जम्मू भाग-६

जम्मू से कुछ दूरी पर बसे दो महत्त्वपूर्ण स्थलों को देखने हम सफ़र शुरु कर ही चुके हैं। लेकिन यह सफ़र काफ़ी लंबा है, तो क्यों न सफ़र के दौरान जम्मू के बारे में कुछ बात की जाये।

जम्मू, यह जम्मू-कश्मीर इस राज्य की सर्दियों के मौसम की राजधानी है; वहीं श्रीनगर यह गर्मियों के मौसम की राजधानी है। लेकिन राज्य की इन दो राजधानियों के बीच काफ़ी दूरी है। दर असल यह इलाक़ा भी पहाड़ी है और सर्दियों में हमेशा बर्फ़ से आच्छादित रहनेवाला। इस प्रदेश में यातायात अधिकतर सड़क से ही होती है। लेकिन यहाँपर रेलमार्ग बनाने की कोशिशें भी चल रही है और एक विशिष्ट पड़ाव तक इसका काम पूरा होकर उसपर से रेलगाड़ी चल भी रही है।

भौगोलिक दृष्टि से यहाँ के कुछ इला़के काफ़ी उँचाई पर बसे हैं, वही कुछ निचले इलाक़ें भी है। साथ ही तापमान में भी काफ़ी फर्क़ रहता है। कम उँचाईवाले इलाक़ों में भी सर्दियों में काफ़ी ठंड रहती है और गर्मियों में कड़ी धूप भी रहती है। हिमालय को पृथ्वी का सबसे युवा पर्वत माना जाता है। अत एव हिमालय की हज़ारों किलोमीटर्स दूर तर फैली हुई पर्वतश्रृखंलाओं में कई परिवर्तन होते रहते है और साथ ही यहाँ कई भूकम्पप्रवण क्षेत्र भी है। अत एव जब यहाँ पर रेलमार्ग बनाने पर विचार किया गया तब इस योजना को साकार करनेवालों के सामने कई आह्वान थे। गरमी, ठंड, बर्फ़, तेज़ हवाएँ, भूकम्पप्रवण क्षेत्र और इस इला़के में बढ़ रही मानवनिर्मित आपत्तियाँ इस सब के बारे में सोचकर रेलमार्ग बनाना जरूरी था। साथ ही विशाल नदियों और पर्वतों को पार करके रेलमार्ग को बनाना बड़ा मुश्किल काम था।

आज इस रेलमार्ग का काम कुछ हद तक पूरा हो चुका है। इस रेलमार्ग को जम्मू से लेकर लगभग ३४५ किलोमीटर्स की दूरी पर रहनेवाले बारामुल्ला तक ले जाने की योजना है। फिलहाल जम्मू से लेकर उधमपूर तक के ५५ किलोमीटर्स तक के रेलमार्ग का काम पूरा किया गया है और उसपर से रेलगाड़ी दौड़ भी रही है। इस ५५ किलोमीटर के रेलमार्ग में कुल १५८ ब्रिज एवं २० सुरंगे है। इनमें से सबसे बड़ी सुरंग की लंबाई है २.५ किलोमीटर्स, वहीं सबसे उँचे ब्रिज की उँचाई है २५३ फीट। भारत के रेलमार्ग पर बने ब्रिजों में यह सबसे उँचा ब्रिज माना जाता है।

इस तरह जम्मू-कश्मीर की दोनों राजधानियों को जोड़ने की कल्पना १९वीं सदी के अन्त में जम्मू के शासकों द्वारा प्रस्तुत की गयी थी और वही शायद इस रेलमार्ग को बनाने की योजना की प्रेरणा रही होगी, ऐसा कहा जा सकता है। लेकिन उस व़क़्त यह योजना फलित नहीं हो सकी। आगे चलकर अँग्रेज़ों के शासनकाल में भी इस तरह की योजना प्रस्तुत की गयी थी। लेकिन कई वजह से उसे स्थगित किया गया। आज़ाद भारत में कई बार इस दिशा में कोशिशें की गयी और आख़िर सन २००५ के मध्य में इस रेल योजना के विद्यमान पड़ाव तक का काम पूरा हो गया। कहा जाता है कि इस रेलमार्ग को पूर्ण रूप में कार्यान्वित होने में कुल २१ साल लग गये। यहाँ की भौगोलिक परिस्थिती एवं कुछ दशकों से यहाँपर बढ़ रही मानवनिर्मित्त आपत्तियों को देखते हुए यह एक महत्वाकांक्षी एवं आह्वानात्मक रेलमार्ग प्रकल्प है ऐसा कहा जा सकता है।

देखिए, सड़क पर से सफ़र करते करते बातों बातों में हम मन से रेल का सफ़र भी कर ही आये। आइए, अब हमारी मन की गाड़ी को रेल की पटरियों से पुन: एक बार सड़क पर ले आते है।

दस असल अब भी हमें काफ़ी दूरी तय करनी है। तो चलिए, इस व़क़्त का उपयोग कुछ जानकारी प्राप्त करने में करते हैं।

‘मन्दिरों का शहर’ यह परिचय रहनेवाले जम्मू शहर के और उसके आसपास के इलाक़ों के कई मन्दिरों में जब उत्सव मनाये जाते है, तब वहाँ मेले लगते है यह तो हम देख ही चुके है। आइए, इन मेलों के बारे में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं।

