समर्थ इतिहास-१४

अगस्त्य ऋषि ने दण्डकारण्य में रहनेवाले उनके आश्रमों की ज़िम्मेदारी सुतीक्ष्ण नामक प्रमुख शिष्य को सौंपी और ‘नक्कीरर` नामक राजकीय अधिकारी के साथ उन्होंने विंध्याचल पर चढ़ना शुरू किया; परन्तु संपूर्ण विंध्याचल घने जंगलों से व्याप्त था। सूरज की छोटी सी किरन तक को अंदर आने से प्रतिबंध करनेवाले प्रचंड बड़े और अकराल-विकराल पेड़ और खूँखार जानवरों का मुक्त संचार ये दो बड़ी बाधाएँ प्रवास की गति को रोकने लगीं। अगस्त्य ऋषि के साथ उनके १०८ युवा शिष्य भी थे। इन्होंने अत्यधिक मुश्किल परिस्थिति से अक्षरशः रास्ता निकाला, जानवरों का सामना करते हुए और पेड़ों को काटकर आगे चलते हुए रास्ता भी बनाया। ‘नक्कीरर` को उसके द्वारा की गयी भ्रमंति में ज्ञात हो गया था कि विंध्य पर्वत की ऋक्षवान और पारियात्र इन दो पर्वत शृंखलाओं में शबर, विद्याधर और त्रैपुर इन वनवासी जनजातियों की बसती है। अगस्त्य ऋषि ने जल्द ही इन उपनिवेशों तक पहुँचने में सफलता हासिल की। यहाँ के वनवासियों को, अगस्त्य ऋषि ने उनके वैद्यकशास्त्र के ज्ञान की सहायता से अपना बनाया। उस समय उन सभी उपनिवेशों में एक विचित्र बुखार का संक्रमण हुआ था और अनगिनत बच्चों की मौत हो रही थी। अगस्त्य ऋषि ने इस महामारी को रोका और इस कारण ये सभी वनवासी लोग अगस्त्य ऋषि को उनका धर्मगुरु मानने लगे। भले ही ये जनजातियाँ वनवासी थीं, बहुसंख्य समाज से अलग पड़ी हुई थीं, फिर भी वे असंस्कृत नहीं थे। मूल भारतीय संस्कृति के साथ दृढ़ रिश्ता रहनेवाली उनकी अपनी एक प्रचलित परंपरा थी। सूर्य और शिश्नदेव (लिंग) ये उनके आराध्य देवता थे और मुख्य रूप से अग्नि ये उनके ग्रामरक्षक देवता थे। इस कारण मनोमिलाप होने में कोई भी रुकावट नहीं रही। इन जनजातियों को अगस्त्य ऋषि देवदूत और उनके संरक्षक प्रतीत होने के लिए एक और बड़ा कारण घटित हुआ। इन उपनिवेशों से नैऋत्य दिशा में पिशाच, तमस और दशार्ण इन जनजातियों का वास्तव्य था। ये जनजातियाँ अत्यधिक खूँखार और नरबलि देनेवाली थीं। उनका शारीरिक बल और जनसंख्या भी इन त्रैपूर उपनिवेशों की अपेक्षा बहुत प्रचंड थी। इन खूँखार जनजातियों को उनके नाम, विंध्य पर्वत पर उद्गम होनेवाली तमसा, दशार्णा और विपाशा इन नदियों से प्राप्त हुए थे और संपूर्ण ऋक्षवान पर्वत इनके अधिपत्य में था, इस कारण इन्हें ‘ऋक्षस` अथवा ‘राक्षस` यह नामाभिधान प्राप्त हुआ था। अगस्त्य ऋषि ने शबर, मैत्रक और विद्याधरों को शस्त्रविद्या सिखायी और उन्हें इन खूँखार जनजातियों से सफलतापूर्वक लड़ना सिखाया।

