क्रान्तिगाथा-१३

जून के महीने की शुरुआत ही हुई थी, सारे भारतवर्ष के सैनिकों के लिए एक चेतना भरा माहौल लेकर। मई के अन्त में और जून के पहले ह़फ़्ते में उत्तरी भारत के इला़कें एक के बाद एक करके आज़ाद होने के लिए युद्ध के मैदान में उतरने लगे थे।

दिल्ली का तख़्त अपने कब्ज़े में से खोता हुआ देखकर अँग्रेज़ों ने क्रिमियन युध्द में व्यस्त रहनेवाली अपनी सेना का रुख भारत की ओर कर दिया और चीन की तरफ़ आगे बढ़ रही ब्रिटीश सेना भी दिल्ली की ओर कूच करने लगी। साथ ही भारत के अन्य इलाक़ों में रहने वाली सेना को भी दिल्ली बुलाया गया। सारांश, दिल्ली में क्रान्तिकारियों के खिलाफ़  पहला मोरचा सँभालने के काम में अँग्रेज़ जुट गये।

तब तक यहाँ कानपुर भी इस स्वतन्त्रता यज्ञ में शामिल होने के लिए उत्सुक ही था। क्योंकि इस समर की योजना बनाने वाले तीन अग्रणी कानपुर के पास के बिठूर में डेरा डाले हुए थे। इस बिठूर में ही जीवन का अधिकतर समय बिता चुके पेशवा के वारिस नानासाहब पेशवा, उन्हीं के पास रहने वाले तात्या टोपे और इन दोनों के साथ यहीं पर बिठूर में जिसका बचपन गुज़रा था, वह एक तेजस्वी ज्वाला फ़िलहाल उत्तरी भारत के एक इला़के में राज कर रहीं थी। इन सब के द्वारा अब तक बनायी गयी रणनीति को कार्यान्वित किया भी जा चुका था।

tatyatope- तात्या टोपे१८५७ की इस जंग का इतिहास शब्दबध्द करनेवाले इतिहासकारों को प्राय: इस बात पर ताज्जुब रहा है कि इस योजना के बारे में इतनी गुप्तता भला कैसे बरती गयी? दोपहर या शाम तक अँग्रेज़ों के खिलाफ़ खड़ी हुई सेना उस दिन सुबह या दोपहर तक पूरी तरह राजनिष्ठा का पालन कर रही थी। इतिहासकार इस बात से भी अचंभित होते हैं कि किसी जगह की नेटीव्ह सेना द्वारा अँग्रेज़ों को परास्त करके उस प्रदेश को ब्रिटिशमुक्त किये जाने की ख़बर तुरन्त दूसरे या तीसरे दिन ही अधिक से अधिक अन्य इलाक़ों तक कैसे पहुँचायी जाती थी? वहीं, अँग्रेज़ों के पास टेलिग्राम, रेल आदि आधुनिक सुविधाएँ होने के बावजूद भी उन्हें इस बात का पता नेटिव्ह़ज़् के बाद ही चलता था। अत एव कुछ इतिहासकारों की राय में १८५७ के इस स्वतन्त्रतासंग्राम का आधारस्तम्भ था, अत्यधिक गुप्तता और बड़ी ही तेज़ संपर्क यंत्रणा।

पेशवा का शासन ख़ारिज़ करके अँग्रेज़ों ने उन्हें बिठूर लाकर रखा था। १९ मई १८२४ में जन्मे नानासाहब ये पेशवा के गोद लिये बेटे और राजगद्दी के वारिस थे। नानासाहब का जीवन इस बिठूर में ही गुज़रा था।

पांडुरंगराव टोपे की संतान रहने वाले तात्या टोपे भी इसी बिठूर में नानासाहब के साथ थे। अँग्रेज़ों द्वारा ख़ुद ही बनाये गये ‘गोदविधान नाममंज़ूर’ क़ानून की आड़ में उन्होंने नानासाहब को पेशवा के राजगद्दी का वारिस मानने से इनकार कर दिया। अँग्रेज़ों के इस फ़ैसले के खिलाफ़ अपील करने के लिए नानासाहब ने अझिमुल्ला खान को ब्रिटन भेजा था; लेकिन इसमें उन्हें क़ामयाबी नहीं मिली।

