म्हैसूर भाग-३

 

म्हैसूर के वोडेयर राजवंश के विभिन्न राजाओं द्वारा बनाये गये कई राजमहल म्हैसूर में हैं और इसीलिए म्हैसूर को ‘महलों का शहर’ (सिटी ऑफ पॅलेसेस) कहा जाता है|

Mysore03- म्हैसूर- ‘महलों का शहर’

गत लेख में हमने म्हैसूर के कुछ महलों के बारे में जानकारी प्राप्त की| इन महलों में से म्हैसूर पॅलेस इस राजमहल को दर्शक देख सकते हैं और इसको एक राजमहल के रूप में ही जतन किया गया है| बाकी के कुछ महलों में संग्रहालयों की स्थापना की गयी है| राजा और राजसेवकों को छोडकर अन्य किसी सामान्य प्रजाजन के लिए राजमहल में निवास करने की कल्पना तक करना इससे पहले मुमक़िन नहीं था| मग़र आज हमारे भारत में कुछ स्थानों पर पर्यटक राजमहल में निवास कर सकते हैं| जो महल आज भी सुस्थिति में हैं, उनमें पर्यटन मन्त्रालय ने पर्यटकों के लिए सभी प्रकार की सुखसुविधाएँ तथा आधुनिक निवासी व्यवस्था मुहैया करवायी है और राजा के राजमहल में निवास करने का अवसर पर्यटकों को प्राप्त हुआ है| म्हैसूर के एक राजमहल का रूपान्तरण हेरिटेज हॉटेल के रूप में करके पर्यटकों को वहॉं पर आवास करने का अवसर पर्यटन मन्त्रालय ने प्रदान किया है| वहीं म्हैसूर के कुछ महलों को शासकीय कार्यालयों के रूप में तबदील किया गया है|

इसवी १८८० में वोडेयर राजाओं ने ‘लोकरंजन महल’ का निर्माण किया| उस समय के राजकुमारों को यहॉं पर प्रशिक्षित किया जाता था यानि कि यह महल उस समय के राजकुमारों की पाठशाला थी|

बहुत बार राजा गर्मियों के मौसम में उनके आवासस्थल में तबदीली करते थे| म्हैसूर में तो गर्मियों के मौसम में काफ़ी ते़ज धूप रहती है| इसीलिए गर्मियों में राजा लोकरंजन महल में अपना डेरा जमाते थे, ऐसा कहा जाता है और अत एव इस लोकरंजन महल को ‘समर पॅलेस’ भी कहा जाता है|

म्हैसूर शहर को जिस चामुण्डी नाम की पहाड़ी की पार्श्‍वभूमि है, उसी चामुण्डी हिल्स पर इसवी १८२२ से लेकर १८३८ तक की अवधि में एक महल का निर्माण किया गया, जिसका नाम है ‘राजेंद्र विलास’|

Rajendravilas

राजा उसके मेहमानों की मेहमाननवा़जी में किसी की प्रकार की कसर नहीं छोड़ते, इस बात को तो हम राजाओं की कथाओं को सुनकर-पढ़कर जानते ही हैं| फिर भला म्हैसूर के राजा भी इसके लिए अपवाद कैसे हो सकते हैं? भारत के व्हाईसरॉय के आवास के लिए महाराजा कृष्णराज वोडेयर (४थे) इन्होंने एक ख़ास महल बनवाया था| इसवी १९२१ में इस दो-मंजिला महल का निर्माणकार्य शुरू हुआ| इस महल की रचना की योजना बनाने के लिए ‘फ्रिच्ले’ नामक वास्तुविशेषज्ञ को आमन्त्रित किया गया था| इस महल का निर्माण इटालियन एवं अंग्रे़ज वास्तुशैली में किया गया और इस महल का नाम है, ‘ललिता महल’|

इसके अलावा ‘वसंत महल’ और ‘करंजी विलास’ ये दो महल भी म्हैसूर की महलों की सूचि में शामिल हैं|