इस तरह विंध्य पर्वत में रहनेवाली खूँखार और नरबलि देनेवाली ऋक्षस जनजाति का बंदोबस्त करके अगस्त्य मुनि आगे बढ़ गये; तब विंध्य पर्वत की दक्षिण ढलान पर स्थित दो बड़े उपनिवेशों से विद्याधरों ने उनका परिचय करवाया। विद्याधर यह जनजाति मूल इसी समाज की एक शाखा थी। ‘वेळीर` और ‘अरुवालर` ये इन जनजातियों के नाम थे। ये वेळीर और अरुवालर जानते थे कि उनकी एक शाखा ऋक्षस के डर से विंध्य पर्वत में छिपकर रह रही है और इसी कारण विद्याधर और वेळीर तथा अरुवालर इनका पुनर्मिलन दोनों तरफ अत्यंत स्वागतार्ह एवं आनन्दप्रद था। वेळीर समाज पशुपालन करता था; वहीं अलुवालर समाज खेती प्रधान था। ये दोनों समाज विद्याधर और मैत्रकों की तरह ही सूर्यदेव और शिश्नदेव की उपासना करते थे । परन्तु उसी के साथ ही ये अग्नि की उपासना भी करते थे और उसके लिए कहे जानेवाले मंत्रों में कई वैदिक ऋचाएँ भी थीं और इस समाज के ज्येष्ठ लोगों को (बड़े बुजुर्गों को) उनका मूल उद्गम भी अच्छी तरह ज्ञात था। इस कारण इन दोनों समाजों ने अगस्त्य ऋषि को, उनकी पुरानी कड़ी जोडने के लिए ‘सूर्यदेव द्वारा भेजा गया सूर्यदेव का पुत्र` इस दृष्टि से ही देखा और अगस्त्य ऋषि ने भी उस बिखरे हुए समाज को एकत्रित लाकर उन्हें सुसंगठित समाज का स्वरूप दिया। चिकित्साशास्त्र और शस्त्रविद्या सिखाते हुए ही अगस्त्य ऋषि ने इस समाज में अत्यंत सम्मान का स्थान प्राप्त किया और उनकी मातृभाषा सीखकर अगस्त्य ऋषि आगे बढ गये। इन समूहों की भाषा ‘तमिल` थी।

विंध्य पर्वत से उतरते ही अगस्त्य मुनि को दिखायी दिया, ‘वेंगडम` देश। यह वेंगडम राज्य प्रमुख रूप से खेतीप्रधान राष्ट्र था। उस समय दक्षिण दिशा में रहनेवाले इस प्रदेश का नाम ‘तामिळहम्‌‍` यह था। आज का केरल प्रदेश और तमिलनाडू इन दोनों प्रदेशों को मिलाकर तामिळहम्‌‍ क्षेत्र बना हुआ था। इस पूरे प्रदेश के प्रमुख पाँच विभाग थे। १) पालय २) मुल्लय ३) नेदियल ४) मरुदम्‌‍ ५) पुरिंजी। इनमें से मुल्लय और मरुदम्‌‍ यहाँ का लोकसमाज पशुपालक और किसान था, वहीं नेदियल समाज समुद्री तट के करीब वास्तव्य करने के कारण समुद्र पर गुज़ारा करता था। ये सभी समाज मुख्य रूप से तमिल भाषा बोलनेवाले थे; तो ‘उदकमंडलम्‌‍` से ‘ताम्रपर्णी` नदी के मुख तक वास्तव्य करनेवाले समाज मल्ल्याळम्‌‍ भाषा बोलनेवाले थे।

तमिलनाडू का प्राचीन इतिहास अगस्त्य ऋषि की कथाओं से ओतप्रोत भरा हुआ है। वेंगडम्‌‍ और पांड्यनाडु इन दो राष्ट्रों के राजा सगे भाई थे; वहीं, चोळनाडु का राजा इन दोनों का मौसेरा भाई था। इन तीनों राज्यों में शिल्पकला, खेती, बुनाई का काम और गहने बनाना ये विद्याएँ उत्कर्ष पर पहुँची हुई थीं। इन राज्यों में योजनाबद्ध तरीके से बनाये हुए कई नगर भी थे। अरुवालरों का राजा कोलुवु यह पांड्यनाडु के राजा का सामंत था। इस कारण अगस्त्य ऋषि का पांड्यनाडु में प्यार से स्वागत हुआ। इन तीनों राष्ट्रों के राजा भले ही एक-दूसरे के भाई थे, फिर भी उनके बीच निरंतर अनबन चलती रहती थी और इस कारण समाजव्यवस्था अस्थिर बन रही थी। इस सुसंस्कृत एवं नीतिमान तमिल प्रदेश में इस तरह आपसी बैर के कारण विकास का रुक जाना, अगस्त्य ऋषि की प्रज्ञा ने तुरन्त जान लिया और अगस्त्य ऋषि ने सबसे पहले इन तीनों राज्यों में समेट करवाया।
पांड्यनाडु, चोळनाडु, चेरनाडु, तोंडऐनाडु और कोंगुनाडु इन पाँच प्रमुख प्रदेशों के राजघरानों के वे कुलगुरु बन गये। इनके द्वारा किया गया एक मुख्य कार्य है, इन्होंने तमिल भाषा का बृहद्व्याकरण सिखानेवाला एक ग्रंथ तैयार किया। इस ग्रंथ का नाम ‘अगत्तियम्‌‍` यह था। नक्कीरर ने इस पर भाष्य भी किया है और यह भाष्य आज भी उपलब्ध है।

अगस्त्य ऋषि ने तमिलनाडु की और तमिल भाषा की महान संस्कृति का आदरपूर्वक एवं सम्मानपूर्वक स्वीकार किया और दक्षिण भारत के एक महान पर्व का आरंभ हुआ।

(क्रमशः)

सौजन्य : दैनिक प्रत्यक्ष

(मूलतः दैनिक प्रत्यक्ष में प्रकाशित हुए अग्रलेख का यह हिन्दी अनुवाद है|)

 

 

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