डॉ. नॉर्मन बोरलॉग

norman-borlaugमानव को खेती का ज्ञान हुआ, यह एक महत्वपूर्ण खोज थी। इन्सान और अन्य प्राणियों में भिन्नता दिखानेवाली यह एक महत्वपूर्ण खोज साबित हुई। संपूर्ण मानवसमाज को जिन्दा रखनेवाले खेती जैसे उत्पादक क्षेत्र के आवाहनों का स्वीकार कर, कल्याणकारी संशोधन करनेवाले नॉर्मन बोरलॉग निश्‍चित रूप से बीसवीं सदी के एक विख्यात वैज्ञानिक माने जाते हैं।

हरित क्रांति के मूलतत्त्व के जनक एवं हरित क्रांति के प्रणेता इस रूप से जाने जानेवाले कृषिविषेशज्ञ थे- डॉ. नॉर्मन बोरलॉग। नॉर्मन का जन्म २५ मार्च १९१४ को अमरीका के आयोवा राज्य के क्रेस्को में हुआ। बचपन से उन्होंने अपने १०६ एकर क्षेत्र में फैले खेतों में काम करना शुरु किया। सन १९२९ में सारे विश्‍व में मंदी का दौर चल रहा था। उसी दौरान वे मिनिसोटा युनिवर्सिटी में वनविज्ञान के अध्ययन हेतु दाखिल हुए। सन १९३९ में उस शाखा की उच्च डिग्री पाकर उन्होंने डॉक्टरेट का खिताब पाया।

मेक्सिकन सरकार एवं रॉकफेलर फाऊंडेशन ने संयुक्त उपक्रमांतर्गत नेमी हुई कमीटी में डॉ. नॉर्मन को अनाज की स्थिति देखने के लिए बुलाया गया। वहां उनका संशोधनात्मक कार्य शुरु हुआ। मेक्सिको में तोलुका नामक प्रयोग केंद्र था। इस कार्य में उन्होंने गेहूं की पांच पारंपारिक जातियां, तथा अन्य कुछ जातियों का इस्तेमाल संकर बीज निर्माण के लिए किया। उस में से चार खात्रिदायक बीज निर्माण किए गए। उस प्रांत के किसान आर्थिक तौर पर दुर्बल थे और उनकी जमीनें भी अनुकूल नहीं थीं। इस पर उपाय हेतु केंद्र को सोनोरा लाया गया। सोनोरा में जमीन समतल थी और वहां पर परबतों से बहनेवाला नदियों का पानी भी उपलब्ध था। ऐसा होते हुए भी उत्तर की ओर रेत का प्रदेश होने की वजह से बहुतसारे अच्छे बीज भी टिक नहीं पाए। फिर भी वे अपने प्रयोग में कामयाब हो गए।

सन १९५० के दौरान मेक्सिको की अनाज समस्या सुलझाने के लिए रॉकफेलर फाऊंडेशन की ओर से जो कमीटी गई थी वह सफल हो गई। दो प्रायोगिक फसलों के बीच का अंतर कम हो गया, फसलों को जो कीडे नष्त किया करते थे उन के लिए दवाओं का प्रयोग कामयाब साबित हुआ। इस के अलावा प्रयोग समुद्रस्तर तथा पहाडी खेती आदि जमीनों में तथा विभिन्न मौसमों में किया गया। उत्तर अफ्रिका तथा मध्यपूर्व देशों में अनाज समस्या का भीषण स्वरूप धारण किया था। सन १९५८ से १९६२ के दौरान भारी सूखा पडा था। फिर से प्रयोग करने की जरुरत पडी। सन १९५९ के दौरान संयुक्त राष्ट्रसंघ ने संशोधकों की एक समिति नेमकर उस में डॉ.नॉर्मन को शामिल किया। उन्होंने भारत, अफघानिस्तान, पाकिस्तान, लिबिया, जॉर्डन, लेबॅनॉन एवं मिस्र परिस्थितियों का अध्ययन किया। वहां के प्रयोग एवं तरीकों की जानकारी हासिल की। अंत में उन संशोधकों ने पाया कि, किसानों के बुनियादी प्रश्‍नों की ओर ध्यान नहीं दिया जाता और कार्य की योग्य दिशा नहीं है।

डॉ. नॉर्मन ने जाना कि लोगों की समस्याओं पर प्रबोधन करना, जनजागृति करना, उन्हें सही मार्गदर्शन करने की जरुरत है। वे उस दिशा में कार्य करने लगे। उन्होंने नए युवा संशोधकों को इस कार्य के लिए प्रेरित किया। वनस्पति विकृति शास्त्र, फसलों के कीडे, घास व्यवस्थापन, मृदाशास्त्र के विषयों के शिक्षायोजना कार्यान्वित की। कृषिसंघटनाओं को वैश्‍विक अनाज संघटनाओं द्वारा सुझाई गई गेहुओं के विभिन्न बीजों का आंतरराष्ट्रिय स्तर पर परिक्षण के बारे में शिक्षा प्रदान की गई। सौ से अधिक प्रकार के बीजों को १५० जगहों पर टेस्ट किए गए।

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इस के बाद मेक्सिको में नई संशोधन संस्था स्थापित की गई। कमीटी का मुख्य उद्देश्य था कि सभी संशोधनों का उपयोग विकसित देशों को ही हो। डॉ. नॉर्मन गेहूं संशोधन प्रकल्प के मुखिया थे। उन के कार्यों से अधिकांश संशोधक, वनस्पति वैज्ञानिक प्रभावित हुए। गेहूं की उन नई जातियों की फसल कामयाब हुई।

डॉ. नॉर्मन ने अनाज की समस्या, लोकसंख्या, फसलों की समस्या, पर्यावरण का संतुलन इन विषयों पर अपने विचार रखे। विकासशील राष्ट्रों का मूल प्रश्‍न और उस के उपायों का रास्ता निकालने में सहायता की। भूख, अनाज की बढती हुई मांग से पीडित देशों की समस्याओं से छुटकारा दिलाने का शुभकार्य उनके हाथों हुआ। मेक्सिको के साथ साथ कुछ विकासशील देशों की खेती, अनाजविषयक योजनाओं का लाभ मिला।

गरीबी, भूखमरी, बेरोज़गारी जैसी समस्याओं की भयानकता धीरे धीरे घटाकर, हरित क्रांति का कार्य करने की वजह से उन्हें ‘नोबेल’ पुरस्कार से सम्ङ्कानित किया गया। ‘वर्ल्ड विदाऊट हंगर’ यह पुरस्कार उन्हें दिया गया। जिस भूमी (सोनोरा) पर उन्होंने पहले प्रयोग किया, वहीं जनता ने प्रेम से उनके सम्मान में एक रास्ते को सन १९६८ में उनका नाम दिया।

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