची’ (मोरोपंतजी की आर्या रचना बेमिसाल है) यह कईं बार सुना था। ‘आर्या’ यह मराठी वाङ्मय की एक विशिष्ट पद्यरचना (काव्यरचना) है। जिन मोरोपंतजी ने इस ‘आर्या’ नामक रचनाप्रकार को प्रचलित किया, उनका बचपन पन्हाळे पर ही बीता था।

लगभग २४ वर्ष तक उनका यहाँ पर वास्तव्य था। यहीं पर उनका अध्ययन भी हुआ। कहा जाता है कि मोरोपंतजी ने लगभग ७५ हजार काव्यरचनाएँ कीं। उनमें से लगभग ४० हजार रचनाएँ ‘आर्या’ वृत्त में की हैं।

पन्हाळे के इतिहास में स़िर्ङ्ग तलवारों के तीखें संघर्ष के ही नहीं हैं, बल्कि वाङ्मय के भी कोमल बीज हैं।

पन्हाळे के इतिहास और भूगोल में हम कुछ इस तरह गुम हो गये कि कोल्हापुर की सैर करना तो अब भी बाकी ही है। चलिए, तो पन्हाळा से वापस कोल्हापुर लौटते हैं।

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