७९. ब्रिटन के कन्धे पर से युनो के आँगन में….

सन १९४७ की शुरुआत में ही, ब्रिटीश मंत्रिमंडल की ‘उस’ बैठक के बाद ब्रिटन का पॅलेस्टाईन प्रश्‍नविषयक अगामी रूख स्पष्ट हुआ था, जो अरबों के पक्ष में होने के कारण ज्यूधर्मियों के लिए निराशाजनक ही था। ब्रिटिशों के लिए, अपने मध्यपूर्वी इलाके के हितसंबंध मह़फूज़ रखने के लिए अरबों का सहयोग अत्यधिक ज़रूरी होने के कारण उन्होंने ज्यूविरोधी और अरबानुनयी भूमिका ही अपनायी थी। अब जल्द ही कुछ करना आवश्यक हो गया था।

क्योंकि अरब समूचे पॅलेस्टाईन प्रान्त को ही ‘अरब राष्ट्र’ के तौर पर घोषित करवाना चाहते थे और उसमें उन्हें ज्यूधर्मियों का अस्तित्व ही नहीं चाहिए था। पॅलेस्टाईन को चहूँ ओर से घेरे हुए अरब राष्ट्रों का और कुल मिलाकर मध्यपूर्वी प्रदेश के अरब राष्ट्रों का भी इस बात को समर्थन था। ब्रिटीश जल्द ही पॅलेस्टाईन प्रांत का उनका ‘मँडेट’ ख़त्म करनेवाले हैं इस बात की भनक लगी होने के कारण, आख़िरी ब्रिटीश सैनिक पॅलेस्टाईन से बाहर निकलते ही पॅलेस्टाईनस्थित ज्यूधर्मियों पर हमले करने की योजना बनायी जा रही थी।

ब्रिटीश हालाँकि अरबों का सहयोग चाहते थे, लेकिन पॅलेस्टाईन प्रांत में चल रहे, ख़त्म होने का नामोनिशान तक न दिखायी देनेवाले ज्यू-अरब संघर्ष से ब्रिटीश ऊब गये थे; क्योंकि वहाँ पर शान्ति बनाये रखे के लिए जो क़ीमत ब्रिटिशों को चुकानी पड़ रही थी, वह धीरे धीरे उनके बस से बाहर होती चली जा रही थी। उस समय तक ब्रिटन के भारत जैसे कई तत्कालीन उपनिवेशों में वहाँ की जनता के स्वतन्त्रतासंग्रामों ने अच्छाख़ासा रौद्र रूप धारण किया था और इस संघर्षों को मिटाने में वहाँ तैनात ब्रिटीश फ़ौज़ें असफल हो रहीं थीं। इस कारण ऐसे कई उपनिवेशों को आज़ादी देने की योजनाओं पर ब्रिटन में विचारविमर्श जारी था। उसमें अब पॅलेस्टाईन प्रान्त के हालात भी हद से बाहर चले जा रहे थे।

इस कारण, पहले विश्‍वयुद्ध के बाद ऑटोमन साम्राज्य से जीत लिये पॅलेस्टाईन प्रान्त को जो ज़िम्मेदारी ‘मँडेट’ के बहाने ब्रिटिशों ने अपने कन्धे पर ले ली थी, उसे अब दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद वे झटकना चाहते थे और उसे किसी और के कन्धे पर देने का मौक़ा वे ढूँढ़ रहे थे।

वह मौक़ा उन्हें प्राप्त हुआ, वह संयुक्त राष्ट्रसंघ (‘युनो’) के रूप में!

