नेताजी-२७

netaji

आय.सी.एस. की सनद का स्वीकार न करने के निर्णय के कारण सुभाष अकेला पड़ चुका है, इसका एहसास उसे शरदबाबू के ख़त से हुआ। लेकिन वह किसी भी बात के बारे में केवल गुणात्मक (‘ओन्ली ऑन इट्स ओन मेरिट’) विचार ही करता था, संख्यात्मक दृष्टि की उसके लिए कोई अहमियत नहीं रहती थी। किसी भी बात को बुद्धि की कसौटी पर वह खरी उतरने के बाद ही वह उसके बारे में विचारपूर्वक निर्णय करता था और अत एव पूरी दुनिया चाहे उसके विरोध में क्यों न चली जाये, उसे उससे कोई फर्क नहीं पड़ता था। इसीलिए अटल संघर्ष का सामना करने की नौबत उसकी जिंदगी में कई बार आयी। उसका सारा जीवन ही इस तत्त्वप्रणाली पर आधारित था।

केवल आत्मघात के समान प्रतीत होनेवाले अपने निर्णय के कारण घर के सदस्यों तथा दोस्तों को गहरा सदमा पहुँचेगा, यह वह जानता था। लेकिन उसके लिये क्या कोई अन्य विकल्प उपलब्ध था? अँग्रे़ज यदि उन्हीं की कॉलनी रहनेवाले भारत के लोगों को समानता का द़र्जा तो दूर ही रहा, लेकिन इन्सान जितनी कीमत भी नहीं देनेवालें, तो ऐसी संवेदनशून्य साम्राज्यवादी मनोवृत्ति की नौकरशाही (ब्यूरोक्रसी) का हिस्सा बनना, यह विकल्प सुभाष के लिए अस्तित्व में ही नहीं था।

सुभाष के साथ ही आय.सी.एस. की तैयारी करनेवाले उसके दोस्त दिलीपकुमार रॉय, किटीश चट्टोपाध्याय इन्होंने भी उसे समझाने की लाख कोशिशें कीं। दिलीप के जरिये मँचेस्टर के जिन डॉ. धर्मवीर के साथ सुभाष के मित्रता के संबंध स्थापित हुए थे, उन्होंने भी उसे समझाने की कोशिश की और उसे सब्र रखने की सलाह दी। लेकिन प्रखर देशभक्ति रग रग में बहनेवाले इस तेजस्वी युवा के सत्याग्रह के सामने दुनिया की कोई दलील टिक ही नहीं सकती, इस बात का एहसास उन्हें हो गया और उनके मन में इस युवा के बारे में रहनेवाली सम्मान की भावना कई गुना बढ़ गयी। ‘वैसे तो कभी ज्यादा बात न करनेवाला यह युवा, भारत की स्वतन्त्रता की चर्चा के चलते ही कितनी उत्कटतापूर्वक खौल उठता है नहीं? उसके मुख से उच्चारित तेजस्वी विचारों को सुनने के बाद इतना तो यक़ीन हो ही जाता है कि भारत की आ़जादी अब ज्यादा दूर नहीं’ ऐसा उन्होंने दिलीप से कहा भी।

दूसरी ओर सुभाष की आय.सी.एस. की प्रोबेशन कालावधि ख़त्म होने में कुछ ही दिन बचे थे; अर्थात् सनदी सेवा में प्रवेश करने के प्रतिज्ञापत्र पर दस्तख़त करने का दिन भी क़रीब आ रहा था। इस कारण घर में से शरदबाबू, सतीशदा इनकी ओर से सुभाष पर उसका निर्णय बदलने के लिए दबाव बढ़ रहा था। शरदबाबू के तथा सतीशदा के भी, आय.सी.एस. हो चुके तथा अन्य क्षेत्रों में भी महारत हासिल किये हुए कई दोस्त उस वक़्त इंग्लैंड़ में थे। उनके जरिये भी सुभाष पर दबाव डालने की कोशिशें की गयीं कि तुम्हारा यह फैसला, साँप की पूँछ पर पाँव रखने के बराबर है। ‘जेता’ रहनेवाले अँग्रे़जों की प्रशासनयन्त्रणा में शामिल होने का ‘स्वर्णिम’ अवसर मिला हुआ ‘जित’ भारत का एक युवा उस अवसर पर बेझीझक तुच्छतापूर्वक दुतकार देने की जुर्रत भला कैसे कर सकता है? इस बात की आदी न रहनेवाली अँग्रे़ज सरकार इसे अपना व्यक्तिगत अपमान समझकर तुमपर खार खा सकती है, ऐसी ‘चेतावनी’ इन लोगों द्वारा सुभाष को दी गयी। इस दबाव के साथ साथ, उपवर कन्याओं के अमीर पिताओें के ढेर सारे शुभेच्छासंदेश तथा उनकी कन्याओं की तसवीरें हररो़ज ही भारत से प्राप्त होती थीं। उनमें से यदि कोई पसन्द हो तो जरूर बताना, ऐसी निरन्तर रट उसकी माँ द्वारा, विभाभाभी द्वारा लगायी जा रही थी; और इतना सबकुछ शायद कम था कि उसी समय उसकी एक बहन भी गंभीर बीमारी से मरणोन्मुख अवस्था में थी। इतनी तनावपूर्ण स्थिति में यदि तुम्हारे इस निर्णय के बारे में उन्हें पता चल जाये, तो उनपर दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ेगा, इस बात की कल्पना उसे दी गयी।
नियति मानो उसके मन के ‘फौलाद की’ अग्निपरीक्षा ही ले रही थी!

