कोल्हापुर भाग-४

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कोल्हापुर जानेवाले यात्री जिस तरह महालक्ष्मी के दर्शन अवश्य करते ही हैं, उसी तरह रंकाळा झील की सैर भी करते ही हैं। पुराने समय में कोल्हापुर में कईं छोटी बड़ी झीलें थीं; लेकिन समय के साथ साथ उनमें से कुछ झीलों का अस्तित्व मिट गया, वहीं कुछ अब भी अस्तित्व में हैं।

झील कहते ही हमारी आँखों के सामने एक साधारण जलराशि का चित्र आ जाता है। लेकिन रंकाळा झील को देखने के बाद हमारी यह कल्पना पूरी तरह बदल जाती है। ‘रंकाळा झील’ के एक तट से दूसरें तट तक नज़र फेर दी जाये तो उसकी विशालता देखकर हम स्तब्ध रह जाते हैं। दर असल रंकाळा झील को कभी भी देखिए, हर व़क़्त उसका नज़ारा खूबसूरत ही रहता है। लेकिन शाम को सूर्यास्त होने से पहले पवन इस झील की लहरों को छेड़ रही है, सूरज की किरनें उस जल पर अनोखें रंगों की रंगोलियाँ बना रही हैं और रंकाळे के जल में पवन और किरनों का हो रहा यह खेल थके भागे मन में नयी चेतना भर देता है।

कहा जाता है कि इस झील के बीचोंबीच ‘रंकभैरव’ का मंदिर है और इसी वजह से इस झील को ‘रंकाळा’ यह नाम प्राप्त हुआ।

ऐसा माना जाता है कि 8वीं सदी के पूर्व इस स्थान पर एक खदान थी। भूकंप के कारण हुए भौगोलिक परिवर्तनों के कारण उस खदान में कई रूपांतरण हुए और भूगर्भ स्थित जल ज़मीन पर आ गया और यहाँ पर एक बड़े जलाशय का निर्माण हुआ, जिसे आगे चलकर कोल्हापुर के शासकों ने झील का रूप दिया।

इस रंकाळा परिसर में एक बड़ा नंदी है। इस नंदी के बारे में एक आख्यायिका प्रचलित है। कहते हैं कि हर रोज़ यह नंदी गेहूँ के दाने जितना फ़ासला तय कर झील की दिशा में आगे बढ़ता है और फिर तिल जितना पीछे आ जाता है यानि कि झील से दूर जाता है। ऐसा करते करते एक दिन जब यह नंदी स्वयं को झील में संपूर्ण समर्पित कर देगा, उस दिन विश्‍व का लय हो जायेगा।

सूर्यास्त के समय के इस रंग-प्रकाश के खेल के ख़त्म हो जाते ही रंकाळा आराम से सो जाता है और दूसरे दिन सुबह सूर्योदय के साथ पुन: सभी को आनन्द देने लगता है।

कोल्हापुर से कुछ ही दूरी पर स्थित पन्हाळा क़िले की सैर हमने की। कोल्हापुर में भी कोल्हापुर के शासकों का निवास जिनमें था, ऐसे राजमहल हैं।

उनमें से ‘शालिनी पॅलेस’ रंकाळा के पश्‍चिमी तट पर स्थित है। १९३१ से लेकर १९३४ तक की अवधि में बनाये गये इस पॅलेस को कोल्हापुर रियासत की राजकन्या का नाम दिया गया है। इस पॅलेस के निर्माण में काला पत्थर, इटालियन मार्बल, लकड़ी और काँच इनका इस्तेमाल किया गया है। यहाँ पर किये गये ऩक़्क़ाशीकाम से इस पॅलेस को भव्यता के साथ साथ सुन्दरता भी प्राप्त हुई है। फिलहाल इस वास्तु को हॉटेल में रूपांतरित किया गया है।

महालक्ष्मी के मंदिर के पास ही ‘भवानी मंडप’ नाम की वास्तु है। इसे यहाँ की सबसे बड़ी और पुरानी वास्तु माना जाता है। इसमें १४ चौक थे, लेकिन विदेशियों के आक्रमण के दौरान इनमें से सिर्फ़ ७ चौक ही सुस्थिति में रह पाये। भवानी मंडप की विशेषता है, ‘तुळजाभवानी’ का मंदिर।

पुराने समय के राजा-महाराजाओं तथा उनके परिजनों का यह अर्चनस्थल था ऐसा कहा जाता है। उस समय यहाँ पर महत्त्वपूर्ण कार्यों से संबंधित विचारविमर्श भी किया जाता था और कईं उत्सव भी मनाये जाते थे। सारांश, कोल्हापुर के इतिहास में यह एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण वास्तु थी।

कोल्हापुर के शासकों के राजमहल का निर्माण १९वीं सदी में किया गया। यह महल सुन्दरता और वैभव का अनोखा संगम है।

कोल्हापुर की भूमि को प्राचीन समय से ही कुदरती सुन्दरता का वरदान प्राप्त हुआ है और क्यों न हो यहाँ पर साक्षात् देवी महालक्ष्मी का वास जो है। प्राचीन समय में यहाँ पर तपस्वियों का भी वास्तव्य रहा है ऐसा कहा जाता है।

