श्‍वसनसंस्था – १८

श्‍वसनमार्ग का दृश्य भाग कौन सा है? यदि किसी से यह प्रश्‍न पूछा जाए तो उसे अपनी नाक तुरंत याद आ जायेगी। नाक और गले तक का भाग ही हम बिना किसी यंत्र की सहायता से देख सकते हैं। गले और श्‍वास नलिका के बारे में हमने जानकारी प्राप्त की। अब हम नाक के कार्यों का अध्ययन करेंगे।

नाक के कार्य :
साँस लेने के बाद हवा का प्रवास शुरु होता है। नासापुटों (नथुनों) (nostrils) से हवा गले में जाती है।

नथुनों (nostrils) में तीन प्रकार के कार्य होते हैं, जो इस प्रकार हैं –
१) हवा का तपमान बढ़ जाता है। नाक से आगे जाते समय हवा गर्म हो जाती है। नाक के बीच का परदा और बाहरी दीवार छोटी अस्थि के कारण अंदरूनी आवरण के अनेक परदे बन जाते हैं। अंदरुनी आवरण का हिस्सा हवा के संपर्क में आता है। इस अंदरुनी भाग का तपमान वातावरण के तपमान की तुलना में ज्यादा होता है। फलस्वरूप जब हवा इसके संपर्क में आती है तो हवा का तपमान भी बढ़ जाता है।

२) नाम में हवा की आर्द्रता (Humidity) बढ़ जाती है। यह एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य है। क्योंकि सूखी-रूक्ष हवा एवं उष्ण हवा शरीर की पेशियों के लिए घातक होती है।

३) नाक में हवा थोड़े बहुत प्रमाण में छन जाती है।

उपरोक्त तीनों कारणों के फलस्वरूप फेफड़ों में जानेवाली हवा फेफड़ों की पेशियों के लिए उचित अवस्था में ही होती है। उसको इस तरह conditioned किया जाता है। इस लिए इस कार्य को हवा की air conditioning भी कहा जाता है। इस हवा का तपमान शरीर के तपमान के लगभग बराबर लाया जाता है।

हमने देखा नाक में हवा थोड़े-बहुत प्रमाण में छन जाती है। नथुनों की शुरुआत में ही छोटे-छोटे केश (बाल) नाक में होते हैं। हवा में उपस्थित मोटे (बड़े) आकार के कण इन केशों में अटक जाते हैं। सर्वप्रथम यहाँ पर ही कुछ मात्रा में हवा छानी जाती है। फिर भी छोटे आकार के कण निकलकर आगे चले जाते हैं। नाक से हवा का प्रवास सरल एवं सहज नहीं होता है। नाक के परदे का मोड़, छोटी अस्थि के कारण बने हुए घुमाव में हवा घूमती है। इस घूमने के कारण हवा के छोटे भँवर का रूप प्राप्त होता है। अर्थात् यहाँ पर Terbulance बन जाता है। नाक का परदा, मोड़ आदि से हवा टकराती है, वहाँ पर हवा की दिशा बदल जाती है। इसी लिए टरब्युलन्स का निर्माण होता है। हवा में उपस्थित कण, उनका आकारमान एवं बढ़ी हुई गति के कारण हवा इतनी जल्दी अपनी दिशा नहीं बदल सकती। हवा जहाँ-जहाँ पर भी म्युकस परदे से टकराती है, वहाँ पर ये कण बारंबार टकराते रहते हैं। और अंतत: उस म्युकस में ही अटक जाते हैं। म्युकस के साथ-साथ ये कण भी गले की ओर सरकते हैं और म्युकस के साथ-साथ निगल लिये जाते हैं।

हवा के कण श्‍वसनमार्ग में कहाँ तक पहुँचते हैं, यह उनके आकार पर निर्भर करता है। ६ मायक्रोमीटर और उससे बड़े आकार के कण गले एवं नाक के आगे पहुँच ही नहीं पाते। इनकी तुलना में छोटे कण यानी १ से ५ मायक्रोमीटर आकार के कण आगे सरकते हैं। गुरुत्वबल के कारण ये कण अंतत: छोटी ब्रोंकिओल्स में पहुँचते हैं और वहीं पर जमा हो जाते हैं। कोयले के छोटे कण इसी आकार के होते हैं। इन्हीं कणों के कारण कोयले की खान में काम करनेवाले कर्मचारियों को साँस की बीमारियाँ होती हैं। ऐसे कर्मचारियों के फेफड़ों में, टर्मिनल ब्रोंकिओल्स में ऐसे कण जमा होते हैं।

१ मायक्रोमीटर से छोटे कण अलविओलाय तक पहुँच जाते हैं। ये कण अलविओलर द्राव में अटकते हैं। अलविओलर मॅक्रोफाज पेशी और लिंफॅटिक्स के माध्यम ये कण अलविओलाय के बाहर ले जाये जाते हैं। ०.५ मा. मीटर की अपेक्षा छोटे कण अलविलोस की हवा में ही तैरते रहते हैं तथा उच्छ्वास के दौरान बाहर निकलते हैं। सिगरेट के धुएँ के कण ०.३ मा.मीटर आकार के होते हैं। ये कण सीधा अलविओलाय तक पहुँच जाते हैं। इन में से १/३ कण अलविओलर द्राव में घुल जाते हैं और शेष २/३ कण उच्छ्वास के रास्ते बाहर निकल जाते हैं।

हवा का महामार्ग किस प्रकार से खुला रखा जाता है, यह अभी तक हमने देखा। फेफड़ों में रक्तप्रवाह और उससे संबंधित बातों का अध्ययन हम अगले लेखों में करेंगे।(क्रमश:)

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