कांगड़ा भाग-५

चारों ओर नज़र फेरने पर दिखायी देती हैं, ऊँचीं ऊँचीं पहाड़ियाँ और बर्फ़ से आच्छादित उनकी चोटियाँ, ख़ास कर सुबह तो इन चोटियों पर जमी हुई बर्फ़ साफ़ साफ़ दिखायी देती है। जिस तरह इन पहाड़ियों की चोटियों पर बर्फ़ रहती है, उसी तरह उनके बदन पर छायी हुई है, पेड़ पौधों की हरियाली। हिमालय में पाये जानेवाले ऊँचे पेड़ यहाँ पर दिखायी देते हैं, ख़ास करके देवदार के पेड़।

मुख्य कांगड़ा शहर से आगे बढने पर धीरे धीरे यह नज़ारा दिखायी देता है। भले ही पहाड़ियों की चोटियों पर की बर्फ़ और वहाँ पर स्थित हरियाली दूर ही क्यों न दिखायी दे, लेकिन वह हमें शीतलता का सुखद एहसास अवश्य दिलाते हैं। ख़ास कर गर्मियों के मौसम में तो उस बर्फ़ और हरियाली को देखकर मन को शीतलता अवश्य महसूस होती है।

अब हम क़ांगड़ा से जा रहे हैं, ‘धरमशाला’। कांगड़ा से लगभग १८-२० कि.मी. की दूरी पर बसा है, ‘धरमशाला’।

‘धरमशाला’ यह नाम सुनकर शायद आप को याद आयी होगी पुराने जमाने में यात्रियों के ठहरने के लिए बनायी जानेवाली धर्मशालाओं की। ‘धरमशाला’ यह नाम भी धर्मशाला से ही जुड़ा हुआ है। लेकिन किसी गाँव को यह नाम कैसे प्राप्त हुआ होगा?

क़ांगड़ा और उसके आसपास के इला़के के कुछ मन्दिर पुराने समय में बहुत ही महत्त्वपूर्ण माने जाते थे। आज भी उन्हें महत्त्वपूर्ण ही माना जाता है। पुराने समय में जब यह प्रदेश विकसित हो रहा था, तब आज का ‘धरमशाला’ जहाँ पर बसा है, वहाँ पर यात्रियों के ठहरने के लिए एक धर्मशाला का निर्माण किया गया था। आगे चलकर जब यहाँ पर लोग बसने लगे, तब इस स्थल का नाम पहले से ही अस्तित्व में रहनेवाली एक धर्मशाला के कारण ‘धरमशाला’ हो गया। दरअसल ‘धरमशाला’ यह ‘धर्मशाला’ इस शब्द का ही हिन्दी रूपान्तरण है। तो यह थी इस स्थल के ‘धरमशाला’ इस नामकरण की कहानी।

हिमालय की शुभ्रधवल पहाड़ी श्रृंखला का सान्निध्य इस प्रदेश को प्राप्त हुआ है। कांगड़ा से जब हम धरमशाला पहुँचते हैं, तब हम समुद्री सतह से लगभग ४५०० फीट से अधिक ऊँचाई पर पहुँचते हैं।

यह प्रदेश कांगड़ा से अधिक ऊँचाई पर रहने के कारण इसके ‘अप्पर’ यानि ‘ऊपरि’ और ‘लोअर’ यानि ‘निचला’ ऐसे दो विभाग किये गये हैं। अप्पर धरमशाला स्वाभाविक रूप में लोअर धरमशाला से अधिक ऊँचाई पर स्थित है। इस अप्पर धरमशाला नाम का विभाग ‘मॅकलोडगंज’ इस नाम से भी जाना जाता है।

जब इस पूरे प्रदेश पर कटोच राजवंश का शासन था, तब यह विभाग भी उनकी सत्ता में ही था। लेकिन अँग्रेज़ों के आगमन के बाद इस प्रदेश की श़क़्ल-सूरत ही बदल गयी।

कांगड़ा पर अँग्रज़ों की सत्ता स्थापित हो जाते ही उन्होंने वहाँ के सैनिकों के कुछ दलों के आवास की व्यवस्था इसी प्रदेश में की। इस वजह से उन्नीसवीं सदी के मध्य में यहाँ पर फ़ौजी छावनी के रूप में सैनिकों का आवास बन गया।

