ईश्वरीय संकेत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग १६

sanket1सन १९३५  में वक़ालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद, घर में माधवराव के विवाह की चर्चा शुरू हो गयी। माता-पिता अ़क्सर उनके पास इस विषय का ज़िक्र करते थे, लेकिन माधवराव, बिना किसी प्रकार का विरोध किये, शांतिपूर्वक उनकी बातें सुना करते थे। ‘वे इस विषय पर कुछ भी बोल नहीं रहे हैं, उनके दिमाग में कुछ अलग ही चल रहा हैं’ यह बात माता-पिता के ध्यान में आयी। उन्होंने इस विषय पर अपने माधव से स्पष्ट रूप में पूछा – ‘यदि तुमने शादी नहीं की, गृहस्थी नहीं बसायी, तो ‘गोळवलकर’ वंश समाप्त हो जायेगा।’  इसपर माधवराव ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, ‘मुझे ‘गोळवलकर’ वंश की चिंता नहीं है, मुझे पूरे राष्ट्र की चिंता है।’ उनका यह उत्तर सुनकर माता-पिता पर तो मानो बिजली ही टूट पड़ी। माधव उनकी एकमात्र जीवित संतान थे। उसके द्वारा ही इस प्रकार की भाषा बोले जाने के बाद उनकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर वे क्या करें। परंतु माधवराव अपनी ‘ना’ पर अटल थे।

बचपन से ही माधवराव आध्यात्मिक प्रवृत्ती के थे। संन्यास के प्रति उनके मन में बहुत आकर्षण था। यह आकर्षण युवावस्था में भी बरक़रार था। मग़र संन्यास के विचारों के साथ साथ, उनसे अपने राष्ट्र की और हिंदु समाज की दुर्दशा देखी नहीं जा रही थी। उन्हें मन:पूर्वक ऐसा लगता था कि इसके लिए उन्हें कुछ ना कुछ करना चाहिये। यह द्वंद्व माधवराव के मन में चल रहा था। इसके कारण उनका मन बेचैन रहा करता था। अध्यात्म की अंगभूत प्रेरणा उन्हें चैन से बै़ठने नहीं दे रही थी। इसी दौरान माधवराव नागपुर के रामकृष्ण आश्रम के प्रमुख स्वामी भास्करेश्‍वरानंद के पास जाने लगे। इस आश्रम के अमिताभ महाराज से उनकी मित्रता हो गयी। रामकृष्ण परमहंस के शिष्य और स्वामी विवेकानंदजी के गुरुबंधु स्वामी अखंडानंदजी का आश्रम बंगाल के सारागाछी में हैं, ऐसी जानकारी माधवराव को अमिताभ महाराज से प्राप्त हुयी।

सन १९३६ में माधवराव, बिना किसी को बताये, अपने सदगुरु की खोज में सारागाछी पहुँच गये। माधवराव के अचानक इस तरह, बिना किसी को बताये, चले जाने से उनके माता-पिता चिंतित हो गये। गोळवलकर परिवार से परिचित रहनेवाले डॉक्टर हेडगेवार को भी पता चल गया था कि माधवराव, बिना किसी को बताये, चले गये हैं। सारागाछी पहुँचने के बाद माधवराव ने, यह जानकर कि माता-पिता चिंतित होंगे, उन्हें अपनी ख़ुशहाली का पत्र भेजा। ‘वे कहाँ पर हैं और क्या कर रहे हैं’ इसकी भी जानकारी दी। सारागाछी के इस आश्रम में माधवराव के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम सामने आये। स्वामी अखंडानंद वयोवृद्ध थे। उनकी तबियत भी ख़राब हो चुकी थी। माधवराव ने उसकी दिनरात सेवा की। उनकी सेवा में ही अपने आपको समर्पित कर दिया। जब अखंडानंदजी का स्वास्थ्य बिगड़ जाता था, तब माधवराव रातभर जागकर उनकी देखभाल किया करते थे।

‘मुझे संन्यास की दीक्षा दे दो’ ऐसा आग्रह माधवराव अखंडानंदजी से बार बार करते रहते थे। अखंडानंदजी ने उन्हें दीक्षा देने का तय किया। १३ जनवरी १९३७ को, मकरसंक्रान्ति के शुभमुहुर्त पर माधवराव को संन्यास की दीक्षा प्राप्त हुई। दीक्षा मिलने के बाद माधवराव भावविभोर हो गये। उन्होंने अखंडानंदजी से कहा, ‘अनगिनत जन्मों के बाद प्राप्त होनेवाला सद्भाग्य आज मुझे प्राप्त हुआ है। दीक्षा स्वीकार करने पर मेरा संपूर्ण शरीर रोमांचित हो उठा है।’ संन्यास स्वीकार करने के बाद अपने व्यक्तित्व में आमूलाग्र परिवर्तन हुआ होने का एहसास माधवराव को हुआ। स्वामी अखंडानंदजी ने माधवराव को आशीर्वाद देते हुए कहा, ‘मुझमें जो कुछ अच्छा है, वह मैं तुम्हें दे रहा हूँ और तुममें जो कुछ भी बुरा है, वह तुम मुझे दे दो।’ इसी दिन स्वामी अखंडानंदजी ने माधवराव और अमिताभ महाराज को अपने पास बिठाकर रात के साढ़ेतीन बजे तक आध्यात्मिक रहस्यों को उजागर किया।

