डॉ. जगदीशचंद्र बोस- भारतीय वनस्पति शास्त्रज्ञ

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विज्ञान क्षेत्र के मौलिक संशोधन भारत में भी हो सकते हैं, यह भारतीय शास्त्रज्ञ डॉ. जगदीशचंद्र बोस ने इ.स.१८९५ में सारी दुनिया को दिखा दिया।

सन १८८७ वर्ष में हाईनीश हर्टस नाम के जर्मन शास्त्रज्ञ ने विद्युत लहर के प्रकाशीय गुणधर्म सिद्ध कर दिखाया। ‘क्ष’ किरण की तरह हार्झियन लहर उस काल में बड़ा ही आश्‍चर्यकारक संशोधन समझा जाता था। उसके लिए उसने ‘रिसीव्हर’ या ‘डिटेक्टर’ नामक बड़े उपकरण का निर्माण किया। यह उपकरण पूरी तरह संवेदनाक्षम न होने के कारण लहर के उगम के पास ही रखना पड़ता था, इस कारण यह प्रयोग पूर्णरुप से समाधानकारक नहीं था।

इस उपकरण को सुधारने का कार्य भारतीय शास्त्रज्ञ डॉ. बोस ने अपने हाथ में लेकर नया उपकरण बनाया। उन्होंने अपने बनाए हुए उत्सर्जक पर प्लॅटिनम का आवरण डालकर उसे धुलिकरण के द्वारा होनेवाले नुकसान से बचाया। उपकरण की नई संरचना के कारण विक्रीकरण ग्राहकों की क्षमता भी बढ़ गई। इस उपकरण पर मार्कोनी, लॉज, म्युरहेड भी संशोधन कर रहे थे। उन्होंने धातू के दो इलेक्ट्रोड के बीच में धातू का चूरा भरा था। उसके कारण ६६० मि. मी. लहर निर्माण करने में वे यशस्वी हुए। डॉ. बोस ने धातो के चूरे की जगह धातू की स्प्रिंग का उपयोग करके अधिक संवेदनाक्षम उपकरण तैयार किया। और ५ मि.मी. इतनी छोटी लहर निर्माण करने में डॉ. बोस यशस्वी हुए। उन्होंने आसानी से उपयोग में आ सके व छोटी पेटी में रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान ले जा सके व लोगों को दिखा सके ऐसा उपकरण बनाया।

कलकत्ता के टाऊन हॉल में उस समय के बंगाल के लेफ्टनेन्ट गर्व्हनर सर अलेक्झांडर मॅकोन्झी इनकी उपस्थिती में प्रयोग का प्रात्यक्षिक किया गया। बिना तार विद्युत चुम्बकीय लहर खाली जगह में उत्पन्न करके काम करने का प्रयोग जगदीशचन्द्र ने बड़े कौशल्य से दिखाया। एक कमरे में एक बिजली की घंटी, दूसरे कमरे में एक सुरंग और तिसरे कमरे में एक वजन लटकाया गयाथा। फिर विद्युत चुम्बकीय लहरें निर्माण करके बिना तार के नली के खाली जगह से तीनों कमरे छोड़कर जगदीशचन्द्र ने घंटी बज़ाकर दिखाया। सुरंग तोड़कर दिखाया व वजन आगे ढकेल सकते हैं यह जगदीशचन्द्र बोस ने दुनिया का पहला यशस्वी प्रयोग करके सबको दिखाया। किंतु गुलाम देश के काले मनुष्य ने यह खोज की। किंतु जो बलवान है वही बड़ा माना जाता है, इसीलिए इस प्रयोग का श्रेय इटालीयन शास्त्रज्ञ मार्कोनी को दिया गया। और रेडियो और बिना तार के संशोधक के रुप में उन्हीं का नाम लिया जाता है।

इस घटना से जगदीशचन्द्र निराश न होकर अधिक उत्साह से अपने प्रयोग कार्य में मग्न हो गए। जो मन से बहादुर होता है वह कभी निराश नहीं होता। उन्होंने विद्युत चुंबकीय लहर निर्माण करनेवाले व उन लहरों को ग्रहण करनेवाला यंत्र बनाया, और उसकी सहायता से लहरों के गुणधर्म का पता लगाया। परावर्तन, अपरावर्तन, दिकप्राप्ति इत्यादि के बारे में खोज की। उसी तरह अपारदर्शक वस्तू की प्रकाशीय खोज की। इन संशोधनों की जानकारी बोस ने रॉयल सोसायटी द्वारा आयोजित जग के विद्वान शास्त्रज्ञों के सामने दी और अपने विद्युत चुंबकीय प्रयोग करके दिखाए। उसी तरह से उपकरणों के अभाव में आनेवाली कठिनाईयों को भी उनके सामने रखा।

