परमहंस- १०

सात साल की उम्र में ही माथे पर से पिताजी का साया उठ चुके गदाधर का शरारतीपन थमकर वह अधिक ही अंतर्मुख हुआ था। उसे अब टकटकी भी बहुत बार लगने लगी थी और ऐसी टकटकी लगने के लिए – भगवान की कोई सुन्दर मूर्ति, यहाँ तक कि आसमान के बादल, पर्वत, बारिश, हरेभरे खेत, आकाश में उड़नेवाले पंछी….ऐसा कोई भी दृश्य उसका ध्यान खींच लेता था और ऐसी टकटकी लगने के बाद वह होश में नहीं रहता था।

बार बार होनेवाली उसकी इस स्थिति को देखकर उसकी माँ का कलेजा धड़क जाता था। बाकी सबकुछ सुव्यवस्थित होनेवाले इस बच्चे को यह बीच बीच में अचानक क्या हो जाता है, इस बात को वह समझ नहीं पा रही थी। लेकिन हर बार ऐसी टकटकी लगने की घटना के बाद वह माँ को – ‘मैं बेहोश नहीं हुआ था; मेरी सबकुछ समझ में आ रहा था और उस समय मैं अत्यधिक आनन्द में था’ ऐसा दृढ़तापूर्वक कहता था। लेकिन माँ का काँप उठा दिल यह बात मानने से इन्कार कर देता था। फिर वह गाँव के वैद्य को, उसे दवाई देकर उसका ईलाज करने की विनती करती थी। लेकिन उसकी तबियत बाक़ी हट्टीकट्टी रहने के कारण, ‘उसे कुछ भी नहीं हुआ है’ यह वैद्यजी को अब मालूम हुआ था। वे माँ के सुकून के लिए गदाधर को कुछ न कुछ मामूली दवा दे देते थे, लेकिन गदाधर उसे न पीते हुए, घर से बाहर चला जाते ही उसे चुपके से फेंक देता था।

उसे यह ‘बीमारी’ है, यह सोचकर माँ ने कुछ दिनों के लिए उसका पाठशाला जाना बन्द कर दिया था। इससे वह खुश ही हुआ था। अब वह दिनभर गाँव के उसके नित्य के कुछ स्थानों पर बिना चूके हो आता था।

साथ ही, गाँव के मूर्तिकार के घर की तरह ही, उसके अन्य भी कुछ प्रिय स्थान थे। गाँव के ज़मीनदार लहूबाबू ने गाँव में आने-जानेवाले पांथस्थों के लिए बनायी धर्मशाला, यह ऐसे स्थानों में से ही एक था। कामारपुकूर यह गाँव ‘पुरी’ इस सुविख्यात तीर्थस्थल के मार्ग में ही रहने के कारण, वहाँ जानेवाले यात्री कई बार कामारपुकूर में थोड़ासा आराम करके ही आगे चले जाते थे। इन यात्रियों के निवास के लिए यह धर्मशाला बनायी गयी थी। इस कारण वहाँ पर कई बार साधु-बैरागी भी ठहरते थे।

भगवे कपड़े पहने, लंबीं लंबीं दाढ़ीमूँछें-जटाएँ बढ़ाये हुए, भस्म के पट्टे आरेखित किये, माथे पर तिलक-गंध लगाये, कभीकभार भजनकीर्तन करनेवाले उन साधुबैरागियों को गदाधर घँटो निहारते रहता था। वह उनके छोटेमोटे काम भी कर देता था। बेटे के हाथों साधुओं की सेवा हो रही है, उसे साधुओं के आशीर्वाद मिल रहे हैं, यह देखकर माँ भी आनंदित हो जाती थी।

वह उनका संभाषण ध्यान देकर सुनता था। इन साधुबैरागियों ने सर्वसंगपरित्याग किया है, इस बात का पता उसे लग चुका था और इससे उनके मन में असीम शांति होने की बात भी उन्हीं की ज़बानी उसे मालूम हो चुकी थी।

एक बार वह ऐसे ही टकटकी लगाकर उन साधुबैरागियों को निहारते बैठा था, तब उनमें से किसी का तो उसकी ओर ध्यान गया। उसने कौतुकपूर्वक गदाधर को पास बुलाकर, उसके बदन पर राख पोतकर, उसके हाथों पर भस्म के पट्टें अंकित कर, माथे पर गंध लगाकर, उसके गले में रुद्राक्ष की मालाएँ वगैरा पहनाकर उसे भी साधु ‘बना दिया’!

गदाधर को वह सबकुछ बहुत ही भाया और वह उसी हुलिये में घर आकर माँ से सामने खड़ा हुआ – ‘माँ, मैं साधु बनूँगा!’

यह नन्हा सा साधु इतना सलोना लग रहा था कि माँ उसे देखती ही रह गयी। हालाँकि गदाधर ने साधुओं की सेवा की हुई माँ को अच्छी लगती थी, मग़र फिर भी वह खुद साधु बनकर घर से दूर चला जाये, यह बात सोचने से भी उसका दिल काँप उठता था। इस कारण, पहले ही पिताजी की मृत्यु के बाद गंभीर एवं अंतर्मुख बन चुका गदाधर – अब ‘सच में ही साधु बन गया, तो क्या’ इस डर से माँ का दिल तड़प उठा।

लेकिन कुल मिलाकर उसके मुख से, आगे घटित होनेवाली घटनाओं की मानो झलक ही सुनने को मिली थी।

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