सन १९४६ में इस मसले को लेकर और कुछ चर्चापरिषदें संपन्न हुईं; लेकिन ब्रिटिशों ने आगे रखे विकल्पों में से, दोनो पक्षों को मंज़ूर होगा ऐसा एक भी हल नहीं निकल सका। अतः उनमें से हर विकल्प कभी इस पक्ष के द्वारा, तो कभी उस पक्ष के द्वारा नकारा गया।

‘युनायटेड नेशन्स स्पेशल कमिटी ऑन पॅलेस्टाईन’ (‘युएनस्कॉप’) के सदस्य पॅलेस्टाईन प्रान्त के दौरे पर

इस कारण फ़रवरी १९४७ में ब्रिटन के विदेश सचिव अर्नेस्ट बेवेल ने एक निवेदन जारी कर – ‘इस मामले में इतने साल अथक परिश्रम करके भी सर्वमान्य ऐसा हल निकल नहीं रहा होने के कारण, ब्रिटन अब इस मसले का हल ढूँढ़ने के प्रयासों से बाहर हो रहा है और इस मसले को अब ‘संयुक्त राष्ट्रसंघ’ (युनो) के हाथ में सुपूर्त कर रहा है’ ऐसा घोषित किया। १५ मई १९४८ यह ब्रिटीश सेना पॅलेस्टाईन प्रान्त से बाहर निकलने की अंतिम कालमर्यादा भी बाद में घोषित कर दी गयी।

इस पॅलेस्टाईन के मसले को युनो को सुपूर्त कर दिया जाने के बाद युनो ने १५मई १९४७ को ‘युनायटेड नेशन्स स्पेशल कमिटी ऑन पॅलेस्टाईन’ (‘युएनस्कॉप’) की स्थापना की। ११ सभासद-देश इस समिति के सदस्य थे।

इस समिति ने भी पॅलेस्टाईन प्रान्त का दौरा किया। कइयों के जवाब दर्ज किये और आख़िरकार इस समिति ने २ विकल्प ‘शॉर्टलिस्ट’ किये –
‘एक तो – इस संपूर्ण पॅलेस्टाईन प्रान्त को एक ही संघराज्य (‘फेडरल स्टेट’) बनाया जाये, जिसमें अरब और ज्यूधर्मियों को दो उपप्रांत दिये जायेंगे। लेकिन आर्थिक दृष्टि से ये दोनों उपप्रांत एक-दूसरे से जोड़े रहेंगे; अथवा

इस पॅलेस्टाईन प्रान्त का ‘अरब-राज्य’ और ‘ज्यू-राज्य’ ऐसा विभाजन कर दिया जाये। लेकिन तीनों धर्मों के लिए बहुत ही पवित्र होनेवाले जेरुसलेम और उसके परिसर के संवेदनशील भाग पर अरब या ज्यूधर्मीय इनमें से किसी का भी नियंत्रण नहीं होगा, बल्कि वह भाग युनो की अर्थात् आंतर्राष्ट्रीय देखरेख में रखा जायेगा।’

लेकिन अपने इन निष्कर्षों को युनो को प्रस्तुत करने से पहले जब समितिसदस्यों में व्होटिंग के लिए रखा गया, तब दूसरा – विभाजन का विकल्प ही विजयी हुआ और अगस्त १९४७ में युनो को आख़िरकार इसी विकल्प की सिफ़ारिश की गयी।

इस विकल्प पर विचार करने के लिए युनो का विशेष सत्र बुलाया गया। वहाँ ज्यूधर्मियों के प्रतिनिधि ने अपना पक्ष रखते हुए, ज्यूधर्मीय विश्‍वयुद्ध में दोस्तराष्ट्रों के कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़े होने की और पश्‍चिमी जगत को पूज्य होनेवाले बायबल जैसे पवित्र ग्रंथ ज्यूधर्मियों की प्राचीन सभ्यता में से ही प्राप्त हुए होने की याद सभा को दिलायी। दरअसल अब तक पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र स्थापित होकर, यहाँ पर इस सभा में उस ज्यू-राष्ट्र के प्रतिनिधियों को इन अन्य राष्ट्रों के प्रतिनिधियों के साथ बराबरी का स्थान मिल जाना चाहिए था, ऐसा प्रतिपादन ज्यू-प्रतिनिधि ने किया।