इन महलों के नामों की सूचि पर भी यदि एक ऩजर डालें, तो हमें आश्चर्य होता है| क्योंकि इन महलों में से एक म्हैसूर पॅलेस को छोड़कर बाक़ी बहुतांश महलों का निर्माण १९वी तथा २०वी सदी में किया गया है| अंग्रेजों के शासनकाल में म्हैसूर रियासत को जब राजकीय स्थिरता प्राप्त हो चुकी थी, उस अवधि में ही इन महलों का निर्माण किया गया है|

म्हैसूर के बारे में जानकारी प्राप्त करते हुए पहले लेख की शुरुआत में ‘म्हैसूर पाक’ इस खाद्यपदार्थ का उल्लेख किया गया था| कहा जाता है कि म्हैसूर के राजमहल के बावर्ची ने सबसे पहले इस पदार्थ को बनाया था और इसीलिए जहॉं इस पदार्थ को बनाया गया, उस म्हैसूर शहर का नाम इसे दिया गया|

lalitha-Palace

राजा-महाराजाओं का जमाना तो कबका बीत चुका| मग़र कुछ लोगों को इतिहास में दिलचस्पी रहती है| अतीत की कईं बातें समय की धारा में डूब जाती हैं, मग़र फिर भी इस अतीत में और उस समय की विभिन्न ची़जों में कइयों को दिलचस्पी रहती है| गु़जरे हुए कल को हम वापस तो नहीं ला सकते, लेकिन जिन्हें इतिहास में रूचि है, उन्होंने इसपर भी एक तरक़ीब ढूँढ़ निकाली है| इतिहास की वस्तुओं को जतन करके रखने की शुरुआत उन्होंने की और यहीं से प्रारम्भ हुआ संग्रहालयों का|

हमारे पूर्वज कैसे रहते थे, क्या पहनते थे, किस प्रकार और किन शस्त्रों से युद्ध करते थे, फ़ुरसत में क्या करते थे, उनके मनोरंजन के साधन कौन-कौनसे थे, इन जैसे कईं सवालों के जवाब संग्रहालयों से हमें बड़ी आसानी से प्राप्त होते हैं|

म्हैसूर के तीन-मंजिला ‘जगनमोहन पॅलेस’ का रूपान्तरण ‘श्रीजयचामराजेंद्र म्युझियम और आर्ट गॅलरी’ में किया गया है| इसवी १८७५ में इस महल को एक संग्रहालय के रूप में तबदील किया गया|

इस आर्ट गॅलरी में दुनिया के कईं नामचीन चित्रकारों के चित्रों का संग्रह है| राजा रविवर्मा की पेंटिंग्ज से लेकर कईं नामचीन पश्चिमी चित्रकारों के चित्र यहॉं हम देख सकते हैं| इस तरह का चित्रों का ख़जाना शायद ही कहीं और देखने मिलें! इस संग्रहालय की एक और विशेषता यह है कि यहॉं म्हैसूर की चित्रशैली के चित्र भी हम देख सकते हैं| इस चित्रशैली की विशेषता यह है कि इन चित्रों को चित्रित करते हुए उनमें स्वर्ण का इस्तेमाल किया जाता है| स्वर्ण का अर्थात् जिसे हम सोने का वरक़ कहते हैं, उसका उपयोग चित्रों को चित्रित करते हुए किया जाता है|

यहॉं के संग्रहालय में कईं पुरानीं एवं दुर्लभ वस्तुओं का संग्रह किया गया है| यहॉं की तीसरी मंजिल तो पूर्ण रूप से दशहरे के उत्सव के चित्रों से सजी है| दशहरे की शोभायात्रा यहॉं की दीवारों पर मानो जैसे सचेत हो गयी है| साथ ही यहॉं कई वाद्यों का भी अच्छा-ख़ासा संग्रह किया गया है|

रेलगाड़ी यह आज हमारे लिए अजूबे की बात नहीं है, लेकिन जब रेल की शुरुआत हुई, उस समय धुआँ छोड़ते हुए दौड़नेवाली रेलगाड़ी के प्रति भारतीय जनमानस में बड़ी उत्सुकता थी| इस उत्सुकता के कारण ही भारत में कईं स्थानों पर ‘रेल संग्रहालय’ स्थापन किये गये हैं| इन रेल संग्रहालयों में रेल का इतिहास और अतीत से आजतक का रेल का सफ़र हमारे सामने सचेत हो जाता है|

