गुरुजी का प्रेम

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग २७

pg 12-golwalkar1सन १९६५ के युद्ध के बाद प्रधानमंत्री लालबहाद्दूर शास्त्रीजी का निधन हो गया| यह बहुत ही दुखदायी घटना थी| इस युद्ध में जीती हुई भूमि पाक़िस्तान को लौटाने की ग़लती शास्त्रीजी ने की थी| राजनीति के मोरचे पर हुए इस पराभव के अपवाद को यदि बाजू में रखें, तो शास्त्रीजी ने अपने चन्द कुछ महीनों के कार्यकाल में देश के लिए बहुत कुछ कर दिखाया था| आज हमें शायद पता नहीं होगा, लेकिन किसी ज़माने में कश्मीर का अलग प्रधानमंत्री, अलग ध्वज और अलग राष्ट्रगीत भी थे| प्रधानमंत्रीपद पर विराजमान होते ही शास्त्रीजी ने वह सबकुछ ख़ारिज़ कर दिया था| सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक रहनेवाले क़दम उठाकर, आधुनिक शस्त्र-अस्त्रों की ख़रीदारी करने का फ़ैसला शास्त्रीजी ने किया था| उसी समय, खाद्यान्न के क्षेत्र में देश आत्मनिर्भर होना चाहिए और यह होने के लिए देश का क़िसान समर्थ होना चाहिए, यह शास्त्रीजी जान गये थे| ‘जय जवान, जय किसान’ यह घोषणा करनेवाले शास्त्रीजी, दूरदर्शिता प्राप्त रहनेवाले प्रधानमंत्री थे|

उनके सीधे-सादे रहनसहन और निष्कलंक चरित्र का जनमानस पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा था| खाद्यान्न की बचत करने के लिए, शास्त्रीजी ने हर सोमवार को रात का भोजन न करने का संदेश जनता को दिया था और सभी लोग उसका पालन भी करते थे| इससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि जनता के दिल में शास्त्रीजी के प्रति कितने सम्मान की भावना थी| छोटे कदवाला यह नेता कर्तृत्व से गगनस्पर्शी था| उनकी मृत्यु से गुरुजी को भी बड़ा दुख हुआ| शास्त्रीजी की पत्नी ललितादेवी से भेंट कर गुरुजी ने अपनी संवेदनाएँ प्रकट की थीं|

सन १९६५ के इस युद्ध के बाद गुरुजी ने देशभ्रमण शुरू किया| देश के हर एक प्रान्त में गुरुजी का प्रवास होने लगा| इस युद्ध में अपना बेटा, पति, भाई, पिता गँवानेवालों से श्रीगुरुजी जा मिले| ‘अपने अपने क्षेत्र में रहनेवाले, इस युद्ध में शहीद हो चुके जवानों के परिवारों की जानकारी इकट्ठा कीजिए, उनसे मिलकर उनकी सांत्वना कीजिए| मुख्य रूप से ‘हम आपके साथ हैं’ यह बात इन परिवारों को जताइए’ ऐसे आदेश गुरुजी ने संघ की शाखाओं को दिये थे| स्वयंसेवक उन आदेशों का पालन करते थे| प्रवास के दौरान गुरुजी भी, जहॉं जहॉं संभव था वहॉं जाकर शहीदों के परिवारों से मिले| संघ के स्वयंसेवक भी सेना में भर्ती हुए थे| उनमें से कुछ लोग भी सन १९६५ के युद्ध में शहीद हुए थे
|संघ के साथ जोड़े गये हर एक को गुरुजी ‘अपने’ प्रतीत होते थे| ‘गुरुजी हमारे घर पधारें’ ऐसी हर एक की इच्छा रहती थी| गुरुजी भी स्वयंसेवकों के घर को अपना ही घर मानते थे| हर एक स्वयंसेवक का घर यानी संघ का कार्यालय ही है, ऐसी गुरुजी की धारणा थी| गुरुजी के दक्षिणी भारत के प्रवास के दौरान, कर्नाटक के एक गॉंव में हुआ एक वाक़या बताये बग़ैर मुझसे नहीं रहा जाता|

कर्नाटक के एक छोटे से गॉंव का एक स्वयंसेवक हर रोज़ शाखा में जाया करता था| अपनी मॉं को गुरुजी के बारे में बताया करता था| मॉं को बहुत ज़्यादा जानकारी तो नहीं थी| लेकिन ‘जिनके बारे में तुम इतना बताते हो, उन्हें कभी घर ले आओ’ ऐसा उस माता ने अपने बेटे से कहा| ‘गुरुजी जल्द ही यहॉं पधारनेवाले हैं’ ऐसी जानकारी इस स्वयंसेवक को मिली थी| उसने गुरुजी को अपने घर आने का निमंत्रण देने का तय किया| दरअसल इस स्वयंसेवक के हालात एकदम ही साधारण थे| ‘मेरे साधारण-से घर में गुरुजी भला कैसे आ सकते हैं’ यह प्रश्‍न इस स्वयंसेवक के मन में नहीं उठा, यह बात ग़ौरतलब है|