इस तनाव को ख़त्म करने के लिए सुभाष ने अब स्वयं ही पिताजी को ख़त लिखा, जिसमें भूमिका बाँधने में ज्यादा समय बरबाद न करते हुए ठेंठ मुद्दे की ही बात की थी – ‘हम दोनों के मार्ग अलग रहने के कारण एक-दूसरे के मत हमें रास नहीं आ सकते। इसलिए कृपा करके मुझे मेरा मार्ग चुनने की अनुमति दे दीजिए।’

उसने शरदबाबू को भी जवाब भेजा –

‘सरकारी नौकरी में रहकर भी देशसेवा की जा सकती है, यह आपका कहना कुछ हद तक सही हो भी सकता है और उसके लिए रमेशचन्द्रजी दत्त का दिया हुआ उदाहरण भी उचित ही है। लेकिन उनकी जितनी क्षमता रखनेवाला व्यक्ति यदि सरकारी नौकरी में न होता, तो और भी अच्छी तरह से देश की सेवा कर सकता था, ऐसा मुझे लगता है। साथ ही, सरकारी नौकरी में रहकर भारतमाता की सेवा करना चाहनेवाले रमेशचन्द्रजी को नौकरी में अपने वरिष्ठों तथा सहकर्मियों से बार बार कितना अपमान तथा मानसिक क्लेश सहना पड़ा और उनके हर प्रमोशन के समय उनकी यही देशसेवा उनके रास्ते का रोड़ा कैसे बनती थी, यह इतिहास तो हमें ज्ञात ही है। दरअसल भारत के लिए नाक़ाम साबित हो चुकी इस संवेदनाशून्य यन्त्रणा का हिस्सा बनना ही मुझे मंज़ूर नहीं है।’

आपने कहा कि फिलहाल इस सरकारी नौकरी का स्वीकार करो और बाद में यदि मुश्किलें बढ़ने लगें, तो नौकरी से इस्तीफा दे दो। लेकिन ऐसा करने में एक मुख्य अड़चन यह है कि सरकारी नौकरी में दाख़िल होने से पहले एक प्रतिज्ञापत्र पर दस्तख़त करने पड़ते हैं। ‘मैं मेरी सारी निष्ठाएँ हिन्दुस्थान के बादशाह पंचम जॉर्ज के चरणों में समर्पित कर रहा हूँ’ ऐसी प्रतिज्ञा लिखे हुए उस काग़ज के टुकड़े पर मैं जिस क्षण दस्तख़त करूँगा, उसी क्षण मेरी अन्तरात्मा बिक चुकी होगी और मेरे स्वतन्त्र व्यक्तित्व की मृत्यु हो चुकी होगी। फिर उसके बाद चाहे तीन दिन नौकरी करूँ या तीन साल, मेरे लिए उसमें कोई फर्क नहीं होगा। ऐसे प्रतिज्ञापत्र पर दस्तख़त करना, यह भारतमाता को ज़ुल्मी अँग्रे़जों से आ़जादी दिलाने की मेरी मूल प्रतिज्ञा से मुँह फेरना होगा, जो मेरे लिए असंभव है।

रही बात माँ और पिताजी की। मुझपर अपनी सारी आशाएँ केंद्रित कर चुके माँ-पिताजी पर मेरे इस फैसले के कारण पहाड़ टूट पड़ेगा, यह बात तो सही है। लेकिन यदि सभी इसी प्रकार केवल खुद के बारे में, अपने परिवार के बारे में सोचने लगें, तो देशसेवा का यह खड्ग भला उठायेगा कौन? मैंने उसे उठाने की ठान ली है। इसीलिए शायद कलेजे पर पत्थर रखकर इन रेशमी धागों को तोड़ना होगा। कुछ समय के लिए सभी को दुखी तो जरूर होगा, लेकिन और कोई चारा भी तो नहीं है। मैंने मेरा मार्ग चुन लिया है। उम्मीद है कि पिताजी और आप मेरे इस निर्णय की प्रामाणिकता को समझ सकेंगे।’

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