जॉन हॅरिसन (१६९३-१७७६)

john-harrison-1440टायटॅनिक …..पोसायडन…..! कुछ याद आया? घबराइए मत, मैंने किसी फ़िल्म के बारे में लिखना आरंभ नहीं किया है। ये दो नाम लेने का कारण इतना ही है कि ये दोनों नाम एक ही समय में कुछ समान वस्तुओं के साथ जुड़े हैं। इसके बारे में यहॉं पर देखा जाये तो ये दोनों नाम समुद्री यात्रा के लिए उपयोग में लाये जानेवाले जहाजों के नाम हैं। आज उपग्रहों एवं संगणक के सहयोग से यात्रा में कोई भी अड़चनें नहीं आती हैं। फिर भी १७वी एवं १८वी सदी में समुद्री यात्रा करनी होती थी, तब समय के अचूक मार्गदर्शन के लिए कोई भी साधन उपलब्ध नहीं था। इस क्षेत्र के अपना अनमोल योगदान देनेवाले संशोधक थे जॉन हॅरिसन।

इनका जनम २४ मार्च १६९३ के दिन ब्रिटन के यॉर्कशायर प्रांत में वेकफिल्ड के पास हुआ था। इनके पिता बढ़ई होने के कारण बचपन से ही उन्हें मदद करते हुए हॅरिसन को स्वयं भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाने की आदत लग गई थी। ऐसे में उम्र के छठे वर्ष चेचक की बीमारी हो जाने के कारण उन्हें एक घड़ी भेट स्वरूप मिली थी। इससे उनकी चाह और भी अधिक बढ़ गई थी।

उम्र के बीसवे वर्ष अर्थात १७१३ में हॅरिसन ने एक बड़ी पेटीवाली घड़ी बनाई। इस घड़ी की संपूर्ण यंत्रणा पूर्णत: लकड़ी से बनाई गई थी। इसके पश्‍चात् अपने अंदर उभरने वाले गुणों के अनुसार हॅरिसन ने अगले चार वर्षों में दो घड़ियॉं बनाई। हर एक घड़ी को बनाते समय उन्होंने उनमें अपनी नवनवीन कल्पनाओं का उपयोग करने की कोशिश की।

उस समय में समुद्रीयात्रा के लिए पेनडुलम क्लॉक का उपयोग किया जाता था। परन्तु लम्बीयात्रा के लिए उसका कोई उपयोग नहीं होता था, क्योकि ये घड़ियॉं गुरुत्त्वाकर्षण शक्ति पर निर्भर करने के कारण बार बार गलत समय बताती थी। उसी में यदि लंबी यात्रा करनी हो तो हर १५ रेखांशों के पश्‍चात् एक घंटे का फरक पड़ने के कारण समुद्री कामगारों को कई बार तो आकाश के ग्रहों एवं तारों की स्थितिनुसार कुल मिलाकर वातावरणानुसार समय का अंदाजा लगाया जाता था।

समुद्री यात्रा के इस कठिनाई को ध्यान में रखकर हॅरिसन ने इस काम में अपने कौशल्य का उपयोग  करने का निश्‍चय किया। हॅरिसन ने अपने इस समुद्री घड़ी के संशोधन के लिए १७३० में आरंभ किया। सर्वप्रथम उन्होंने समुद्री घड़ी के बारे में जानकारी एकत्रित करके उसका आलेख तैयार किया। मात्र आर्थिक सहायता न मिलने के कारण हॅरिसन लंडन में आ गए।

लंडन में आने पर हॅरिसन प्रसिद्ध खगोलशास्त्रज्ञ एडमंड हॅले से मिले। हॅलेने उन्हें जॉर्ज ग्रॅहम नामक होरॉलॉजिस्ट के पास भेजा। ग्रॅहम ने उन्हें बहुमूल्य आर्थिक मदद के साथ संशोधन संबंधित व्यक्तिगत मार्गदर्शन भी किया। इसके पश्‍चात् प्रथम घड़ी बनाने के लिए इन्हें लगभग सात वर्ष लग गए। इस घड़ी की विशेषता प्रमुख तोर पर यह थी कि वह गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त थी।

