परमहंस-११२

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

हालाँकि दया, करुणा ये रामकृष्णजी के स्वभावविशेष थे और जनसामान्यों के प्रति उनके दिल में अनुकंपा भरभरकर बह रही थी, लेकिन उनके पास आनेवाले लोग जब ईश्‍वर को न मानते हुए ‘समाजसेवा’, ‘दीनदुर्बलों की सेवा ही असली धर्म है’ आदि बातें करने लगते थे, तब वे खौल उठते थे; फिर वे लोग समाज में चाहे कितने भी विख्यात क्यों न हों, रामकृष्णजी उनकी परवाह नहीं करते थे। दीनदुर्बलों की सेवा तो करनी ही है, लेकिन यदि उसमें ईश्‍वर के प्रति भक्ति न हों, ‘ईश्‍वर ही हैं जो मुझसे यह सब करवा रहे हैं’ यह भाव न हों, तो जल्द ही इस बात का अहंकार उसे होगा यह निश्‍चित है, यह तत्त्व वे हमेशा प्रतिपादित कर करते थे।

जब तत्कालीन नामचीन बंगाली पत्रकार क्रिस्तोदास पाल ने रामकृष्णजी से इसी प्रकार का विवाद किया, तब रामकृष्णजी ने उन्हें स्पष्ट शब्दों में खरी खरी सुनाकर समझाया था। क्रिस्तोदास पाल ये बंगाल के समाजकारण में बतौर समाजसुधारक और देशभक्त माने जाते थे। वे ‘हिंदू पॅट्रियॉट’ नामक एक नियतकालिक के संपादक? भी थे। लेकिन अँग्रेज़ी शिक्षा के कारण उन्हें ईश्‍वर के प्रति विश्‍वास नहीं था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णजब वे रामकृष्णजी से मिले, तब उन्होंने, रामकृष्ण जो लोगों को भक्तिमार्ग की ओर मुड़ रहे थे, उसकी आलोचना की कि ‘समाज ऐसे भक्तिमार्ग के चँगुल में फँसकर विरक्ति की ओर मुड़ने के कारण ही हमारे देश का नुकसान हुआ है और ग़ुलामी की खाई में गिरने की नौबत देश पर आयी है। उससे अच्छा, दीनदुर्बलों की सेवा करना, देश में शिक्षा का प्रसार करना और हमारे देश की भौतिकदृष्टि से तरक्की करना यही हमारा आद्यकर्तव्य होना चाहिए। इन भक्ति जैसी बातों में ज़रूरत से उलझने करने के कारण उल्टे हम लोग दुर्बल बन जायेंगे, हमारा नुकसान ही होगा। इसलिए आप जैसे लोगों को चाहिए कि वे जनसामान्यों को, देश के लिए अनुकूल होनेवाले कार्य करने के लिए प्रवृत्त करें।’

भक्ति को गौण माननेवाले क्रिस्तोदास के इन ऐतराज़ों का रामकृष्णजी ने मुँहतोड़ जवाब दिया –

‘क्या समझते हो तुम अपने आपको? जिसे हमारे सभी शास्त्रों ने, ‘अन्य सबकुछ दे सकनेवाला सबसे बड़ा सद्गुण’ बताया है, उस ईश्‍वरभक्ति को गौण मानने ती तुम्हारी हिम्मत ही कैसे हुई? दोन-चार अँगेज़ी क़िताबें क्या पढ़ लीं, तुम्हें लगने लगा कि तुम सर्वज्ञानी हो गये? इस अनंत ब्रह्मांडों के अफाट जंजाल में मानव की ताकत ही क्या है? इन्सान ने यदि अपने जीवन से ईश्‍वर को निकाल बाहर किया, तो मानव की हैसियत एक तिनके जितनी भी नहीं। आज समाज पर यह जो नौबत आयी है, वह भक्तिमार्ग की ओर मुड़ने के कारण नहीं, बल्कि भक्तिमार्ग का ग़लत अर्थ लगाने से, इस बात को तुम लोग कभी मत भूलना।

इस गंगानदी में देखा, तो अनगिनत छोटे केंकड़ें दिखायी देंगे। मानव की औकात इस पूरे विश्‍वव्यापार में उन केकड़ों जितनी भी नहीं है;

….और आख़िरकार यह जो ‘नेक काम, नेक काम’ ऐसा तुम कह रहे हो, वे हैं क्या? दानधर्म करना, भूखों को खाना खिलाना, मरीज़ों की सेवाशुश्रुषा करना….वे नेक काम हैं इसमें कोई सन्देह नहीं; लेकिन इस विश्‍वव्यापार को देखा, तो इस तरह आप कितने ज़रूरतमन्दों को पूरे पड़नेवाले हों? उससे अच्छा, इन समस्याओं में फँसने की नौबत उनपर जिस कारण आयी, उस प्रारब्ध को बदलने की शक्ति उन ईश्‍वर में और उनकी भक्ति में है, उसे जान लें।

जिसने चोंच दी है, वह खाने के लिए घास की आपूर्ति भी करेगा ही। इस प्रचण्ड विश्‍वव्यापार का निर्माण जिसने किया, वही उसका खयाल रखने के लिए भी समर्थ है, इसे ना भूलें। यदि हर मानव इस बात को मानेगा और ‘उन्हें’ (ईश्‍वर को) पहचानेगा और ‘उन’की सर्वसमर्थता को मान्य करेगा, तो दुनिया की अधिकांश समस्याएँ समाप्त हो जायेंगी और यह ….‘उन्हें’ पहचानना, भक्तिमार्ग के ज़रिये ही साध्य होगा।

आजकल दानधर्म को ‘फिलान्थ्रॉफी’ इस भारीभरक़म नाम से संबोधित कर, उसके तहत विभिन्न लोगों द्वारा चलायीं जानेवालीं अधिकांश जनकल्याणकारी योजनाओं में कुछ न कुछ ख़ुफ़िया हेतु होता ही है; फिर चाहे वह हेतु – अपने आपको ‘दानशूर’ कहलवाना, ड़ींगें हाँकना, अहंकार बढ़ाना, शोहरत की भूख मिटाना, ख़ाली समय बिताना इन जैसा कोई भी हो सकता है; क्योंकि ये लोग ईश्‍वरभक्त नहीं होते। सच्चा ईश्‍वरभक्त नेक काम तो करता ही है, लेकिन उन्हें करते समय उसके मन में सदैव यह भावना जागृत रहती है कि यह मैं किसीपर एहसान नहीं कर रहा हूँ, बल्कि यह सबकुछ ‘वे’ ईश्‍वर ही हमारे हाथों करवा रहे हैं और हम केवल निमित्तमात्र हैं। वह अन्यों की सेवा इसी भाव से करता है कि यह मेरे हाथों होनेवाली मेरे ईश्‍वर की पूजा ही है। अतः, ऐसे ईश्‍वर का स्मरण कर किये हुए सेवाकार्यों से अहंकार जागृत नहीं होता।’

इस प्रकार, भक्तिमार्ग को कम समझकर उसका मज़ाक उड़ानेवाले या उसकी आलोचना करनेवाले को रामकृष्ण सीधा कर देते थे।

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