८०. आख़िरकार….आंतरराष्ट्रीय मान्यता

पॅलेस्टाईन मसले पर नियुक्त की गयी युनो की विशेष समिति (‘युनायटेड नेशन्स स्पेशल कमिटी ऑन पॅलेस्टाईन’ (‘युएनस्कॉप’)) ने सुझाये हुए पॅलेस्टाईन के विभाजन के पर्याय पर अब युनो क्या फैसला करती है, इसकी ओर पूरी दुनिया का ध्यान केंद्रित हो चुका था।

लेकिन इस्रायली नेता – ख़ासकर डेव्हिड बेन-गुरियन – तब तक हाथ पर हाथ धरे शान्त बैठे हुए नहीं थे। क्योंकि निर्णय चाहे कुछ भी हो, अब ज्यूधर्मियों के लिए अंतिम संघर्ष अटल है और वह बहुत ही नज़दीक आकर थम गया है, यह बात वे भली-भाँति जानते थे। इस कारण उन्होंने अब शस्त्रास्त्र और युद्धसामग्री संपादन का उपक्रम तेज़ी से शुरू किया था। दुनियाभर में बिखरे हुए ज्यूधर्मीय और ज्यूधर्मियों के दुनियाभर के मित्र और हमदर्द इसके लिए अथक प्रयास कर रहे थे।

इस्रायली सैनिकों ने, इस प्राप्त युद्धसामग्री का जमकर अभ्यास किया था।

जो मिलें, उस स्रोतों से गोपनीय रूप में शस्त्रास्त्र और युद्धसामग्री ख़रीदी जा रही थी। मुख्य बात, यह ख़रीदारी यह ‘केवल व्यवहार’ के रूप में, अर्थात् नक़द रक़म अदा करके की जा रही थी, उसके लिए विनावजह तात्त्विक या धार्मिक वजहें नहीं दीं जा रही थीं।

अमरीका के ज्यूमित्रों ने तीन ‘बी-१७’ बाँबर विमान, कुछ ‘सी-४६’, वैसे ही ‘सी-५४’ यातायात विमान ख़रीदे थे। साथ ही, कुछ दर्जन हाफ-ट्रॅक्स ख़रीदकर, उन्हें ‘अ‍ॅग्रीकल्चरल एक्विपमेंट्स’ कहकर उसके अनुसार रंगाया गया था। वहीं, पश्‍चिमी युरोप से हॅगाना के एजंट्स ने ६५ मिमी फ्रेंच माऊंटनगन्स, १२० मिमी की १२ मोर्टारगन्स, एच-३५ लाईट टँक्स तथा ‘एम-४’ टँक्स, हाफ-ट्रॅक्स ख़रीद रखे थे। सन १९४७ के मध्य से ज्यूधर्मियों ने झेकोस्लोवाकिया से भी एव्हिया एस-१९९ फाईटर विमान, २०० हेवी मशिनगन्स, ५ हज़ार से भी अधिक लाईट मशिनगन्स, २५४०० रायफल्स, बंदूक की ५ करोड़ से भी अधिक गोलियाँ ऐसी भारी ख़रीदारी की थी। लेकिन संभाव्य (पॉसिबल) युद्ध के दायरे का अँदाज़ा होनेवाले बेन-गुरियन को यह ख़रीदारी भी अपर्याप्त प्रतीत हो रही थी।

अब केवल ये शस्त्र और संसाधन गुप्त रूप से पॅलेस्टाईनस्थित ज्यूधर्मियों तक कैसे पहुँचाये जा सकते हैं, यही मुद्दा था। एक बार जब आख़िरी ब्रिटीश सेना पॅलेस्टाईन से बाहर जायेगी, तब हवाईमार्ग से यह युद्धसामग्री पॅलेस्टाईन में पहुँचाने की योजना आकार धारण कर रही थी, जिसे ‘ऑपरेशन बलक’ यह सांकेतिक नाम दिया गया था।