हॅरिसन के इस प्रथम घड़ी के प्रति बहुत से लोगों को विश्‍वास नहीं था। १७३५ में  लंडन के संशोधक एवं शास्त्रज्ञों के सामने उन्होंने उसका प्रथम प्रदर्शन किया। इसके पश्‍चात् उसकी योग्यता को साबित करने के लिए हॅरिसन ने १७३६ में लिस्बन तक सेंच्युरियन इस जहाज से अपनी घड़ी लेकर प्रवास करके दिखलाया। मात्र वह पूर्णत: अचूक एवं योग्य न लगने के कारण हॅरिसन ने नयी घड़ी बनाने का निश्‍चय किया।

इसके पश्‍चात् १८ वे वर्ष में हॅरिसन ने और भी दो घड़ियॉं बनाने में यश प्राप्त किया। लेकिन उन्हें बनाते समय एक बात पर उनका ध्यान गया कि ये घड़ीयॉं समुद्र के अन्तर्गत होने वाले वातावरण का सामना नहीं कर सकती हैं। उन्होंने बोर्ड ऑफ लॉजिट्यूड के पास आगे बनाये जाने वाली घड़ियों के पास अर्थसहायता की मॉंग की।

१७५३ में हॅरिसन ने लंडन के एक व्यक्तिगत घड़ी बनानेवाले से खास उनके संशोधन कार्य के लिए स्वयं के रुपरेखा के आधार पर घड़ी बनाने को कहा। उस समय जेब में रखनेवाली घड़ी के आकार के समुद्रप्रवास में लगनेवाली घड़ी बन सकती हैं इस बात पर किसी को किंचितमात्र भी विश्‍वास नहीं था। हॅरिसन ने इस असंभव कार्य को संभव करके दिखा दिया।

हॅरिसन द्वारा बनायी गयी यह चौथी घड़ी पूर्ववत बनाये गए तीनों घड़ीयों की अपेक्षा पूर्णत: भिन्न थी। बिलकुल डेढ़ किलों वजनदार, केवल १३ सेंटीमीटर व्यास का, मानों कोई पॉकेटवॉच ही हो। इस घड़ियाल का प्रात्यक्षिक दिखाने के लिए हॅरिसन मे बेटे विलियम ने १८ नवम्बर १७६१ के दिन डेप्टफोर्ट नामक जहाज से वेस्ट इंडिज की यात्रा करने का निश्‍चय किया। १९ जनवरी १७६२ में वह जब जहाज से जमैक जा पहुँचा, उस समय संपूर्ण प्रवास के पश्‍चात् हॅरिसन की घड़ी केवल ५.१ सैकंड पीछे हो गयी थी।

सच पुछा जाये तो बोर्ड ऑफ लॉंजिट्युड को हॅरिसन को इसके प्रति घोषित किया गया बक्षिस देने में कोई ऐतराज नहीं था। परन्तु ऐसा नहीं होना था। अपने संशोधन का योग्य मूल्य प्राप्त करने के लिए  हॅरिसन को आनेवाले संपूर्ण दशक में लड़ना पड़ा। परन्तु हॅरिसन ने जिद्द नहीं छोड़े। आखिरकार १७७२ में इंग्लंड के राजा के हस्तक्षेप के कारण संसद में विशेष कायदा बनाकर हॅरिसन को न्याय दिलवाया।

उसी दरमियान प्रसिद्ध समुद्रयात्री कॅप्टन कुक ने अपने दूसरी विश्‍वयात्रा की शुरुआत की थी। उन्होंने अपनी यात्रा के लिए हॅरिसन की चौथी घड़ी की मदद ली। १७७५ में अपना भ्रमण पूरा करके लौटनेवाले कुक ने इस घड़ी के बारे में इसके विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा, ‘‘मेरी इस यात्रा में वातावरण में होनेवाली सारी उथलपुथल में यह घड़ी ही एकमात्र हमारा निष्ठावान मार्गदर्शक बनी रही।’’

कुक की यात्रा ने हॅरिसन के घड़ी का महत्व एवं उपयुक्तता सारी दुनिया को साबित कर दिखायी। लेकिन यह यश हॅरिसन नहीं देख पाए। किसी भी प्रकार की रूढ़ शिक्षा हासिल न कर पाने के बावजूद भी केवल अपने हुनर एवं मेहनत के दम पर दुनिया के सैंकड़ो समुद्रयात्रियों को समय का अचूक ध्यान दिलानेवाले इस जिद्दी संशोधक का उनके ८३वे जन्मदिन के अवसर पर २४ मार्च १७७६ के दिन लंदन में निधन हो गया।

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