यहाँ पर आनेवाले कई अँग्रेज़ अफ़सरों का मन भी इस जगह ने मोह लिया। यहाँ तक की यहाँ के कुछ स्थलों के नाम उन अँग्रेज अफ़सरों के नाम से पड़ गये। मॅकलोडगंज, फोर्सिथगंज ये नाम अँग्रेज़ अफ़सरों के नाम से बने हैं।

आज भी उस समय की फ़ौजी छावनियों की निशानियाँ यहाँ पर मौजूद है, क्योंकी आज भी यहाँ के कुछ विभाग उस फ़ौजी आवास के नामों से जाने जाते हैं।

यहाँ के स्थानीय निवासी पुराने समय में इस प्रदेश को ‘भाग्सु’ कहते थे। १९०५ में हुए भूकम्प के कारण इस इला़के का काफी नुकसान हुआ।

फ़ौजी छावनी बनने के बाद अन्य लोग भी यहाँ आकर बसने लगे और इस तरह इस प्रदेश का रूपान्तरण धीरे धीरे एक गाँव में होने लगा।

धरमशाला की ख़ासियत है, यहाँ की कुदरती सुन्दरता, जिसने आज तक यहाँ आनेवालों के मन को मोह लिया हैं। कहा जाता है कि यहाँ पर बरसात भी अच्छी होती है। इसी वजह से यहाँ की पहाड़ियों पर भी हरियाली छायी रहती है।

धरमशाला का नाम लेते ही दलाई लामा याद आते हैं। क्योंकि कई सालों से इस इला़के में वे रह रहे हैं। साथ ही कई तिब्बतीं भी यहाँ पर बसे हैं।
ट्रेकिंग यह शब्द सुनते ही स्वाभाविक रूप में हमारी आँखों के सामने आ जाती हैं, छोटी-बड़ी पहाड़ियाँ, क्योंकि ट्रेकिंग में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। हर पहाड़ी की अपनी एक सुन्दरता रहती है और एक के बाद एक पहाड़ों को पार करके किसी नये गाँव तक भी पहुँचा जा सकता है। हिमालय का यह पहाड़ी इलाक़ा भी ट्रेकिंग के लिए मशहूर है। धरमशाला के इस इला़के से ही कई ट्रेकर्स विभिन्न ट्रेक्स की शुरुआत करते हैं। जो जंगलों की गोद में जाकर वहाँ के फूलों-पत्तों की, गिली मिट्टी की ख़ुशबू के अनुभव को प्राप्त करना चाहते हैं, खलखल करते हुए बहनेवाले किसी छोटे से जलप्रवाह को पार करके आगे बढने का आनन्द लेना चाहते हैं, राह में आगे बढते हुए अचानक तेज़ी से बह रही नदी से मुलाक़ात करना चाहते हैं, हरे भरे खेतों में मिट्टी की बनीं पगडंड़ियों पर से चलना चाहते हैं, और साथ ही सामने स्थित पर्वत की चोटी पर सूर्यकिरणों से चमचमाती हुई बर्फ़ को भी देखना चाहते हैं, संक्षेप में, जो भी क़ुदरत की गोद में जाकर कुदरती ख़ुबसूरती को अनुभव करना चाहते हैं, उनके लिए ‘ट्रेकिंग’ यह सबसे बढिया विकल्प है। तो कहने का मुद्दा यह है कि धरमशाला से कई ट्रेकर्स कुदरत की इन अनदेखी अछूती राहों पर से सफ़र करते हैं।

ऐसे इस कुदरती ख़ूबसूरती से लैस रहनेवाले स्थल में यदि क्रिकेट जैसे-खेल का मैदान हो, तो क्रिकेटप्रेमी अवश्य ही खुश हो जायेंगे। धरमशाला में भी क्रिकेट का एक मैदान है, जहाँ से आप कहीं पर भी नज़र फेरिये, आपको शुभ्रधवल पहाड़ों की श्रृंखला और उनके माथे पर उन्होंने पहना हुआ बर्फ़ का ताज दिखायी देगा।

धरमशाला के परिसर में देवताओं के मन्दिर, छोटे बड़े जलप्रपात (वॉटरफॉल्स), एकाद छोटी सी झील, किसी चित्र में दिखायी देता हो ऐसा एकाद गाँव इन जैसी कई दर्शनीय बातें हैं। लेकिन यहाँ की एक ख़ासियत है, पत्थर से बने यहाँ के सुन्दर मन्दिर।