‘एम-४’ बॅटल टँक

इसी दौरान बेन-गुरियन ने राजनीतिक प्रगल्भता दिखाकर ट्रान्सजॉर्डन के शासक किंग अब्दुल्ला से भी अंतर्गत सुलह कर ली थी। किंग अब्दुल्ला की सेना यह सभी अरब सेनाओं में बड़ी और ब्रिटीश-प्रशिक्षित अनुशासनबद्ध कवायदी सेना थी। इस कारण, यदि कल को संघर्ष हुआ ही और जॉर्डन की सेना यदि ज्यूधर्मियों के विरोध में संघर्ष में शामिल हुई, तो ज्यूधर्मियों की परेशानियाँ काफ़ी हद तक बढ़नेवालीं थीं। लेकिन किंग अब्दुल्ला और जेरुसलेम का ग्रँड मुफ्ती हाज अमीन अल्-हुसैनी इनमें कुछ खास मित्रता नहीं थी और अब्दुल्ला अल्-हुसैनी से नफ़रत ही करते थे। अल् हुसैनी, जो केवल मुस्लिमों के लिए बहुत ही पवित्र होनेवाले स्थान जिस नगरी में हैं, उस जेरुसलेम का ‘मुफ्ती’ होने के कारण अपने आप को अरबी जगत का सर्वोच्च नेता मानता था, वह किंग अब्दुल्ला को मान्य नहीं था; क्योंकि सभी अरब प्रदेशों में किंग अब्दुल्ला की ओर सम्मानपूर्वक देखा जाता था और उनकी सेना भी सभी अरबी देशों की सेनाओं में सबसे बड़ी थी।

किंग अब्दुल्ला-अल्हुसैनी इनके बीच की इस नफ़रत का फ़ायदा उठाते हुए बेन-गुरियन ने एक अलग ही चाल चलनी चाही।

ज्युइश एजन्सी के राजनीतिक खाते की प्रमुख गोल्डा मायर, बेन-गुरियन की तरफ़ से किंग अब्दुल्ला से मिलीं। ‘पॅलेस्टाईन इलेक्ट्रिक कॉर्पोरेशन’ चला रहे एक हायड्रो-इलेक्ट्रिक पॉवर स्टेशन होनेवाले ‘नहारयिम’ (जॉर्डन नदी पर स्थित) शहर के एक घर में यह मुलाक़ात हुई। इस मुलाक़ात में ‘हम दोनों का मुख्य शत्रु एक ही है – अल्-हुसैनी। इस कारण, उसके पक्ष में हमारी सेना को हम ज्यूधर्मियों के खिलाफ़ नहीं भेजेंगे’ ऐसा निःसंदिग्ध आश्‍वासन गोल्डा मायर को किंग अब्दुल्ला ने इस समय दिया। बेन-गुरियन के प्रगल्भ मुस्तैदीपन की यह बड़ी ही विजय थी।

अरबों के साथ संघर्ष अटल है यह जानकर ज्यूमित्रों ने झेकोस्लोवाकिया से खरीदी हुई युद्धसामग्री में से एव्हिया एस-१९९ फाईटर विमान

सितम्बर १९४७ में युनो ने इस पॅलेस्टाईन-विभाजन के प्रस्ताव को प्रस्तुत करने की पूर्वतयारी शुरू की। सबसे बड़ा काम था, वह इन दो राज्यों की सीमाओं को निर्धारित करने का। इन कामों के लिए फिर युनो ने कुछ समितियों का गठन किया।

इसी दौरान, यह प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाने के बाद, वह मंजूर किया जाकर यह मसला हमेशा के लिए सुलझाया जाये, इसके लिए विभिन्न देशों में स्थित, ख़ासकर अमरीका और युरोपस्थित ज्यूधर्मियों के और ज्यूमित्रों के प्रभावगुट और दबावगुट (लॉबीज़) जोरोंशोरों से काम में लग गये थे और उस उस देश की सरकार पर प्रभाव डालने के प्रयास शुरू थे।

