परमहंस-६३

रामकृष्णजी को अद्वैत साधना के सर्वोच्च स्थान पर स्थिर करने का ध्यास लिये तोतापुरी की ही अपूर्ण रह चुकी साधना जब इस उपलक्ष्य में पूर्णत्व को प्राप्त हुई, तब वे रामकृष्णजी से विदा लेकर अगली यात्रा के लिए चले गये। रामकृष्णजी लगभग अगले ५-६ महीने इस स्थिति में थे और इस दौरान उन्होंने कई बार निर्विकल्प समाधि का अनुभव किया।

इसी कालावधि में उनके दिव्यत्व की प्रचिति करा देनेवाला एक वाक़या घटित हुआ।

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राणी राशमणि के दामाद मथुरबाबू अब रामकृष्णजी की पूरी तरह शरण में गये थे और मंदिर के व्यवस्थापालन के साथ ही, रामकृष्णजी की अधिक से अधिक सेवा कैसे कर सकता हूँ, इसीके बारे में वे सोचते रहते थे। मूलतः परिस्थिति से बहुत ही ग़रीब होनेवाले मथुरबाबू अपने अंगभूत गुणों से, बुद्धिमत्ता से और विशेष रूप से निष्ठा के कारण राणी राशमणि के सर्वोच्च विश्‍वासपात्र बने थे। यहाँ तक कि राशमणि ने अपनी तीसरी कन्या की – करुणामयी की शादी उनसे करा दी थी। शादी के बाद धीरे धीरे राशमणि की पूरी इस्टेट की देखरेख वे ही करने लगे थे। उनकी पत्नी करुणामयी के निधनपश्‍चात्, उनपर होनेवाले विश्‍वास के कारण राशमणि ने अपनी चौथी कन्या जगदंबादासी का विवाह?भी उन्हीं के साथ कराके दिया था। आगे चलकर राशमणि के निधन के बाद मथुरबाबू ही दक्षिणेश्‍वर मंदिरसंकुल के साथ साथ राशमणि की साही इस्टेट के ही सर्वेसर्वा बन गये थे। लेकिन वे विश्‍वस्तभावना से ही यह सारा कारोबार देखते थे और रामकृष्णजी की अलौकिकता का यक़ीन हो जाने के बाद तो वे रामकृष्णजी की अधिक से अधिक सेवा करने के ही प्रयास करते थे।

ऐसे मथुरबाबू की पत्नी जगदंबादासी को, रामकृष्णजी की इस अद्वैत सिद्धांत साधना की कालावधि के दौरान ही दस्त (जुलाब) की बीमारी शुरू हुई। वह रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। बडे बडे डॉक्टर्स, वैद्य को दिखाया, लेकिन किसी की भी दवाई का असर नहीं हुआ। दिनबदिन बढ़ती ही चली जानेवाली इस बीमारी के सारे लक्षण, उसका प्रवास धीरे धीरे मृत्यु की ओर शुरू हुआ है, यह दर्शा रहे थे। मथुरबाबू की तो नीन्द ही उड़ गयी थी। अब उनका एक ही सहारा था – रामकृष्णजी!

विमनस्क अवस्था में मथुरबाबू दक्षिणेश्‍वर रामकृष्णजी के पास आये। रामकृष्णजी उस समय भावावस्था में थे। लेकिन उन्होंने मथुरबाबू को अपने पास बिठाया। मथुरबाबू का चेहरा ही यह बता रहा था कि वे बहुत दुखभरी अवस्था से गुज़र रहे है। फिर उन्होंने मथुरबाबू से कारण पूछा, तब मथुरबाबू का इतने समय तक सँभाला हुआ सब्र टूट गया। रामकृष्णजी के चरणों में गिरकर वे रोने लगे। रामकृष्णजी ने उन्हें उठाकर उनका धीरज बँधाया। धीरे धीरे शांत होते हुए मथुरबाबू ने अपने दुख की वजह बतायी।

वह सुनकर रामकृष्णजी कुछ पलों के लिए पुनः भावावस्था में गये। थोड़ी देर बाद आँखें खोलकर उन्होंने कहा, ‘‘कुछ नहीं होगा उसे….बाहर आयेगी इसमें से वह!’’

ये शब्द सुनकर, रामकृष्णजी की महिमा पूरी तरह ज्ञात होनेवाले और पूर्णतः उनकी शरण में गये मथुरबाबू की जान में जान आ गयी। क्योंकि रामकृष्ण के वचन कभी भी झूठ नहीं होते, इस बात का उन्होंने कई बार अनुभव किया था।

रामकृष्णजी का आशीर्वाद लेकर वे पुनः घर लौटे। घर आकर देखते हैं तो क्या, अब तक हाथ से निकल रहे हालात पुनः पूर्ववत् होने के लक्षण दिखायी देने भी लगे थे। कुछ ही दिनों में बीमारी पूरी तरह थमकर, वह अच्छीख़ासी घूमनेफिरने भी लगी। मथुरबाबू के दिल में रामकृष्णजी के बारे में जो भक्तिभाव तथा कृतज्ञता थी, वह और भी बढ़ गयी थी।

….लेकिन रामकृष्णजी तो अगले छः महीने दस्त (जुलाब) से बेज़ार हो गये। मथुरबाबू ने उनके लिए भी कोलकाता के एक नामचीन डॉक्टर गंगाप्रसाद सेन को बुलाया, लेकिन व्यर्थ! उन्हें भी रामकृष्णजी की इस बीमारी का निदान न हो सका। लेकिन छः महीने बाद यह बीमारी अपने आप कम होती गयी और आख़िर ठीक भी हुई।

मग़र मथुरबाबू को जो कुछ भी समझना था, उसे वे समझ गये थे। मेरी पत्नी के भोग रामकृष्णजी ने खुद भुगते, इस बात का मथुरबाबू को निश्‍चित ही यक़ीन हो चुका था।

‘मथुर की पत्नी के नसीब में होनेवाले भोग भुगतकर ही ख़त्म करना आवश्यक था और यदि ये भोग उससे भुगते नहीं जानेवाले हैं, तो किसी और को उन्हें भुगतना पड़नेवाला था। फिर वे भोग (स्वयं की ओर निर्देश कर) पूरे छः महीने इस देह ने भुगते’ ऐसा रामकृष्णजी ने आगे चलकर अपने शिष्यों को इस घटना के बारे में बताते हुए कहा।

लेकिन इतनी चरमसीमा की शारीरिक पीड़ा सहनी पड़ रही होने के बावजूद भी रामकृष्णजी की अद्वैतसाधना में ज़रासा भी व्यत्यय नहीं आया था। वह पहले की तरह ही शुरू थी। अपने मन को देहभाव से, भौतिक बातों से अलग करना रामकृष्णजी के लिए बख़ूबी संभव होता था। इसी कारण शरीर को इतनी पीड़ा हो रही होने के बावजूद भी उनका मन शांत ही रहता था।

इस कालावधि में, भ्रमण कनेवाले तोतापुरी से तथा अन्यों से भी रामकृष्णजी की किर्ति सुनकर, अद्वैतसाधना मार्ग पर चलनेवाले कई छोटे-बड़े साधक उनसे मिलने दक्षिणेश्‍वर आये। कुछ मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए, तो कुछ चर्चा करने के लिए। लेकिन शरीर इतनी पीड़ा से त्रस्त हुआ होने के बावजूद भी उनके साथ गहरी चर्चाएँ करना रामकृष्णजी के लिए संभव होता था।

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