नेताजी-११९

लखनौ स्थानक में नीहारेन्दुबाबू के साथ, भूमिगत होने के सन्दर्भ में हुए संवाद के बाद सुभाषबाबू के विचारों ने निश्चित दिशा पकड़ ली थी और उस बारे में वे विभिन्न संभावनाओं पर सोच-विचार कर रहे थे। रशिया, चीन, जापान, जर्मनी….सभी मोरचों पर सुभाषबाबू नज़र बनाये हुए थे। इस महायुद्ध के साथ कइयों के कई प्रकार के हितसम्बन्ध जुड़े हुए थे। पहले विश्‍वयुद्ध के बाद हुए समझौते के तहत, हारे हुए जर्मनी के साथ विजेता मित्रराष्ट्रों द्वारा किये गये अन्याय का बदला लेकर जर्मनी को पुनः वैभवशाली दिन दिखाने की व्यक्त आकांक्षा की आड़ में हिटलर जगज्जेता बनने की, कम से कम युरोप पर शासन करने की महत्त्वाकांक्षा मन में लिये था। वहीं, तानाशाह हिटलर से दुनिया को मुक्त करने की घोषणा के आड़े, कहीं हिटलर हमारे सिर पर चढ़कर न बैठ जाये, यह इंग्लैंड़ के मन में स्थित ख़ौंफ़ था। अस्त्रशस्त्रों के उत्पादक ‘उनकी चलती के दिन शुरू हो जाने के कारण’ खुश थे और यह युद्ध अधिक से अधिक समय तक चलता रहें, यही उनकी इच्छा थी। वहीं, इंग्लैंड़ के लिए सिरदर्द बने इस महायुद्ध का फ़ायदा उठाकर अँग्रेज़ों की ग़ुलामी में जक़ड़े भारत को आज़ाद करने के लिए आरपार की लड़ाई करने का समय आ चुका है, यह सुभाषबाबू की राय थी। लेकिन भारत की तत्कालीन परिस्थिति को देख भारत में रहकर यह करना मुमक़िन नहीं होगा, उसके लिए भारत के बाहर जाना पड़ेगा, इसका एहसास सुभाषबाबू को हो चुका था और नीहारेन्दुबाबू के साथ हुई बातचीत के बाद, भूमिगत होकर इस कार्य को करने का उनका निश्‍चय अटल बन चुका था।

हालाँकि सुभाषबाबू ने भूमिगत होकर कार्य करने की ठान तो ली थी, लेकिन सरकार सुभाषबाबू पर पहले से भी ज़्यादा स़ख्त नज़र रखे हुए थी। उनके ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक’ के सदस्यों को एक के बाद एक कर गिऱफ़्तार किया जा रहा था। सुभाषबाबू के वक्तव्य, भाषण, लेखन इनका संकलन करना, साथ ही दिन भर में सुभाषबाबू किस किससे मिलते हैं, इसकी सूचि बनाना यह गृहमंत्रालय का उपक्रम जारी ही था।

लेकिन सुभाषबाबू सरकार की नस नस से वाक़िब थे। किसी भी नतीजे तक पहुँचने से पहले बंगाल सरकार ने मेरे बारे में क्या क्या जानकारी इकट्ठा की है, यह जानने की सुभाषबाबू की इच्छा थी (अँटि-स्पाइंग)। इस जोख़मभरे काम को अंजाम दिया, सुभाषबाबू के विश्‍वसनीय सत्यरंजन बक्षीजी ने। उन्होंने बंगाल सरकार के गुप्तचर विभाग के, सुभाषबाबू के प्रति सद्भावना रखनेवाले वरिष्ठ अ़फ़सर को चुनकर उनके साथ संपर्क पहले से ही प्रस्थापित किया था। उसका इस्तेमाल करने का उन्होंने तय किया। वह अ़फ़सर हर रोज़ सुभाषबाबू के सन्दर्भ की एक फ़ाईल गुप्त रूप से बक्षीजी को देने के लिए बाजू में निकालकर रखता था। उसे लेकर बक्षीजी मध्यरात्रि के समय सुभाषबाबू से मिलने आते थे। सुभाषबाबू पर नज़र रखने के लिए सरकार द्वारा नियुक्त किये गये गुप्तचरों का काम सुभाषबाबू के कक्ष की बत्तियाँ बुझने तक ही रहता था। बत्तियाँ बुझते ही वे गुप्तचर वहाँ से ऱफ़ा द़फ़ा हो जाते थे, यह भली-भाँति ज्ञात होने के कारण सुभाषबाबू ने बक्षीजी से मिलने के लिए इसी समय का चयन किया था। इसीलिए बक्षीजी के देर रात सुभाषबाबू के घर आने-जाने की सरकार को भनक तक नहीं लगी। सुभाषबाबू रातभर में उस पूरी ङ्गाईल को पढ़कर उसका सारांश नोट करके रखते थे। प्रातः चार बजे बक्षीजी पुनः आकर उस फ़ाईल को ले जाकर उस अ़फ़सर को लौटा देते थे। यह सिलसिला ह़फ़्ते भर जारी रहा। इस कार्य के ज़रिये, बंगाल सरकार के पास उनके बारे में इकट्ठा की गयी सारी जानकारी, उन जानकारियों के ‘स्रोतों के साथ’ सुभाषबाबू को देखने मिली। उन जानकारियों के स्रोत देखकर सुभाषबाबू हैरान रह गये। उनमें उनके कुछ सहकर्मी, कुछ मित्र, कुछ रिश्तेदार इनके नाम थे। इस वजह से, मेरे सहकर्मियों, मित्रों और रिश्तेदारों में से गद्दार कौन हैं, मुझसे बातचीत करने के बाद वे किस किस के पास जाकर क्या क्या बातें करते हैं, यह भी सुभाषबाबू ने दर्ज कर रखा।