अरबों ने भी अपना पक्ष रखा। हिटलर के गुनाहों की सज़ा भला पॅलेस्टाईन के अरब क्यों भुगतें, ऐसा सवाल उनके प्रतिनिधि ने किया। उसपर – ‘ज्यूधर्मीय उनके हक़ की मातृभूमि में लौट रहे हैं और उनका प्रबन्ध पॅलेस्टाईन प्रान्त की बंजर ज़मीनों पर ज्यूधर्मियों ने अथक परिश्रम कर निर्माण की हुईं बस्तियों में किया जा रहा है। वे अरबों की बस्तियों में आकर नहीं रह रहे हैं’ ऐसे तानें बेन-गुरियन ने मारे।

झायॉनिस्ट आन्दोलन की बागड़ोर हाथ में आये डेव्हिड बेन-गुरियन हॅगाना के अधिकारियों तथा प्रतिनिधियों के लगातार संपर्क में थे।

युनो के सदस्यदेशों की संख्या उस समय ५५ थी और पहले विश्‍वयुद्ध के बाद ब्रिटिशों के अथवा अन्य सत्ताओं के ‘मँडेट’ में आये अरबी प्रदेशों में से इजिप्त, लेबेनॉन, सिरिया और इराक ये पहले से ही बतौर ‘स्वतंत्र देश’ अस्तित्व में आकर युनो के सदस्य बन चुके थे। ये सारे अरब देश पॅलेस्टाईन प्रान्त को ‘स्वतंत्र अरबी देश’ के रूप में मान्यता दिलवाकर, उसे युनो का सदस्य बना लेने के चक्कर में थे।

यहाँ ज्यूधर्मीय भी अपने हिसाब से ज़ोरदार तैयारियाँ कर रहे थे। २२वीं झायॉनिस्ट काँग्रेस के पश्‍चात् झायॉनिस्ट आन्दोलन के नेतृत्व की बागड़ोर हाथ में आये डेव्हिड बेन-गुरियन ने इस आन्दोलन में मानो नयी जान ही भर दी थी। वे विभिन्न स्थानों में तैनात हॅगाना के अधिकारियों की, प्रतिनिधियों की बैठकों का नियमित रूप से आयोजन कर उनकी सुसज्जितता का जायज़ा ले रहे थे, उन्हें घमासान युद्ध के लिए सिद्ध रहने के लिए सचेत कर रहे थे।

हॅगाना के सदस्य शस्त्रास्त्रों का प्रशिक्षण लेते हुए

इन चर्चाओं के दौरान, हॅगाना के पास लगभग १० हजार रायफ़लें, १९०० के आसपास सब-मशिनगन्स, लगभग १८०-१९० मशिनगन्स, तक़रीबन ४५० लाईट-मशिनगन्स और थोड़ीसी आर्टिलरी है, ऐसा स्पष्ट हुआ।

बेन-गुरियन जान चुके थे कि ‘अरबों के संभाव्य आक्रमण का यदि मुक़ाबला करना हो, तो अपने संख्याबल को और शस्त्रबल को बहुत ही बढ़ाना आवश्यक है। हॅगाना के पास फिलहाल होनेवाली यह शस्त्रराशि ज़्यादा से ज़्यादा कुछ छोटे संघर्षों के लिए पर्याप्त हो सकती है, युद्ध के लिए नहीं।’

यह ध्यान में आ जाते ही बेन-गुरियन ने अपने बहुत ही विश्‍वसनीय सहकर्मी को – शिमॉन पेरेस को (जो उस वक़्त केवल २३ वर्षीय युवा थे) उनके किब्बुत्झ में से ठेंठ तेल अवीव में, पहले हॅगाना के संख्याबल को बढ़ाने के लिए अर्थात् सेनाभर्ती की मुहिम चलाने के लिए भेजा। आगे चलकर उनके ही कन्धों पर शस्त्रसंग्रह को बढ़ाने की ज़िम्मेदारी दी गयी।

लेकिन अब ब्रिटन के कन्धे पर से युनो के आँगन में जा चुके इस मसले पर युनो क्या निर्णय करेगा, इसकी उत्सुकता सभी को लगी थी….(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

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