स्वतन्त्रता यज्ञ

जाड़ों के दिन बस अभी अभी ख़त्म हुए थे। अब धीरे धीरे गरमी बढ़नेवाली थी। हालाँकि चिलचिलाती धूप तो नहीं थी, मग़र फिर भी माहौल कुछ गरमा सा रहा था।

अपनी मातृभूमि से प्रेम करनेवाले हर एक भारतीय के मन में कुछ हो तो रहा था, लेकिन प्रकट रूप में कहीं कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। दर असल  प्रत्येक मन ग़ुस्से से धधक रहा था। अपनी आँखों के सामने हो रहे रोज के जुल्मों को देखकर वह मन सुलग रहा था; असंतोष से भरा हुआ वह मन कुछ तो करना ही चाहिए यह सोच रहा था। लेकिन क्या करना चाहिए इसकी दिशा उसे नहीं मिल रही थी।

ऐसे में ही वह घटना हुई। समय था सन 1857 का। अँग्रेज़ों ने अब भारत में अपनी जड़ें मज़बूत बना ली थीं। अब वे यहाँ के शासक बन चुके थे। अपने व्यापारी मुखौटे को शासनकर्ता के रूप में उन्होंने बड़ी चालाक़ी से बदल लिया था।

भारत की छोटी बड़ी रियासतों को निगलते हुए और यहाँ की जनता को अपने पैरों तले कुचलते हुए ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी अपना जाल फैला रही थी। स्वयं ही क़ानून बनाना, स्वयं ही नियम तय करना और उन्हें यहाँ की जनता पर लादना और यदि उन्हें मानने से जनता इनकार करती है, तो उस जनता पर बेतहाशा ज़ुल्म ढाते हुए अँग्रेज अफ़सरों का ग़ुस्सा बाहर निकलता था।

लेकिन आख़िर इस देश के लोग भी तो इन्सान ही थे, उनके भी सीनें में दिल था। अँग्रेज़ों के अत्याचार देखकर एवं सहकर उन मनों में अब क्रोध और असंतोष के बीज पनपने लगे थे। यह देश हमारा, यह भूमि हमारी, यह हमारी माता- भारतमाता और उस पर यानी हम पर होनेवालें अत्याचारों को भला हम क्यों सहें? यह एक ही सवाल इस मातृभूमि से प्रेम करनेवाले हर मन में बार बार उठ रहा था।

ज़ुल्मी अँग्रेज़ों के प्रति भारतीय जनमानस में रहनेवाले इस क्रोध और असंतोष के बीज अब छोटी छोटी चिंगारियों का रूप धारण कर चुके थे। अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने के स्फुल्लिंग अब भारतवासियों के मन में प्रज्वलित हो चुके थे। जब इस तरह की हज़ारों चिंगारियाँ एक साथ आ जाती हैं, तब प्रज्वलित होती हैं  ‘अग्नि’- प्रकाश देनेवाली, अँधेरे का नाश करनेवाली अग्नि!

भारतीयों के मन की इन उदात्त एवं पवित्र चिंगारियों ने प्रज्वलित की, एक अग्नि- यज्ञकुंड की अग्नि! इस भारतभूमि पर आरंभ हुआ एक यज्ञ का- स्वतन्त्रताप्राप्ति के यज्ञ का। लाखों भारतीयों की मातृभूमि- भारतमाता ही इस यज्ञ की आराध्य थीं।

इस स्वतन्त्रता यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए मातृभक्त भारतीय अब हज़ारों की संख्या में आगे आ रहे थे और इसी दौरान वह घटना घटित हुई। इस यज्ञ में सर्वस्व की पहली आहुति पड़ गयी और इसके बाद अगले 90 वर्षों तक इसी तरह की आहुतियाँ पड़ती रहीं। कई भारतीय अपनी उम्र, जाति,धर्म,पद आदि बातों का विचार तक न करते हुए, केवल अपनी मातृभूमि को आज़ाद करने के एकमात्र ध्येय से प्रेरित होकर, इस जुनुन के साथ अपने सर्वस्व का समर्पण करते रहे।

मंगल पांडे
मंगल पांडे

मंगल पांडे 29 मार्च 1857 की दोपहर में बराकपुर, कोलकाता स्थित 34 वीं बंगाल नेटिव्ह इन्फन्ट्री का ‘मंगल पांडे’ नाम का एक सिपाही अँग्रेज़ों के अन्याय के खिलाफ़ भड़क उठा और उसने अपने वरिष्ठ अँग्रेज़ अफ़सर पर हमला कर दिया। यहीं पर इस स्वतन्त्रता समर की अग्नि भड़क उठी और यह आग फैलती ही रही।