जैसे जैसे उत्तरी भारत के इलाक़ों की एक के बाद एक आज़ाद हो जाने की ख़बरें आने लगीं; वैसे वैसे कानपुर में भी बेचैनी बढ़ने लगी। कानपुर में लगभग सिपाहियों की ३ टुकड़ियाँ और घुड़दल इनमें अंदाज़न् तीन हज़ार भारतीय सैनिक और तोपखाना चलाने वाले तथा अन्य ब्रिटीश इस तरह सेनाबल था।

कानपुर के बूढ़े अँग्रेज़ कमांडर ने बचाव की तैयारियाँ शुरू भी कर दी थीं। भारतीय सैनिक यदि अँग्रेज़ों के खिलाफ़ शस्त्र उठाते हैं ,तो अँग्रेज़ परिवारों को मह्फ़ूज जगह ले जाने के लिए उसने गंगाजी के तट पर की एक जगह को भी चुना था और उसे सुरक्षित बनाने का काम भी शुरू कर दिया था। इसी योजना के तहत इस तरह के हालातों के बनने पर नानासाहब पेशवा से सहायता करने का वादा भी लिया था और नानासाहब ने उस बात को म़ंजूरी भी दे दी थी।

इससे यह ज्ञात होता है कि स्वतन्त्रतायुद्ध के अग्रणियों ने अँग्रेज़ों को अपनी योजना की भनक तक लगने नहीं दी थी। मई के अन्त में अपनी सुरक्षा के इस तरह पुख़्ता इंतज़ाम करके अँग्रेज़ घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए थे। जैसे जैसे मई के आख़िरी ह़फ़्ते का एक एक दिन बीत रहा था, वैसे वैसे कानपूर में रहनेवाला शांती का माहौल देखकर उस बूढ़े अँग्रेज़ कमांडर को इस बात का यक़ीन हो गया कि मेरठ-दिल्ली की तरह कानपुर में क्रान्ति की ज्वाला नहीं भड़केगी।

लेकिन ४ जून को उसका यह यक़ीन ग़लत साबित हो गया। अब तक अँग्रेज़ों के लिए शस्त्र उठाने वाले कानपुर के भारतीय सैनिकों ने अब अपनी मातृभूमि की ख़ातिर शस्त्र उठा लिये और जिन नानासाहब पर अपनी सुरक्षा के मामले में अँग्रेज़ निर्भर थे, उन नानासाहब को ही अब इस सारी सेना की अगुआई करते हुए अँग्रेज़ों ने देखा। कानपुर में युद्ध की ज्वाला भड़क उठी थी।

त्रिवेणी संगम पर स्थित प्रयाग भी अब जून के पहले ह़फ़्ते में इस युद्ध में उतर गया। यहाँ का क़िला यह अँग्रेज़ों के नज़रिये से बहुत ही मह्फ़ूज जगह थी। उसे मज़बूत बनाने का काम ज़ोरों से चल रहा था। भारतीय सैनिक अब अँग्रेज़ों को इलाहाबाद में से खदेड़ देने की कोशिश में जुट गये थे।

लखनौ तो मई के आख़िरी ह़फ़्ते से ही अँग्रेज़ों को अपनी सरज़मीन से खदेड़ देने के काम में जुट गया था। अँग्रेज़ जिसे ‘अवध’ कहते थे, उस अयोध्या इला़के की ‘लखनौ’ यह राजधानी थी।

बनारस के सैनिक अपेक्षित सफ़लता नहीं पा सके थे। मग़र इस घटना से खौल उठे अँग्रेज़ों ने अब ख़ूँख़ारता की सारी हदें पार कर दीं।

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