सन १८५७ के भागदौड़ के कालखंड में इ.स.१८५८ में बंगाल के विक्रमपूर जिसे के राणीखल गॉंव में जगदीशचन्द्र का जन्म हुआ था। उनके पिता श्री. भगवानचन्द्र बोस स्वतंत्र विचार के व्यक्ति थे। नीतिमान व विचारों की कसौटी पर रखा उतरनेवाले धर्म को वे मानते थे। उनकी मॉं प्रेमल, दयालू व धार्मिकवृत्ति की थी। किंतु भेदभाव नहीं मानती थी। उनके पिता की इच्छा थी कि बच्चे पहले अपनी मातृभाषा में ही शिक्षा ग्रहण करें और बाद में अंग्रेजी में। उनका आग्रह था कि बच्चों को समाज के हर स्तर के बच्चों का सहवास मिलना चाहिए। इसीलिए उन्होंने स्वयं स्थापित की हुई संस्कृत पाठशाला में ही उन्हें डाला। उसके बाद उन्हें औद्योगिक विद्यालय में प्रवेश दिलाया। इस कार्यशाला में किसान, मज़दूर, कोली लोगों के बच्चे आते थे। इन मित्रों से ही जगदीश ने प्राणी और वनस्पति के संबंध में नई जानकारी हासिल की। और पिता द्वारा ग्रामीण जीवन और सांस्कृतिक परंपरा पर प्रेम करना सीखा।

बचपन में जगदीश को अनेक छंद थे। उस काल में शाला में बच्चे खेल नहीं खेलते थे। खेलना अर्थात समय व्यर्थ गँवाना ऐसा मानना था। किन्तु जगदीश और मित्रों ने शिक्षकों को खेल का महत्त्व समझाया और एकांत जगह के मैदान में क्रिकेट खेलने का सराव (अभ्यास) किया। मेले में वह हमेशा उत्सुकता से भाग लेता था। इसी कारण उसे पुराण के संबंध में और पौराणिक नायकों के प्रति रुचि निर्माण हुई। रामायण व महाभारत की कथा वह मन से पढ़ता था।

कलकत्ता के सेंट झेवियर स्कूल व कॉलेज का शिक्षण पूर्ण होने पर पिता की सलाह से उन्होंने लंडन विद्यापीठ में वैद्यकीय शिक्षण में प्रवेश लिया। किंतु शव की चीरफाड़ उनसे देखी न गई, शव के कक्ष से आनेवाले फॉरमेलीन की गंध उन्हें बर्दास्त नहीं होती थी। लंडन की आबोहवा भी उन्हें रास नहीं आई, इसलिए वे लंडन छोड़ कर केंब्रिज चले गए। वहॉं पर उन्होंने विज्ञान का शिक्षण शुरू किया। पदार्थ विज्ञान, जीवशास्त्र इन दोनों में उन्होंने प्रगति की। निसर्गशास्त्र में निपुणता होने के कारण उन्हें वहॉं शिष्यवृत्ति भी मिली। उसी वर्ष उन्हें लंडन विद्यापीठ से पदवी प्राप्त हुई। प्रसिद्ध संशोधक लॉर्ड रॅले के मार्गदर्शन के अंतर्गत उन्होंने अध्ययन शुरु किया। वहॉं यूरोपीयन प्राध्यापकों से आधी पगार भारतीय प्राध्यापकों को दी जाती थी, इस अपमान का उचितरुप से बदला लेने का बोस ने मन में निश्‍चय किया। गांधीजी का सच्चा चेला होनेवाले बोस ने तीन वर्ष सत्याग्रह किया। उनकी जिज्ञासा, तड़फ व लगन इन गुणों के कारण वे अध्यापक वर्ग में प्रिय बन गए। उसी प्रकार युरोपीयन प्राध्यापकों जितना ही पगार देना मंजूर हुआ व तीन वर्ष का भी उतना ही पगार देना पड़ा। उनके इस कारनामें के कारण सरकार की तरफ से उन्हें सम्मानित किया गया।