इस ‘रेल संग्रहालय’ की स्थापना इसवी १९७९ में म्हैसूर में की गयी| इस संग्रहालय के ‘चामुंडी गॅलरी’ नाम के विभाग में कईं छायाचित्रों के माध्यम से रेल का आज तक का सफ़र हम देख सकते हैं|

आम लोगों के लिए पहले धुआँ छोड़नेवाली रेल बाद में इलेक्ट्रिसिटी से चलने लगी| क्या राजा और उनकी महारानी ने कभी इस रेल में सफ़र किया होगा? यह सवाल शायद इस म्हैसूर राज्य में हमारे मन में उठ सकता है| इसका जवाब इस संग्रहालय में ही हमें मिलता है| ख़ास राजाओं के लिए उपयोग में लाये जानेवाले रेल के दो डिब्बे (कोच) इस संग्रहालय में हैं| उनकी रचना भी स्वाभाविक रूप से राजाओं की शान जैसी ही है| तो क्या महारानी के लिए रेल ने इन डिब्बों में कुछ ख़ास इन्त़जाम किया था? यह प्रश्न आपके मन में उठ रहा होगा| इसमें ख़ासियत यह है कि महारानी के लिए किचन (रसोईघर) और पूरे राजपरिवार के लिए भोजन की व्यवस्था जिसमें है, ऐसा एक शानदार डिब्बा भी यहॉं पर है| इस डिब्बे (कोच) का उपयोग इसवी १८९९ से किया जा रहा था| साथ ही हम यहॉं पर हवा में धुएँ की रेखाएँ खींचते हुए दौड़नेवाले भॉंप के इंजन को भी देख सकते हैं|

रेल के पहियों की गति के साथ ही हमारे भारत का प्रगतिपथ का सफ़र सहज रूप से शुरू हुआ| भारत के आम आदमी के विकास में रेल का महत्त्वपूर्ण योगदान है| सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया में भी मानव का विकास किस प्रकार से हुआ, यह हम देख सकते हैं ‘नॅशनल म्युझियम ऑफ नॅशनल हिस्ट्री’में| मानव के विकास का भर सफ़र शुरू होता है आदिम मानव से और जैसे एक सुरंग से हमें आगे ले जाते हुए आज के आधुनिक युग के मानव तक पहुँचाता है|

इसके अलावा इस म्युझियम का प्रमुख विषय है, नेचर अर्थात् ‘प्रकृति’| इसलिए म्हैसूर और कर्नाटक राज्य की प्राकृतिक साधनसम्पदा की जानकारी भी हमें यहॉं पर प्राप्त होती है| साथ ही पर्यावरण की सुरक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण विषय पर जोर दिया गया है| इसवी १९९५ में इस म्युझियम की स्थापना हुई है और इसीलिए यह म्युझियम अत्याधुनिक तकनीकी उपकरणों से सम्पन्न है|

आज अत्याधुनिक तकनीकी उपकरण हमारे पास हैं, इसीलिए उनकी सहायता से बड़ी आसानी से हम अनायास ही अनोखे काम कर सकते हैं| अत्याधुनिक तकनीक के कारण सिर्फ़ रिमोट के एक बटन द्वारा हम अपना मनोरंजन कर सकते हैं| लेकिन जब ऐसे मकनीकी साधन उपलब्ध नहीं थे, उस समय लोग क्या करते थे? तब वे एकसाथ मिलकर सामूहिक नृत्य, नाटक, गीत आदि विभिन्न प्रकार से अपना दिल बहलाते थे|

इस प्रकार के सांघिक नृत्य आदि में से ही भारत के विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न लोककलाओं का जन्म हुआ| उस समय लोककला यह समाज का एक विशेषतापूर्ण अंग था| आज हालात बदल चुके हैं और इसीलिए भावी पीढ़ियों की जानकारी के लिए इन लोककलाओं का जतन विभिन्न प्रकार से किया जा रहा है| म्हैसूर के संग्रहालय में लोककला के साथ साथ दन्तकथाओं का भी जतन किया गया है|

संग्रहालय ये मानो जैसे अतीत को जीवित करनेवाले दालान हैं और भविष्यकाल से अतीत की पहचान बड़ी आसानी से करानेवाले साधन हैं|

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