कांगड़ा-धरमशाला से कुछ ही दूरी पर एक स्थल है, जिसका नाम है – ‘मसरूर’। यहाँ पर पत्थरों में से तराशे गये कुल मिलाकर पंद्रह मन्दिर हैं। इनका निर्माण आठवीं सदी में किया गया, ऐसा कहा जाता है। यहाँ के प्रमुख मन्दिर के गर्भगृह में श्रीराम, लक्ष्मणजी और सीतामैयाजी की मूर्तियाँ हैं।

वैसे तो धरमशाला में हमने कई स्थल देखें। है ना! तो फिर यहीं पर किसी एक शांत जगह बैठकर शुभ्रधवल पहाड़ों और देवदार के पेड़ो को देखते हुए आराम करते हैं।

अब जब सुकून के साथ बैठे ही हैं, तो कांगड़ा के बारे में कुछ दिलचस्प जानकारी भी क्यों न सुनी जाये।

हिमालय के इस पहाड़ी इला़के में एक गाँव से दूसरे गाँव जाने के लिए काफ़ी पुराने समय में मिट्टी से बने रास्ते थे। फिर आगे चलकर जैसे जैसे पक्की सड़कों का निर्माण होता गया, वैसे वैसे यहाँ पर आवाजाही भी काफ़ी आसान होती गयी। यातायात के इन साधनों में एक पड़ाव पर जब रेल का आगमन हुआ, तब मानों जैसे करिश्मा ही हो गया।

मुंबई में पहली रेलगाड़ी जब पटरी पर से दौड़ी, तब जिस तरह की कौतुकमिश्रित प्रतिक्रियाएँ लोगों से प्राप्त हुई थीं, उसी तरह की प्रतिक्रियाएँ यहाँ कांगड़ा में भी हुई होंगी।

हिमाचल के इस पहाड़ी इला़के में सड़कों और रेलमार्ग का निर्माण करना यह काफ़ी मुश्किल काम है। विशाल पहाड़ों, गहरी खाइयों और बड़ी बड़ी नदियों के बीच में से यातायात के मार्गो को विकसित करने में का़ङ्गी द़िक़्क़ते पेश आती हैं और यहाँ की कुदरत की भूमिका को भी ध्याने में रखना पड़ता है। बर्फ़, धुआँधार बारिश की वजह से पेड़ों का गिरना, चट्टानों का ढहना, सड़कों और पुलों को क्षति पहुँचना, बाढ़ के कारण सड़कों का बह जाना ये बातें भी बड़ी रुकावटें हैं। इसीलिए यदि यहाँ पर सड़कों का निर्माण करना हो या रेलमार्ग का, दोनों भी बडें जोख़िम भरे काम हैं।

हिमाचल प्रदेश ने दो बार इन बड़ी रुकावटों को मात देकर करिश्मा कर दिखाया है। यहाँ पर कालका और सिमला को जोड़नेवाला एक रेलमार्ग है और दुसरा रेलमार्ग है, कांगड़ा व्हॅली में से गुज़रनेवाला।

इस मार्ग को ‘कांगड़ा व्हॅली रेल्वे’ कहा जाता है।

लगभग १६४ कि.मी. के इस रेलमार्ग की शुरुआत होती है, पठाणकोट से और वह ख़त्म होता है, जोगिन्दरनगर में। मैदानी इला़के में से शुरु होनेवाला यह स़ङ्गर मुसाफ़िरों को अधिक से अधिक ऊँचाईवाले प्रदेश में ले जाता है और इस सफ़र में कुदरत के अनोखे नज़ारें देखने मिलते हैं। इस रेलमार्ग में कई महत्त्वपूर्ण स्टेशनस् हैं। उनमें से कुछ पर्यटन की दृष्टिसे महत्त्वपूर्ण हैं, तो कुछ तीर्थस्थल के रूप में ख़ास हैं।

लेकिन यहाँ की ट्रेन में मुंबई की लोकल ट्रेन की तरह लटक कर यात्रा नहीं करनी पड़ती। तो चलिए, हम भी कुछ देर के लिए इस ट्रेन में बैठकर सफ़र का मज़ा लेते हैं।

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