गुरुजी को इस स्वयंसेवक ने अपने घर आने का निमंत्रण दिया| गुरुजी ने इस निमंत्रण का स्वीकार किया और वे इस स्वयंसेवक के घर पधारे| स्वयंसेवक का यह घर यानी सीधा-सादा झोंपड़ा ही था| गुरुजी अन्य स्वयंसेवकों के साथ घर पधारे, इस बात से उस मॉं को बहुत ही आनंद हुआ| उसने गुरुजी को चाय लेने का आग्रह किया| चाय तैयार तो हो गयी, लेकिन चाय छानी कैसे जायेगी? घर में छाननी तो नहीं थी| उस मॉं ने अपने आँचल से चाय छानी और गुरुजी तथा स्वयंसेवकों को दे दी| वह देखकर साथ आये एक स्वयंसेवक ने ‘मैं चाय नहीं पीता’ ऐसा झूठमूट से कह दिया| दूसरा कुछ बोला नहीं, लेकिन उसे भी चाय नहीं चाहिए थी| लेकिन गुरुजी ने डॉंटकर कहा कि सबको चाय पीनी ही पड़ेगी|

गुरुजी ने चाय पी ली और प्रेमपूर्वक हालचाल पूछकर उन्होंने उस घर से विदा ली| साथ आये हुए स्वयंसेवकों को, ‘कब हम यहॉं से निकलते हैं’ ऐसा हुआ था| बाहर आते ही एक ने उल्टी की| मैले हुए आँचल से छानी हुई चाय वह अपने पेट में नहीं रखना चाहता था| लेकिन गुरुजी ने उस स्वयंसेवक से कहा, ‘तुम्हें केवल वह मैला हुआ आँचल दिखायी दिया, लेकिन क्या उस माता का प्रेम नहीं दिखा? वही चाय मैंने भी पी ना? फिर मुझे कैसे कुछ नहीं हुआ? क्योंकि मैल चाय में नहीं, तुम्हारे मन में है|’ यह सीख देकर गुरुजी ने उस स्वयंसेवक के मन का मैल साफ़ कर दिया|

जो कोई संघ के लिए कार्य करते हैं, उन्हें यह सीख मिलती ही है| समाज में कार्य करते समय, ‘मुझे यही बातें चाहिए’ ऐसा आग्रह नहीं रख सकते| हर एक को प्रेम से जोड़ना और उसके लिए हर एक की भावना का सम्मान करते रहना, इसे स्वयंसेवक अपना कर्तव्य मानते हैं| अमीर-ग़रीब, बड़ा-छोटा ऐसे भेदभावों को संघ नहीं मानता| गुरुजी ने यह सबकुछ अपने आचरण से स्वयंसेवकों के मन पर अंकित किया|
संघ के पास संघटनकुशलता है, इस बात से संघ के विरोधक भी सहमत रहते हैं; दरअसल संघटनकुशलता के बलबूते पर संघ काफ़ी कुछ कर सकता है, यह बात वे व्यंगोक्तिपूर्ण स्वर में बोलते रहते हैं| लेकिन यह संघटनकुशलता संघ ने दॉंवपेंच के तौर पर विकसित नहीं की है| बल्कि उसके पीछे, सारे समाज के प्रति स्वयंसेवकों को प्रतीत होनेवाला प्रेम और आत्मीयता है, यह बात समझ लेनी चाहिए| स्वयंसेवक केवल दूसरे स्वयंसेवक के साथ ही नहीं, बल्कि हर एक के साथ बात करते समय आत्मीयता दर्शाते हैं और वह नाटक न होकर, उसमें सच्चाई रहती है|

गुरुजी अनुशासन को बहुत ही अहमियत देते थे| स्वयंसेवक को हर दिन शाखा में जाना ही होगा, ऐसा गुरुजी का आग्रह रहता था| शाखा में आने के बाद बौद्धिक को ध्यान देकर सुनना, यह भी स्वयंसेवकों के संस्कार का ही भाग होता है, ऐसा गुरुजी कहते थे| एक बार जब गुरुजी का बौद्धिक शुरू था, उस समय, एक स्वयंसेवक का अपने बौद्धिक में ध्यान नहीं है, यह बात गुरुजी की तीक्ष्ण नज़र से नहीं छिपी| लेकिन उन्होंने बौद्धिक जारी ही रखा| वह स्वयंसेवक गुरुजी की तसवीर बना रहा था| स्वाभाविक रूप से, बौद्धिक की ओर उसका ध्यान था ही नहीं| जैसे ही बौद्धिक ख़त्म हुआ, वैसे तसवीर भी तैयार हुई और उस तसवीर को उस स्वयंसेवक ने अधिकारी के हाथ सौंप दिया| उसे उसपर गुरुजी के हस्ताक्षर चाहिए थे| तसवीर को देखकर गुरुजी ने उस स्वयंसेवक को पास बुला लिया|