‘अब भविष्य में मेरे जीवन की अन्य कोई दिशा नहीं है’ ऐसा निश्‍चय माधवराव ने कर लिया था। लेकिन अमिताभ महाराज से बातचीत करते समय स्वामी अखंडानंदजी ने कुछ अलग ही भविष्यवाणी की – ‘माधव यहाँ पर नहीं, बल्कि डॉक्टर हेडगेवार के साथ काम करेगा।’ कुछ ही दिन बाद माधवराव को माँ का पत्र मिला। ‘मेरी तबियत ठीक नहीं हैं, मैं तुम्हें एक बार देखना चाहती हूँ।’ ऐसा माँ ने पत्र में लिखा था। इस पत्र को पाने के बाद माधवराव दुविधा में पड़ गये। ‘मैंने संन्यास की दीक्षा ली है और माँ की तबियत बिगड़ गयी है। अब क्या करूँ?’ तब माधवराव मार्गदर्शन के लिए स्वामी अखंडानंदजी के पास आये। इससे पहले कि माधवराव कुछ भी कहें, अखंडानंदजी ने स्वयं ही कहा, ‘माँ का पत्र आया है ना! तुम्हें वहाँ जाना ही चाहिए।’ माधवराव नागपुर आ गये। सन १९३७ के फ़रवरी माह में स्वामी अखंडानंदजी ने इहलोक की अपनी यात्रा समाप्त कर दी।

घर पहुँचने पर माँ ने ही माधवराव का स्वागत किया। उनकी तबियत ठीक देखकर माधवराव हैरान हुए। उन्होंने माँ से इसके बारे में पूछा। तब माँ ने कहा, ‘तुम ही मेरे डॉक्टर और तुम ही मेरी दवा हो। तुम आ रहे हो, यह जानकर ही मेरी तबियत ठीक हो गयी।’ नागपुर आने के बाद माधवराव की मुलाक़ात डॉक्टर हेडगेवार से हुई। ‘तुम अब आ गये हो ना, तो मेरे सिर पर का बड़ा बोझ उतर गया है’ ऐसे सूचक उद्गार डॉक्टरसाहब ने कहे। उनका अर्थ उस समय माधवराव की समझ में नहीं आया था। सन १९३७ में संघ की स्थापना के बाद एक तप (१२ वर्ष) का समय बीत चुका था। संघकार्य का विस्तार होने लगा था। परन्तु डॉक्टरसाहब की तबियत भी बिगड़ती जा रही थी।

मैं अपनी ज़िम्मेदारी किसे सौंपू, इसका विचार डॉक्टरसाहब कर रहे थे। इसीलिए ‘माधवराव का नागपुर आकर मुझसे मिलना एक ईश्‍वरी संकेत है’ ऐसा डॉक्टरसाहब को लग रहा था। अत: डॉक्टरसाहब का गुरुजी पर ध्यान केन्द्रित होना बिलकुल स्वाभाविक बात ही थी। नागपुर के पास के ‘शिंदी’ नामक गाँव में, सन १९३९ में, प्रमुख सहकारी कार्यकर्ता – संघ की कार्यपद्धति की रूपरेखा, कार्य की प्रगति, आज्ञा, प्रार्थना इत्यादि विषयों पर लगातार आठ दिन तक चर्चा एवं विचारविमर्श कर रहे थे। एक विषय पर चर्चा हो जाने के बाद, डॉक्टरसाहब उसपर अपना निर्णय बता रहे थे और वही सर्वमान्य होता था। इस अवसर पर गुरुजी हर एक विषय पर अपने गहन विचार व्यक्त कर रहे थे। यह सब देखकर डॉक्टरसाहब का गुरुजी पर रहनेवाला विश्‍वास और अधिक दृढ़ हो गया। गुरुजी का आत्मसंयम और उनकी डॉक्टरसाहब के प्रति रहनेवाली संपूर्ण समर्पण की भावना सभी पर प्रभाव ड़ालने लगी। इसके कारण ही ‘डॉक्टरसाहब के उत्तराधिकारी के रूप में गुरुजी समर्थ हैं’ इस बात पर सभी को विश्‍वास होने लगा था। सन १९३९ में श्रीगुरुजी को संघ के ‘सरकार्यवाह’ के रूप में नियुक्त कर दिया गया।

सन १९४० में नागपुर में आयोजित किये गए तृतीय ‘संघशिक्षा वर्ग’ में, डॉक्टरसाहब की तबियत ख़राब होने के कारण, वे केवल कुछ शब्द ही बोल सके। मग़र उनके ये शब्द स्वयंसेवकों के लिए चिरकाल तक प्रेरणादायी साबित होंगे। ‘आज मैं अपने सामने हिंदुराष्ट्र की छोटी सी प्रतिमा देख रहा हूँ। मुझे आपसे इतना ही कहना है कि आप संघकार्य को ही अपने जीवन का प्रमुख कार्य मानो। ‘मैं स्वयंसेवक था’ ऐसा कहने का दुर्भाग्यपूर्ण समय हमारे जीवन में कभी नहीं आना चाहिए।’

जब डॉक्टरसाहब की तबियत बिगड़ती जा रही थी, तभी गुरुजी को उन्होंने अपने पास बुलाया और कहा, ‘अब तुम ही संघकार्य को संभालो’; और डॉक्टरसाहब अपना जर्जर शरीर त्यागकर २१ जून १९४० को अनंतत्व में विलीन हो गये। डॉक्टरसाहब की अंतिम क्रिया होने के बाद संघ के कार्यालय में आने पर, डॉक्टरसाहब द्वारा लिखे गये पत्र को सबके सामने पढ़ा गया। ‘मेरे पश्‍चात् गुरुजी ‘सरसंघचालक’ के रूप में संघ की बागड़ोर सँभालेंगे’ ऐसा डॉक्टरसाहब ने इस पत्र में स्पष्ट रूप से लिख रखा था। इस समय गुरुजी की आयु मात्र ३५ वर्ष की थी।

-रमेशभाई मेहता

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