सन १८९५ में स्फटिक के सामने प्रकाश को होनेवाली दिकप्राप्ति इस विषय पर लिखा प्रबंध रॉयल सोसायटी संचालित नियतकालिका में प्रसिद्ध हुआ। उसी वर्ष उन्हें उनके मूलभूत संशोधन के कारण लंडन विद्यापीठ ने डॉक्टरेट की पदवी दी। उसी समय उन्होंने कलकत्ता में ‘डॉ. बोस रिसर्च इन्स्टिट्यूट’नाम की संशोधन शाला (प्रयोग शाला) स्थापित की। नेमॅलाइट की सहायता से संदेश भेजने में उन्हें सफलता मिली। उसके बाद उन्होंने अपना लक्ष्य वनस्पतिशास्त्र की ओर मोड़कर सजीव व निर्जीव वस्तू इनकी समानता पर अध्ययन किया। स्नायू, मज्जाजंतू, सुख-दु:ख आदि विकार इनकी खोज इन्होंने वनस्पति द्वारा की। ‘डायमेट्रिकल कॉन्ट्रॅक्शन ऍपेरेटस’ व ‘रेझोनंट रेकॉर्डस’ इन दो उपकरणों की खोज द्वारा ठंडी, प्रकाश, विद्युत इनका वनस्पति व प्राणी इनके ऊपर होनेवाले परिणामों का अभ्यास किया। वनस्पति का श्‍वसन, रुदधिराभिसरण के आधार पर उनके कार्य, अन्न का शोषण, निरुपयोगी वस्तू आदि उनके संशोधन के विषय थे।

बाह्य उत्तेजकों के द्वारा (प्रेरकोंद्वारा) वनस्पति में निर्माण होनेवाले प्रतिसाद अपरिवर्तनीय होते हैं। परिवर्तनीय प्रक्रिया के सबको ज्ञात होनेवाले उदा. अर्थात लज्जावती (घुईमुई) इस वनस्पति का उन्होंने सविस्तर अध्ययन किया। सूर्य के प्रकाश में इसके शर्मानेवाले पत्ते खिले रहते हैं। सूर्य जैसे-जैसे पूर्व से पश्‍चिम की ओर जाता है, वैसे-वैसे ये पत्ते घूम जाते हैं। शाम के समय ये पत्ते मुरझाकर झुक जाते हैं। इस बात का बोस ने स्पष्टिकरण किया।

रिस्पॉन्स इन दि लिव्हिंग ऍण्ड दि नॉनलिव्हिंग (१९०६), फ्लॅट रिस्पॉन्स (१९०६) इलेक्ट्रो फिजिऑलॉजी ऑफ प्लॅटस (१९०७), इरिटॅबिलिटी ऑफ फोटोसिन्थिसिस, दि नर्व्हस मेकॅनिझम ऑफ प्लॅटस, दि मोटर मेकॅनिझम ऑफ प्लॅटस, टॉपिक मूव्हमेंट ऑफ ग्रोथ ऑफ प्लॅटस इत्यादि ग्रंथ प्रसिद्ध हुए हैं। उनके द्वारा संशोधित मायक्रोवेव्ह इस उपकरण का उपयोग शास्त्रीय संशोधन, उद्योग संरक्षण व अन्य क्षेत्रोंमें आज विस्तृत प्रमाण में हो रहा है। वनस्पति के अभ्यास में उन्होंने भौतिक संकल्पना और पद्धति का उपयोग किया। वनस्पति से हमें क्या सीखना चाहिए यह भी उन्होंने लिखा है। परिसर के साथ एकजीव होकर ही वृक्ष पनपता (जीता) है।

नया कुछ त्रासदायक न होने पर ही वह उसका स्वीकार करता है। अनावश्यक उदा.- सूखे हुए पत्ते गिरा देता है। जिस भूमि में वह ऊगता है, उसी भूमि से अन्न ग्रहण करता है। मनुष्य भी यदि जन्मभूमि छोड़ता है, तो उसका विनाश होता है – ऐसा उन्होंने एक संशोधन विषयक लेख में लिखा था। बोस ने अंत में लिखा है कि उनकी श्रद्धा मनुष्यों पर है। इतने प्रचंड विश्‍व में मानव ही ज्ञानदीप लगाकर अज्ञान के अंधकार को दूर करेगा।

बुढ़ापे और स्वाथ्य बिगड़ने के कारण अंत में जगदीश को सक्रिय संशोधन का कार्य छोड़ना पड़ा । किंतु उनके द्वारा स्थापित की गई बोस इन्स्टिट्यूट के कार्य पर वे बराबर ध्यान देते थे। उन्हें मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप की बीमारी थी। इसके कारण हर वर्ष हवा परिवर्तन के लिए दार्जिलिंग जाना उन्हें रोकना पड़ा। अपनी उम्र के अंतिम ४ वर्ष वे बिहार के गिरिदहि में दो महीने विश्राम करने जाते थे।

सन १९३७ में बोस संस्था के वार्षिक उत्सव में उपस्थित रहने के लिए कोलकाता जाने की तैयारी करते समय २३ नवंबर को उन्हें दिल का दौरा पड गया। अत्यंत शांति से उन्होंने इस दुनिया से बिदा ली।

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