परमहंस-४४

‘तुम लोग नाहक समय जाया कर रहे हो। मेरी नियत पत्नी, जयरामबटी गाँव में रामचंद्र मुखोपाध्यायजी के घर में मेरी राह देख रही है….!’ इस रामकृष्णजी के कथन से घर में एक ही सनसनी मच गयी।

‘ये क्या यह ‘पागलों जैसी’ बातें कर रहा है? एक तो इसी के ऐसे बर्दाव के कारण इसे कोई भी अपनी बेटी देने के लिए तैयार नहीं है। इतनी लड़कियाँ देखदेखकर थक गये, लेकिन कहीं पर भी सफलता नहीं मिली और अब यह कह रहा है….’ परिवारवाले ऐसा सोचते हुए, उसकी गिनती ‘पागलों में’ करते हुए आपस में यह टिप्पणी कर रहे थे।

लेकिन वे जान चुके थे कि फिलहाल तो इसकी यह बात सुनने के अलावा अपने पास और कोई चारा ही नहीं है!

आख़िरकार मँझला भाई रामेश्‍वर मजबूर होकर जयरामबटी के लिए रवाना हुआ। वह गाँव भी कामारपुकूर की तरह ही प्राकृतिक सुन्दरता से संपन्न होकर, उसी की तरह सीधेसाधे लोगों से भरा था। खोज करते करते रामेश्‍वर, रामकृष्णजी द्वारा बताये गये रामचंद्र मुखोपाध्यायजी के घर पहुँच गया।

रामचंद्र

वहाँ जाकर देखा तो क्या, मुखोपाध्यायजी की पाँच साल की बेटी शारदामणि मानो उसकी ही राह देख रही हो, इस तरह उसे दिखायी दी। वह मानो गदाई का ही बालरूप हों ऐसी रामेश्‍वर को प्रतीत हो रही थी – वैसी ही नटखट, मिलनसार, अपनी मीठी मीठी बातों से सामनेवाले का दिल जीत लेनेवाली। बाल खुले छोड़ी हुई, तांबड्या किनारवाली सफेद साड़ी पहनी हुई, माथे पर से पल्लू ली हुई ऐसी यह शालीन आचरण होनेवाली शारदामणि रामकृष्णजी के परिवारवालों को उसी समय बतौर बहू पसन्द आयी।

सारीं बातें तय हो गयीं। रामेश्‍वर को लड़कीवालों को तीनसौ रुपयों का दहेज देना पड़नेवाला था। यह रिश्ता मुखोपाध्यायजी को मंज़ूर हो गया और एक शुभमुहुरत देखकर तेईस वर्षीय रामकृष्णजी का विवाह, पाँच साल की शारदामणि के साथ एक सादगीभरे समारोह में संपन्न हो गया। आज के ज़माने में शायद यह थोड़ा विपरित प्रतीत हो सकता है, लेकिन यदि उस दौर का विचार करें, तो उस १९वीं सदी के रीतिरिवाज़ों के अनुसार उन दोनों की उम्र में होनेवाले इस अठारह साल का फर्क़ पर किसी को भी ऐतराज़ नहीं था।

मुख्य बात यानी रामकृष्णजी की माँ को – चंद्रादेवी को जिसका डर था अर्थात् गदाधर यह शादी सुचारु रूप से संपन्न होने देगा कि नहीं; वैसा कुछ भी न होते हुए, उल्टा रामकृष्णजी ने इस विवाह की विधियों में भी तहे दिल से भाग लिया था और चंद्रादेवी के मन पर का एक बड़ा ही बोझ उतर गया था।

शादी के बाद कुछ दिन शारदामणि रामकृष्णजी के घर ही रही। अपनी बेटी की तरह ही उससे लाड़-प्यार से पेश आनेवाली चंद्रादेवी धीरे धीरे उसपर गृहकृत्यों के संस्कार भी कर रही रही थी। रामकृष्णजी भी, जैसे किसी छोटी बच्ची को सँभालते हैं, वैसे उसे फूल की तरह सँभाल रहे थे।

अर्थात् उस ज़माने के रीतिरिवाजों के अनुसार इतनी छोटी उम्र में हालाँकि बच्चियों की शादी करा दी जाती थी, मग़र फिर भी ऐसी छोटी बहुएँ शादी के बाद भी, बड़ी होने तक प्रायः अपने माँ-बाप के घर ही रहती थीं और गृहस्थी सँभाल सकने जितनी जब वे बड़ी हो जाती थीं, तब ही उन्हें समारोहपूर्वक ससुराल भेजा जाता था।

ऐसे किसी तितली की तरह दिन उड़े जा रहे थे। चंद्रादेवी खुशी से फूले नहीं समा रही थी। लेकिन इस खुशी पर एक धब्बा लग ही गया। वह हुआ यूँ – घर में अत्यधिक गरिबी होने के कारण शादी के समय वधू को पहनाने के लिए चंद्रादेवी के पास गहने वगैरा तो कुछ थे नहीं। इस कारण वह, रामकृष्णजी के परिवार का बहुत ही आदर करनेवाले गाँव के ज़मीनदार लाहाबाबू से थोड़े दिनों के लिए गहनें ले आयी थी। अब कुछ दिन बाद, तय कियेनुसार वे गहनें लौटाने का समय आया। लेकिन छोटीसी शारदामणि को वे गहने बहुत ही भाये थे और उन्हें वह सदा पहनकर ही रहती थी, इतना वह उन्हें दिलो जान से चाहती थी। ज़ाहिर था, वह स्वयं होकर वे गहनें वापस करनेवाली नहीं थी। लेकिन ज़बरदस्ती से व गहनें छीनकर उसका दिल तोड़ने का चंद्रादेवी का मन नहीं कर रहा था। अब क्या किया जाये, यह बहुत ही पेचींदा सवाल उसके सामने खड़ा था।

उसे रामकृष्णजी ने ही सुलझाया। रात को जब शारदामणि गहरी नींद में थी, तब उन्होंने वे गहने हल्के से निकालकर अपनी माँ को दे दिये। चंद्रादेवी की जान में जान आ गयी और उसने वे गहने जिनके थे, उन्हें वापस लौटा दिये।

सुबह उठने के बाद, अपने प्रिय गहनें दिखायी नहीं दे रहे हैं इस कारण शारदामणि रोने लगी। तब रामकृष्णजी और चंद्रादेवी ने हल्के से उसे समझाबुझाया। ‘गदाधर इससे भी अच्छे गहने तुम्हारे लिये बनवा लेगा’ ऐसा समझाने पर मुरझी हुई कली फिर से खिल गयी। लेकिन उसी समय उससे मिलने आये उसके चाचाजी को यह सबकुछ पता चल गया और यह बात उन्हें रास न आकर वे गुस्से में उसे पुनः मायके ले गये।

अपनी वजह से बेटे की गृहस्थी में यह कैसा विघ्न आया, यह सोचकर चंद्रादेवी रोने लगी; तब रामकृष्णजी ने ही मुस्कुराते हुए अपनी माँ को समझाया और ‘यह शादी टूटना असंभव है’ ऐसा उसे आश्‍वस्त किया!

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