कुदरती सुन्दरता और आध्यात्मिकता की विरासत के साथ साथ कोल्हापुर को बेहतरीन खाद्यसंस्कृति का वरदान भी मिला है। कोल्हापुर का तांबडा-पांढरा रस्सा (लाल और सफ़ेद रंग का तीखा शोरबा), मिसल इन जैसे तीखे पदार्थों के साथ गन्ना और गुड़ जैसे मीठें पदार्थों को भी आप यहाँ पर चख सकते हैं और साथ ही दूध और दूध से बने पदार्थ भी।

कोल्हापुर की ख़ासियत में एक और बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है। महिला वर्ग और गहनों के बीच एक अटूट रिश्ता है। आप समझ ही गये होंगे कि इस ख़ासियत का संबंध गहनों के साथ रहेगा। जी हाँ, आपने सही पहचाना, मैं बात कर रही हूँ, ‘कोल्हापुरी साज’ की।

‘कोल्हापुरी साज’ यह एक ख़ास गहना है। इसे गले में ‘नेकलेस’ की तरह पहनते हैं। यह सोने से बनाया जाता है या चांदी पर सोने का मुलम्मा देकर भी इसे बनाया जाता है। इसके बहुत सारे डिझाइन्स भी रहते हैं।

पुराने समय में पुरुष हमेशा सिर पर पगड़ी या टोपी जैसा शिरोआच्छादन पहनते ही थे। आज रोज़मर्रा के जीवन में नहीं, लेकिन विशेष अवसर पर इन्हें पहना जाता है। ‘कोल्हापुर का फेटा’ भी कोल्हापुर की ख़ासियत है। दर असल केवल महाराष्ट्र में ही नहीं, बल्कि हमारे भारतवर्ष के कईं प्रदेशों में फेटा बाँधा जाता है और हर एक प्रदेश के अनुसार उसे बाँधने की शैली अलग रहती है। मेहमानों को सम्मान प्रदान करने हेतु फेटा बाँधना यह एक रिवाज़ भी है।

अब जिसे पहने बिना कोई भी घर से बाहर नहीं निकलता उस ‘चप्पल’ की बात करते हैं। ‘कोल्हापुरी चप्पल’ यह कोल्हापुर की एक महत्त्वपूर्ण ख़ासियत है।

चप्पलों को पुराने ज़माने में ‘पादत्राण’ (मराठी में ‘पायताण’) कहा जाता था। कोल्हापुरी चप्पलें भी ‘पायताण’ इस अनोखे नाम से जानी जाती हैं। इन्हें कोई भी बड़ी आसानी से पहन सकता है। इनके परंपरागत डिझाइन्स में कचकडी, पुकारी और बक्कलनाली इनका समावेश होता है। आज समय के साथ साथ नयें डिझाइन्स भी आने लगे हैं। पुराने समय में सिर्फ़ चमड़ा (लेदर) और उसी से निर्मित धागा इनका ही इस्तेमाल इन चप्पलों के निर्माण में किया जाता था। कहा जाता है कि इनके निर्माण में एक भी कील का इस्तेमाल नहीं किया जाता। आज बदलते युग के साथ लेदर के साथ साथ इन चप्पलों की सुन्दरता को बढ़ाने के लिए अन्य वस्तुओं का भी उपयोग किया जाता है।

कोल्हापुर की एक और ख़ासियत है, ‘कोल्हापुर की कुश्ती’।

प्राचीन समय से ‘मल्लविद्या’ इस नाम से कुश्ती मशहूर थी। महाभारत में मल्लयुद्ध के कईं घटनाओं का वर्णन किया गया है। इनमें दो पुरुष प्रतिद्वन्द्वी तरह तरह के दाँवपेंच लड़ाकर एकदूसरे को पछाड़ने की कोशिश करते थे। इनमें सिर्फ़ शरीरबल का उपयोग करके प्रतिद्वन्द्वी को हराया जाता था।

यही मल्लविद्या आगे चलकर ‘कुश्ती’ इस नाम से जानी जाने लगी और विकसित भी हुई। कुश्ती का प्रशिक्षण देनेवाले विशेषज्ञ भी रहते हैं। कुश्ती के अभ्यास तथा प्रशिक्षण के लिए विशिष्ट प्रकार की रचनाओं का निर्माण किया जाता था और साथ ही खुले मैदानों में भी कुश्तियाँ खेली जाती थीं।

पुरानी मराठी फिल्मों में कुश्ती का दृश्य अवश्य रहता था। कोल्हापुर रियासतदारों ने कुश्ती को प्रोत्साहन दिया और उसके विकास के लिए कोशिशें भी कीं। इस वजह से २०वीं सदी में कोल्हापुर में यह मल्लविद्या यानि कि कुश्ती काफ़ी विकसित हुई। कोल्हापुर के शासकों ने कोल्हापुर में कुश्ती के लिए एक स्टेडियम का निर्माण किया। यह स्टेडियम ‘ख़ासबाग स्टेडियम’ अथवा ‘ख़ासबाग मैदान’ इन नामों से जाना जाता है। इस स्टेडियम की रचना ऐसी है कि इसमें दर्शक बड़ी संख्या में बैठकर कुश्ती के खेल का लु़फ़्त उठा सकते हैं।

कोल्हापुर की इन विशेषताओं के साथ कोल्हापुर की सैर करने में बड़ा मज़ा आया। लेकिन कोल्हापुर से बस चंद एक घण्टे की दूरी पर स्थित एक तीर्थक्षेत्र के दर्शन भी हमें अवश्य करने चाहिए; क्योंकि उसके बिना हमारी यह यात्रा संपूर्ण नहीं होगी।

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