‘मेला’ यह शब्द कहते ही दिलको लुभानेवाला रंगबिरंगी नज़ारा हमारी आँखो के सामने आ जाता है। एकदम छोटे बच्चे से लेकर लाठी के सहारे चलनेवाले बुज़ुर्ग तक सभी को मेले में शामिल होने में दिलचस्पी रहती है। प्रत्येक मनुष्य को आवश्यक रहनेवाली इस्तेमाल की जानेवाली वस्तुओं से लेकर खाने-पीने की चीज़े भी मेले में रहती है। साथ ही मेले में छोटे बड़े, उँचे कई तरह के झूलें, कई खेल और जादूगरी की कला दिखानेवाले ऐसे मनोरंजन के अनेक साधन भी रहते है। स्थानीय विक्रेता भी हस्तकौशल की वस्तुएँ मेले में बेचते है। घर में रोज इस्तेमाल की जानेवाली बर्तनों जैसी वस्तुओं से लेकर कभी कभार इस्तेमाल की जानेवाली कई वस्तुएँ यहाँ बेची जाती है। सारांश, हर्ष उल्लास, सजधजकर आये हुए लोग, मौजमस्ती और मनोरंजन इन सबको मिलाकर जो कुछ खुशी का माहौल बनेगा, वही मेला होता है।

जम्मू के विभिन्न मेलों में भी कुछ इसी तरह का माहौल रहता है।

तावी तट पर बसे बाहु क़िले के मन्दिर में भी इसी तरह का मेला लगता है, जिसे ‘बाहु मेला’ कहा जाता है। अधिकतर साल में एक बार मेला लगता है, लेकिन बाहु मेले की बात कुछ और है। यह मेला साल में दो बार लगता है। मार्च-अप्रैल में और सितंबर-अक्टूबर में इस तरह दो बार यह मेला लगता है। मेले का प्रमुख अंग यहाँ की देवी के मन्दिर में जाकर दर्शन करना यही है, यह तो आप जान ही गये होंगें।

इसी तरह का एक मेला लगता है, ‘पुरमंडल’ में। इसे ‘पुरमंडल मेला’ कहा जाता है। पुरमंडल के शिवमन्दिर में महाशिवरात्रि उत्सव के पर्व पर यह मेला लगता है। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि को लगनेवाला यह ‘पुरमंडल मेला’ तीन दिनों तक चलता है।

पुरमंडल में ‘शिवजी पार्वतीजी’ का विवाह हुआ ऐसा माना जाता है। इस घटना के स्मरण के रूप में प्रतिवर्ष यह मेला लगता है। यहाँ भी भाविक मन्दिर में जाकर दर्शन करते हैं।

जम्मू शहर में रहनेवाले पंचवक्त्र मन्दिर, रणबीरेश्‍वर मन्दिर जैसे शिवालयों में भी महाशिवरात्रि के पर्व को उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

साथ ही अप्रैल में प्रतिवर्ष ‘मनसर फूड अँड क्राफ्ट’ मेला लगता है। यह इतना मशहूर है कि इसमें शामिल होने के लिए केवल स्थानीय लोग ही नहीं, बल्कि सैलानी भी दूर दूर से आते हैं।

इसके नाम से ही आप यह समझ गये होंगे कि इस मेले में स्थानीय लोगों द्वारा बनायी गयी हस्तकौशल की वस्तुओं को हम देख सकते है और साथ ही स्थानीय व्यंजनों का भी स्वाद ले सकते हैं।

हर एक प्रदेश की संस्कृति में महत्त्वपूर्ण हिस्सा रहता है, वहाँ मनाये जानेवाले त्योहारों का। हमारे भारतवर्ष में कई परंपरागत त्योहार मनाये जाते हैं। निसर्गचक्र के साथ इन त्योहारों का तालमेल रहता है। गरमी, बरसात और सर्दी के मौसम के अनुसार भारत में विभिन्न त्योहार मनाये जाते है। प्रदेशों के अनुसार इनमें कुछ विविधता भी रहती है, तो कभी कभी एक ही त्योहार को अलग अलग नाम से विभिन्न प्रदेशों में मनाया जाता हैं।

जम्मू और उसके आसपास के इलाक़ों में भी साल भर तरह तरह के त्योहार मनाये जाते हैं। लेकिन उनमें से कुछ प्रमुख त्योहारों के बारे में ही हम जानकारी प्राप्त करेंगें।

सूर्य के उत्तरायण को ‘मकरसंक्रान्ति’ के नाम से मनाया जाता है। इसी त्योहार को जम्मू में ‘लोहड़ी’ इस नाम से मनाया जाता है। लोहड़ी की ख़ासियत यह है कि यह वसन्त के आगमन को सूचित करता है। इस पर्व पर भाविक नदी में स्नान करते हैं और यज्ञ-हवन भी करते हें। इसी पर्व पर जम्मू में ‘छज्जा’ नाम का लोकनृत्य भी किया जाता है।

‘लोहड़ी’ के बाद आती है ‘बैसाखी’। वैशाख महिने की शुरुआत और फ़सल काटने का मौसम इन दोनों बातों को बैसाखी सूचित करती है। इस प्रदेश में वैशाख महिना शादी का मौसम माना जाता हैं।

इस प्रदेश की आराध्य रहनेवाली माता वैष्णोदेवी की नवरात्रि भी यहाँ पर मनायी जाती हैं।

देखिए, बातें करते करते हम पहुँच भी गये। लेकिन हम कहाँ आ गये हैं यह बात तो सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते ही आप की समझ में आ जायेगी।

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