अबु अली सिन्ना (ऍव्हिसेन्न) ९८०-१०३७

आधुनिक वैद्यकशास्त्र के पर्शियन जनक 

Hakim_Abo_Ali_Sina_by_artforheart

किसी भी शास्त्र के संशोधन अथवा नये खोज के विषय में जब विचार किया जाता है, तब हमारे सामने तुरंत ही यूरोपीय अथवा अमेरिकन संशोधकों के नाम सामने आते हैं। लेकिन हमारे भारतीय अथवा एशिया के किसी संशोधक का नाम मात्र हमारे सामने नहीं आता। वैसे देखा जाये तो अनेक एशियाई देशों में विविध क्षेत्रों में उपयुक्त एवं महत्त्वपूर्ण संशोधन करनेवाले अनेक संशोधक हैं जिनकी जानकारी होना तो दूर की बात है हमने उनका नाम भी नहीं सुना होता है। ऊपर से हम पहले से कभी अनुमान के आधार पर अथवा किसी जानकारी के आधार पर कुछ समाज के आधार पर तो कभी धर्म के बारे में पहले से ही सोच लेते है कि उनमें कुछ बदलाव आ ही नहीं सकता है।

इस प्रकार के पूर्वग्रहों एवं हमारी सोच को चुनौती देनेवाला एक प्राचीन पर्शियन संशोधक हैं, अबु अली सिन्ना अथवा ऍव्हिसेन्ना। लगभग एक हजार वर्षपूर्व साधनों की कमी एवं अस्थिर वातावरण होने के बावजूद भी वैद्यकशास्त्र में लोगों को आश्‍चर्य चकित कर देनेवाला संशोधन करके ऍव्हिसेन्ना ने संपूर्ण मानवजाति पर असंख्य उपकार कर रखे हैं।

आज उझबेकिस्तान में होनेवाले बुखारा नगर में ऍव्हिसेन्ना का जन्म इ.सन ९८० में हुआ था। इनके पिता गॉंव के मुखिया होने के कारण घर में अकसर विद्वान लोगों का आना-जाना लगा रहता था। इस वर्ष की उम्र में ही कुराण मौखिक रुप में याद कर लेनेवाले ऍव्हिसेन्ना ने अपनी उम्र के तेरहवे वर्ष से ही वैद्यकीय अध्ययन आरंभ कर दिया था। तीन वर्ष पूरा होते ही इन्होंने बीमारों का इलाज कर आरंभ करनेवाले ऍव्हिसेन्ना को पर्शियन सुलतान ने अपने खुद के इलाज के लिए बुलवाया। सुलतान को व्याधिमुक्त करनेवाले ऍव्हिसेन्ना ने इनाम के रुप में शाही ग्रंथालय में स्वतंत्ररुप में प्रवेश करने की मॉंग की।

सब कुछ ठीक-ठाक चलते समय अचानक पिता का देहांत एवं सुलतान के पराभव के कारण इन प्रतिकूल परिस्थिति में डेढ़ वर्ष तक (तत्त्वज्ञान) दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया। इनके शिक्षण पद्धति में एक अनोखी बात यह थी कि जब किसी विशेष बात का उत्तर इन्हें नहीं मिलता था, तब वे मस्जिद में जाकर ध्यान लगाते थे और वहीं पर ईश्‍वर की आराधना करते उन्हें उत्तर मिल जाता था। ईश्‍वर की इस कृपा का सम्मान उन्होंने आजीवन किया। १८ वर्ष में एक कुशल वैद्यक के रुप में प्रसिद्ध होनेवाले ऍव्हिसेन्ना ने ज़रूरतमंद लोगों का उपचार करते समय उसे ‘ईश्‍वरी सेवा’ मानकर नि:स्वार्थ रुप में उनका उपचार किया।

एक स्थान पर बैठकर संशोधन करना उन्हें पसंद नहीं था। उन्होंने यहॉं-वहॉं घुमते-फिरते हुए निरंतर अपना प्रयास जारी रखा। अनेक वर्षों के प्रयास एवं अध्ययन के पश्‍चात् ऍव्हिसेन्ना ने वैद्यकीय ज्ञान का भंडार माना जाने वाला, १४ खंडों में विभाजित ‘द कनन ऑफ मेडिसीन’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने उस समय उपयोग में लाये जाने वाले लगभग ६५० औषधियों की जानकारी, शरीर के भिन्न-भिन्न व्याधियों का विस्तृत वर्णन, औषधीशास्त्र एवं रोग निदानशास्त्र का विस्तृत रुप में विवेचन किया है। उस समय में प्रतिकूल परिस्थिति में विशेष कोई भी साधन हाथ में न होने के बावजूद प्रखर बुद्धिमत्ता, तीव्र स्मरणशक्ति एवं ईश्‍वरीय निष्ष्ठा के बल पर ही ऍव्हिसेन्नाने यह कार्य पूरा किया।

मानवी शरीर को ही प्रमाण मानकर ऍव्हिसेन्ना ने अपने संशोधन पर अपना लक्ष केन्द्रीत कर रखा था। इसी कारण बारहवी शती में ‘द कनन ऑफ मेडिसीन’ यह ग्रंथ लैटिन भाषा में प्रसिद्ध हो जाने पर वह अल्पावधि में ही यूरोप के वैद्यकशास्त्र का पाठ्य-पुस्तक बन गया।

यह ग्रंथ इतना अधिक लोकप्रिय बन गया कि १५ वी शताब्दी के अन्तीम कुछ दशकों में उसकी कुल २० आवृत्तियॉं प्रकाशित हुईं। इस ग्रंथ का विविध भाषाओं में होनेवाले अनुवाद के कारण इस संशोधक से पाश्‍चात्य संशोधक परिचित हो सके।

वैद्यकीय अध्ययन पश्‍चात् ऍव्हिसेन्ना ने अपना ध्यान तत्त्वज्ञान की ओर केन्द्रित किया। अपने सफर के दौरान प्राप्त ज्ञान के आधार पर दर्शनशास्त्र से लेकर विज्ञान तक के ज्ञान को प्रस्तुत करनेवाले ‘द बुक ऑफ हिलिंग’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में मुस्लिम दर्शनशास्त्र, ऍरिस्ट्रॉटल की परंपरा एवं निओप्लॅटोनिक का प्रभाव का संमिश्रण दिखाई देता है। उसी प्रकार राज्यशास्त्र, नीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र से संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी दिखाई देती है। अपने अंतिम दिनों में वे आन्त्रों में आयी तीव्र सूजन से परेशान थे। एक वैद्यकतज्ञ के रुप में उन्होंने अपनी बीमारी से संबंधित जानकारियों का भी समावेश करके रखा हैं। उनके हितचिंतकों ने एवं सहकारियों ने उन्हें आराम करने का सुझाव दिया। परन्तु उन्होंने यह कहकर कि उन्हें मना कर दिया कि मैं तकलीफदेह लंबी ज़िन्दगी जीने की अपेक्षा, हँसते-खेलते छोटी जिन्दगी जीना अधिक पसंद करूँगा।

इरान में ‘राष्ट्रीय महापुरुष का दर्जा’ प्राप्त करनेवाले इस महान पर्शियन व्यक्तित्व का निधन जून १०३७ में इरान के हमादान में उम्र के ५७ वे वर्ष में हुआ।

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