उसके बाद सुभाषबाबू ने पहले रशिया के साथ मित्रता का हाथ बढ़ाने का निर्णय किया। दो महीनें पूर्व ही केंब्रिज से छुट्टी पर भारत आये उनके भतीजे – अमेयनाथ ने भारत आने से पहले सुभाषबाबू द्वारा बताये गये व्यक्तियों से मुलाक़ात की थी। इससे भी सुभाषबाबू को कई बातें ज्ञात हुईं। अब अमेयनाथ छुट्टियाँ बिताने के बाद जब इंग्लैंड़ जाने निकला, तब सुभाषबाबू ने रशियन विदेश मन्त्रालय के एक वरिष्ठ अ़फ़सर को देने के लिए उसे एक पत्र सौंप दिया। वह इटालियन कंपनी की बोट से जानेवाला था। सुभाषबाबू जब सन १९३४ में युरोप गये थे, तब इसी ‘लॉईड ट्रिस्टिनो’ कंपनी की बोट से उन्होंने स़फ़र किया था और उस कंपनी के व्यवस्थापन तक सुभाषबाबू की अच्छी ख्याति पहुँचने के कारण उन्होंने सुभाषबाबू के व्हेनिस पहुँचने पर उनके वहाँ के ऑफ़ीस व्यवस्थापक द्वारा उनका अच्छा-ख़ासा स्वागत किया था। इसीलिए सुभाषबाबू के प्रति सद्भावना रखनेवाली कंपनी की बोट से ही अमेयनाथ जायें और बीच रास्ते में नेपल्स उतरकर मॉस्को जायें, यह तय किया गया था। लेकिन सुभाषबाबू के मामले में हमेशा ही अँग्रे़ज सरकार हर संभव एहतियाद बरतती थी और इसीलिए अमेयनाथ के मुंबई पहुँचते ही पुलीस ने उनसे मिलकर वह उस बोट से यात्रा नहीं कर सकता, उसे ब्रिटीश कंपनी के हवाई जहाज़ से ठेंठ इंग्लैंड़ जाना होगा, यह बताया। मग़र तब भी हार न मानते हुए सुभाषबाबू ने इंग्लैंड़ के रशियन दूतावास के एक अ़फ़सर का नाम बताकर उसके पास वह ख़त देने के लिए कहा। सुभाषबाबू की ‘संपर्कयंत्रणा में’ वह अ़फ़सर शामिल था।

इसी दौरान अँग्रे़ज सरकार ने भारतीयों को फ़ौज में दाखिल करना शुरू कर दिया था और भारत के सभी कारखानों पर किसी न किसी प्रकार की युद्धसामग्री का उत्पाद करने की ज़बरदस्ती की जा रही थी। दो वक़्त की रोटी नसीब होगी, इस आशा के साथ कई भारतीय नौजवान अँग्रे़जों द्वारा बिछाये गये जाल में ङ्गँसकर विदेशियों के युद्धों के मोहरें बनने बोट द्वारा बड़ी संख्या में जा रहे थे।

सन १९३९ के अक्तूबर में चीन का रवैया आज़माने के लिए चीन हो आने का फ़ैसला सुभाषबाबू ने किया और वैसी अर्ज़ी भी बंगाल सरकार को दी। इसी दौरान जवाहरलालजी हाल ही में चीन दौरे पर हो आये थे। उस समय सर हर्बर्ट नाम के एक नर्मदिल वृत्ति के गृहस्थ बंगाल प्रान्त के गव्हर्नर थे। उन्होंने, नेहरूजी को चीन जाने की अनुमति मिली थी इस आधार पर और मुख्य रूप से ‘स्वयं ही यह बला देश से बाहर जा रही है, तो भला उसे क्यों रोका जाये’ इस दृष्टिकोण से सुभाषबाबू की अर्ज़ी पर मंज़ूरी की मुहर लगाकर उसे व्हाईसरॉय के पास भेज दिया। उसपर व्हाईसरॉय लिनलिथगो ने उन्हें खरी खरी सुनायी और ‘चीन के रशिया से ज़्यादा दूर न होने का’ गव्हर्नर को ‘एहसास दिलाकर’, यह ख़तरनाक मनुष्य आन्तर्राष्ट्रीय क्रान्तिकारी संगठन भी बना सकता है, इससे भी अवगत कराया और सुभाषबाबू को दी गयी चीन जाने की अनुमति रद कर दी। लेकिन एक राह के बन्द हो जाने के कारण मायूस हो जानेवालों में से एक वे नहीं थे।

इस भागदौड़ में सन १९३९ ख़त्म होकर सन १९४० शुरू हो गया।

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