क्रान्तिगाथा-४५

भारतीयों की विचार-स्वतन्त्रता पर अँग्रेज़ों के द्वारा लगायी गयी पाबंदी का एक और उदाहरण १९०७ में सामने आ गया। १९०७ में ‘प्रिव्हेन्शन ऑफ सेडीटीयस मिटींग्ज्स् अ‍ॅक्ट’ यह क़ानून पारित किया गया। इसके ज़रिये प्रत्येक प्रान्त में वहाँ के स्थानीय प्रशासन के द्वारा निश्‍चित किये गये इलाक़े में २० से ज़्यादा लोगों की सभा को अनधिकृत क़रार देकर उसपर बंदी लगाने का अधिकार प्रत्येक प्रान्त के स्थानीय प्रशासन को दिया गया।

क्योंकि भारत भर में होनेवाली इस तरह की सभाओं के माध्यम से अँग्रेज़ सरकारविरोधी विचार भारतीयों तक पहुँचेंगे इस बात का अँग्रेज़ों को यक़ीन था; दर असल उन्हें इस बात का ड़र सता रहा था। अँग्रेज़ों की दृष्टि से यह कृति यानी ‘राजद्रोह’ ही था और इस राजद्रोह पर पाबंदी लगाने के लिए यह क़ानून पारित किया गया था।

इस क़ानून के तहत जो भारतीय इस तरह की सभाओं का आयोजन करके अँग्रेज़ों की दृष्टि से ‘राजद्रोह’ रहनेवाले विचार लोकसमूह के सामने रखेगा, उसे सज़ा देना अब अँग्रेज़ों के लिए आसान बन गया था। उसे ६ महीने के कारावास के साथ जुर्माना ये सजाएँ सुनायी जाती थी।
भारतीयों के मन में स्वतन्त्रताप्राप्ति की आस जैसे जैसे बढती जा रही थी, वैसे वैसे अँग्रेज़ों को लगनेवाला डर भी बढता जा रहा था। इस बात की पुष्टी करने के लिए ये ऊपर उल्लेखित कुछ गिनेचुने उदाहरण ही काफ़ी है।

१९०७ में भारत में एक और महत्त्वपूर्ण घटना हुई । अब तक इंडियन नॅशनल काँग्रेस में नरम और गरम ये दो मतप्रवाह अपनी जड़ें मज़बूत कर चुके थे। १९०७ में नरम और गरम दल के बीच के वैचारिक विरोध ने उग्र स्वरूप धारण कर लिया था। परिणामवश उनके बीच एक खाई सी बन गयी।

यहाँ पर पंजाब इलाक़े में भी अब अँग्रेज़विरोधी जनमत बडी मात्रा में निर्माण होने लगा था। आगे चलकर पंजाब इलाक़े में अँग्रेज़ों के विरोध में संघर्ष अब अधिक तीव्र रूप धारण करनेवाला था।

१९०६ में ‘कोलोनायझेशन बिल’ नाम का एक क़ानून पारित कर दिया गया था। इससे पहले भी पंजाब इला़के में एक क़ानून पारित कर दिया गया था। इन दो क़ानूनों के कारण पंजाब इला़के में काफ़ी असंतोष फैला हुआ था। इन क़ानूनों के सहारे अँग्रेज़ों ने यह व्यवस्था कर रखी थी, जिससे किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद यदि उसकी अपनी कोई संतान न हो तो उसकी सारी जायदाद पर उसके वंशजों का कोई अधिकार नहीं होगा, बल्कि उसकी जायदाद पर अँग्रेज़ सरकार का अधिकार होगा और फिर अँग्रेज़ सरकार को वह जायदाद किसीको भी बेचने का अधिकार था।

सारांश, फिर एक बार भारतीयों को उन्हींकी अपनी भूमि पर मूलभूत अधिकारों से वंचित रखनेवाला क़ानून। इस बात का पंजाब इला़के में सब जगह ज़ोरदार विरोध होने लगा और इसीमें से अँग्रेज़विरोधी जनमत बड़े पैमाने पर बनने लगा और धीरे धीरे कुछ गुप्त संगठन भी स्थापन किये जाने लगे। पंजाब में लाला लजपत रायजी के साथ अनेक स्वतन्त्रतासेनानी अब सक्रिय बन चुके थे।

इस तरह अँग्रेज़ी हुकूमत को हो रहा विरोध समय के साथ तीव्र होता जा रहा था, इसी वजह से अँग्रेज़ भी अब ज़्यादा चौकन्ने होकर हर संभव अवसर का इस्तेमाल करके अधिक से अधिक देशभक्तों एवं क्रान्तिवीरों को उनके कार्य से दूर हटाने की तरक़ीबें सोच रहे थे।

खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी की देशभक्तिपूर्ण कृति से अँग्रेज़ों को फिर एक बार अच्छा खासा अवसर मिल गया था। किसी भी अँग्रेज़ अफ़सर पर भारतीय क्रान्तिवीर के द्वारा किये गये हमले के बाद अँग्रेज़ सरकार काफ़ी चौकन्नी हो जाती थी और सक्रिय भी। किंग्जफोर्ड पर हुए हमले की कोशिश के बाद भी ऐसा ही हुआ।

इन क्रान्तिवीरों की कृति के पीछे कौन कौन है इसकी खोज करते हुए अँग्रेज़ अफ़सर ठेंठ पहुँच गये माणिकतला तक। बंगाल के क्रान्तिवीरों का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था-माणिकतला। यहीं पर बम बनाये जाते थे, शस्त्र-अस्त्र संग्रहित किये जाते थे। अँग्रेज़ अफ़सर जब तहकिक़ात करते हुए माणिकतला पहुँच गये, तब वहाँ की विस्फोटक सामग्री देखकर उसे उन्होंने जप्त कर लिया और फिर शुरू हो गया ग़िरफ्तारी का सिलसिला। माणिकतला फॅक्टरी से संबंधित लोगों को खोजकर उन्हें ग़िरफ़्तार किया जाने लगा।

अरविंद घोष, बारीन्द्र घोष, उलस्कार दत्त, उपेन्द्रनाथ बॅनर्जी, बिभूति भूषण रॉय, बिरेन्द्र सेन, सुधीर सरकार, इन्द्रा नन्दी, अविनाश भट्टाचार्य, हृषिकेश कांजीलाल, शैलेश बोस, शिशिर घोष, निरापद रॉय, सुशील सेन, प्रबाशचन्द्र देब और ऐसे कितने सारे नाम! लगभग ३५ से भी अधिक क्रान्तिकारियों को ग़िरफ्तार करके उनपर मुक़दमा दायर कर दिया गया।

१९०८ में शुरू हुए इस मुक़दमे को ‘अलिपुर बाँब केस’ या ‘माणिकतला कॉन्स्पिरसी केस’ कहा जाता है।

अँग्रेज़ों के द्वारा ग़िरफ्तार किये गये अधिकतर क्रान्तिकारी युगान्तर या अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्य थे।

इन ३५ से भी अधिक लोगों पर मुकदमा चला। अलिपुर के सेशन कोर्ट में मुकदमे की सुनवाई शुरू हो गयी। मई १९०८ से लेकर मई १९०९ तक की एक साल की अवधि में इस मुक़दमे का काम चलता रहा और मुक़दमे के फैसले का दिन आ गया।

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