‘मेरे बताये बौद्धिक में से तुम्हारे ध्यान में कुछ रहा भी है?’ गुरुजी ने सवाल पूछा| ‘नहीं गुरुजी, मैं आपकी तसवीर बना रहा था|’ स्वयंसेवक ने जवाब दिया| ‘तुमने बनायी हुई तसवीर बहुत ही सुन्दर है’ गुरुजी ने प्रशंसा की| ‘लेकिन इस तसवीर को बनाने का समय ग़लत था| यदि तुम्हें तसवीर ही बनानी थी, तो तो फिर मैं तुम्हें वही काम सौंपता| लेकिन तुमने बौद्धिक के शुरू रहते समय यह काम किया| तसवीर तो बाद में भी बनायी जा सकती थी| लेकिन बौद्धिक की ओर ध्यान न देते हुए तुमने तसवीर बनायी, उसके लिये जो समय चुना, वह ग़लत है| बौद्धिक की अहमियत स्वयंसेवकों की समझ में आनी ही चाहिए’ ये गुरुजी के उद्गार सुनकर स्वयंसेवक शरमिंदा हो गया| ‘गुरुजी, मुझसे ग़लती हो गयी, आहिंदा ऐसा नहीं होगा’ ऐसा इस स्वयंसेवक ने कहा|

गुरुजी की याददाश भी अद्भुत थी| एक बार मिल चुके स्वयंसेवक को वे चाहे कितने भी सालों के बाद फिर से मिलें, तो भी नामसहित पहचान जाते थे| इससे बहुत लोग अचंभित हो जाते थे| इतना ही नहीं, बल्कि गुरुजी स्वयंसेवकों की भावनाओं की भी काफ़ी इज़्ज़त सम्मान करते थे| एक बार वे अजमेर से इंदौर जाने के लिए निकले थे| बीच रास्ते में रतलाम् स्टेशन था और यहॉं गाड़ी दो घंटे रुकनेवाली थी| रतलाम् के स्वयंसेवकों ने इन दो घँटों का पूरा इस्तेमाल करने का तय किया और स्टेशन पर ही गुरुजी का कार्यक्रम आयोजित किया| स्वयंसेवकों के साथ गुरुजी की बातचीत और उसके बाद भोजन ऐसा कार्यक्रम तय किया गया था| लेकिन गाड़ी देरी से रतलाम् पहुँची| इस कारण गाड़ी यहॉं से जल्दी निकलनेवाली थी| ‘अब भोजन के लिए समय नहीं बचा है, अतः मैं केवल स्वयंसेवकों के साथ बातचीत करूँगा’ ऐसा गुरुजी ने कह दिया| गुरुजी के लिए ‘गोपाळराव’ नामक स्वयंसेवक भोजन लेकर आये थे| उन्होंने खुद अपने हाथों से खाना बनाया था| ‘हमारे यहॉं आकर गुरुजी भूखे वापस जा रहे हैं’, इस बात का गोपाळराव को बड़ा दुख हुआ| उनकी आँखों से आँसू बहने लगे| अन्य स्वयंसेवकों को भी बुरा लग रहा था|

वह देखकर गुरुजी ने उन्हें आश्‍वासन दिया, ‘‘मैं सबसे पहले स्वयंसेवक हूँ| तुम्हारे मन की बात मैं नहीं जानूँगा ऐसा हो ही नहीं सकता| वापसी प्रवास में मैं रतलाम आऊँगा और गोपाळराव के घर खाना खाऊँगा’ ऐसा गुरुजी ने कह दिया| वह सुनकर गोपाळराव बहुत ही खुश हुए| दरअसल गुरुजी रात को खाना नहीं खाते थे| मग़र स्वयंसेवकों का मन रखने के लिए गुरुजी ने गोपाळराव के घर भोजन के लिए आने की तैयारी दर्शायी|

नागपूर के ‘हेडगेवार भवन’ में ‘मंगलप्रसाद’ नामक आचारी थे| उनके भाई का देहांत हो गया| यह ख़बर सुनते ही ‘मंगलप्रसाद’ अपने घर गये| घर पहुँचने के बाद मंगलप्रसाद को गुरुजी का सांत्वनापत्र मिला| ‘प्रिय मित्र मंगलप्रसाद…’ यह गुरुजी के द्वारा लिखे गये पत्र की पहली पंक्ति पढ़कर मंगलप्रसाद से आँसू नहीं रोके गये| भाई की मृत्यु के बाद भी मंगलप्रसाद रोये नहीं थे, धीरोदात्त अंतःकरण के साथ उन्होंने इस दुख का सामना किया था| लेकिन गुरुजी के द्वारा ‘मेरे जैसे ‘स्वयंसेवक’ का ‘प्रिय मित्र’ इस तरह किया गया निर्देश’ मंगलप्रसाद को गद्गद कर गया| वापस लौटने पर मंगलप्रसाद ने गुरुजी के पत्र की बात सबको बतायी|

इस तरह गुरुजी अपने प्रेम से सबको जीत लेते थे|

(क्रमश:)

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