इस देश पर राज करनेवाले अँग्रेज़ों की फ़ौज में हज़ारों की तादाद में भारतीय सैनिक थे। अपने ही देशवासियों के खिलाफ़ उन्हें कई बार शस्त्र उठाना पड़ता था। ‘ ’ की इस बहादुरी की प्रतिध्वनि फिर देशभर की फ़ौजी छावनियों में गूँजने लगी।

मेरठ, कानपुर,लखनौ, झाँसी, दिल्ली, ग्वालियर, अलाहाबाद, अयोध्या, इन्दौर,सागर और भारत के अन्य इलाक़ों में भड़क उठीं चिंगारियों ने इस स्वतन्त्रता समर की अग्नि को अधिक प्रज्वलित करने में अपना योगदान दिया।

पाशवीय अत्याचार, ज़ुल्म-ज़बरदस्ती, बेमुरौवत इस तरह की बातें जब मानवी समाज में बढ़ने लगती है; तब यह सब जिन्हें सहना पड़ता है, वे मानव इसके खिलाफ़ विद्रोह करते हैं और इसीमें से होती है ‘क्रान्ति’। यह क्रान्ति चाहे सशस्त्र हो या नि:शस्त्र, उसे करते हैं ऐसे लोग, जिन्हें मानवी मूल्यों के प्रति एहसास एवं प्यार रहता है। दुनिया के इतिहास में मानवी समाज जब जब उसपर होनेवाले, उसकी मातृभूमि पर होनेवाले अन्याय के खिलाफ़ भड़क उठा है, तब तब क्रान्ति हुई है और इसीलिए उस प्रक्रिया में जो जो जंग लड़ते हैं वे ‘क्रान्तिकारी’ होते हैं और अपनी मातृभूमि से रहनेवाले प्रेम के ख़ातिर वे इस जंग को लड़ते हैं, इसलिए वे ‘देशभक्त’ भी कहलाये जाते हैं।

वासुदेव बळवंत फडके
वासुदेव बळवंत फडके
veer-savarkar
स्वातन्त्र्यवीर सावरकर

स्वतन्त्रतासमर के इस यज्ञ में मंगल पाण्डे शहीद हो गये, मग़र फिर भी इस यज्ञ को जारी रखा, नानासाहब पेशवा, तात्या टोपे, रंगो बापुजी, बहादुरशाह,कुँवरसिंह, अवध की रानी ने। इनके द्वारा जलाये गये स्वतन्त्रतायज्ञ की लपटें कुछ कम सी हो गयी हैं ऐसा अँग्रेज़ सरकार को लग ही रहा था कि उससे पहले ही लोकमान्य बाळ गंगाधर टिळक, दादाभाई नौरोजी, विष्णुशास्त्री चिपळुणकर, आगरकर,नामदार गोपाळकृष्ण गोखले, सुरेन्द्रनाथ बॅनर्जी, चाफेकर बन्धु, रानड़े, स्वातन्त्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर, उनके बड़े भाई बाबाराव सावरकर, बिपिनचन्द्र पाल, लाला लजपतराय, मदनलाल धिंग्रा, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, चन्द्रशेखर आझाद, खुदीराम बोस, लाला हरदयाल, अनन्त कान्हेरे, कर्वे, देशपांडे, अरविंद घोष, सत्येन्द्र बसू, कन्हैयालाल दत्त, रासबिहारी बोस जैसे अनेकों ने इस अग्नि को प्रज्वलित रखा। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, महात्मा गाँधी, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, पं. मदनमोहन मालवीय, विठ्ठलभाई पटेल, डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जैसे अनेक सेनानी इस स्वतन्त्रता युद्ध में लड़ते रहे।

यह गाथा है, ऐसे हज़ारों परिचित एवं अनाम देशभक्तों की वीरता की, उनके बलिदान की। यह घटित हुई क्रान्ति की गाथा भी है और उसे करनेवाले क्रान्तिकारियों की गाथा भी है। इसीलिए इसका पहला पन्ना पलटते हुए उन हज़ारों क्रान्तिवीरों की स्मृति को अभिवादन करते हैं और उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

आगे जारी…

क्रान्तिगाथा

भाग २, भाग ३, भाग ४,

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