अमरीका, सोव्हिएत रशिया, ब्रिटन आदि देशों की, परदे के पीछे की गतिविधियाँ तेज़ हुईं थीं। सर्वप्रथम, विश्‍वयुद्ध के बाद बतौर ‘जागतिक महासत्ता’ अस्तित्व में आये और अंदर से एक-दूसरे के जानी दुश्मन माने जानेवाले अमरीका और सोव्हिएत रशिया इनमें भी इस बात को लेकर गुप्त रूप में मिलीभगत हुई थी। इस कारण इन दो ताकतवर देशों द्वारा – अपने अपने गुट के अन्य छोटे-बड़े सदस्य देशों को, साथ ही तटस्थ (न्यूट्रल) देशों को भी वस्तुस्थिति समझाकर बतायी जाकर, इस प्रस्ताव के समर्थन में मतदान करने के लिए उन्हें प्रभावित करने की कोशिशें की जी रहीं थीं और उन्हें धीरे धीरे क़ामयाबी मिल रही भी दिखायी देने लगी थी। लेकिन इसके लिए, ‘साम-दान-भेद-दंड’ ऐसे सभी उपायों का अवलंबन किया जा रहा है, ऐसी चर्चा सर्वत्र थी।

‘सी-५४’ यातायात विमान

इस कालावधि में पूरी दुनिया का ध्यान मानो ‘युनो का पॅलेस्टाईन ठराव’ इस केंद्रबिंदु पर इकट्ठा हो चुका था।

२५ नवम्बर १९४७ को, युनो की विशेष समिति के मशवरे के अनुसार, पॅलेस्टाईनविषयक प्रस्ताव तैयार कर युनो में प्रस्तुत किया गया। यह ऐतिहासिक प्रस्ताव ‘यु. एन. रिझॉल्युशन-१८१’ इस नाम से विख्यात है। युनो की विशेष समिति द्वारा सुझाये गयेनुसार ही पॅलेस्टाईन प्रांत का – ‘अरब-राष्ट्र’, ‘ज्यू-राष्ट्र’ और जेरुसलेम तथा आसपास का संवेदनशील परिसर युनो के नियंत्रण में, ऐसा तीन भागों में विभाजन किया जानेवाला था।

लेकिन पॅलेस्टाईन-विभाजन के किसी भी प्रस्ताव को पहले से ही विरोध होनेवाले अरब इस प्रस्ताव का भी विरोध ही करनेवाले थे और वे केवल यह प्रस्ताव अधिकृत रूप में प्रस्तुत किया जाने की प्रतीक्षा कर रहे थे। दरअसल युनो का चार्टर यह हालाँकि देशों-देशों में आन्तर्राष्ट्रीय क़ानून बनाने के लिए मार्गदर्शक है, मग़र फिर भी युनो के पास किसी देश का निर्माण करने के अधिकार नहीं हैं। इस तत्त्व का आधार लेते हुए – ‘फिर बाहर का कोई संगठन भला इस तरह पॅलेस्टाईन के भविष्य का इक़तरफ़ा निर्धारण कैसे कर सकता है?’ ऐसा युक्तिवाद करते हुए, अरब देशों ने युनो के इस प्रस्ताव की वैधता को ही अमान्य करनेवाला एक प्रतिप्रस्ताव युनो में प्रस्तुत करने की कोशिश की, जो क़ामयाब नहीं हुई।

२९ नवम्बर १९४७! इस दिन आख़िरकार यह प्रस्ताव युनो की आमसभा में वोटिंग के लिए आया। ज्यूधर्मियों के तथा अन्य दोस्तराष्ट्रों के अथक प्रयासों को सफलता मिली और परिणामस्वरूप यह ऐतिहासिक प्रस्ताव ३३ बनाम १३ मतों से पारित किया गया। १० देशों ने मतदान में हिस्सा नहीं लिया।

‘पॅलेस्टाईन में ज्यू-राष्ट्र’ यह गत तीन सहस्रको (मिलेनियम) से प्रलंबित संकल्पना आख़िरकार आंतर्राष्ट्रीय समर्थन से सच होने की शुरुआत हो चुकी थी!(क्रमश:)

– शुलमिथ पेणकर-निगरेकर

Leave a Reply

Your email address will not be published.