बाळ पर्व

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ४५

सन १९२५   में ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ की स्थापना हुई। सन १९२६  में वर्धा में और उसके बाद नागपुर में संघ की शाखाएँ शुरू हुईं। नागपुर की शाखा में बिलकुल शुरू से जो चार-पाँच बच्चे डॉक्टर हेडगेवारजी के साथ उपस्थित रहते थे, उनमें बाळ देवरस, माधव मुळ्ये, एकनाथ रानडे, केशव वकील इनका समावेश था। इनमें से मधुकर देवरस अर्थात् ‘बाळ’ यह बहुत ही होशियार एवं चुस्त लड़का था।

MadhukarDattatrayaवह बहुत ही संपन्न घर से आया हुआ था। इनके पिताजी दत्तात्रय देवरस पहले सरकारी नौकरी में थे।  उन्हें सभी ‘भैय्याजी’ इसी नाम से जानते थे। क़रारे स्वभाव के भैय्याजी को सरकारी नौकरी रास नहीं आयी। भैय्याजी को ‘भोसले’ राजघराने से बक्षिस के तौर पर बालाघाट में ज़मीन प्राप्त हुई थी। यहाँ के ‘ज़मीनदार’ के रूप में भैय्याजी विख्यात थे। बहुत ही क़रारे एवं अनुशासनप्रिय व्यक्तित्व के भैय्याजी की कुल नौं संतानें थीं – पाच बेटे और चार बेटियाँ। ‘बाळ’ यह उनकी आठवीं संतान थी।

बचपन से ही बाळ शिक्षा में और खेल में अग्रसर रहता था। बाळ की माँ का नाम था, पार्वतीबाई। माँ का भी बाळ विशेष लाड़ला था। शिक्षा के साथ साथ कबड्डी जैसे खेल में रहनेवाली महारत के कारण बाळ अच्छाख़ासा लोकप्रिय था। उसका कबड्डी का संघ हमेशा मॅचेस जीतता था। सबसे आगे रहकर स्कूली उपक्रमों में सहभाग लेना, क्रांतिकारियों के जीवन पर बातें करना ऐसी सारी बातें बाळ को अच्छी लगती थीं। हमारे देश को ग़ुलाम बनानेवाले अँग्रेज़ों को चुनचुनकर ख़त्म करना चाहिए, ऐसा बाळ को लगता था। अपने मित्रों से वह हमेशा, ‘हमें भी बम बनाकर अँग्रेज़ों को यहाँ से भगा देना चाहिए’ ऐसे कहते रहता था। संक्षेप में, संघ की स्थापना करनेवाले डॉक्टर हेडगेवारजी और बाळ देवरस इनकी बचपन की प्रवृत्ति एकसमान थी।

ऐसा यह बाळ डॉक्टर हेडगेवारजी के संपर्क में आया। नियमित रूप से संघ की शाखा में जाने लगा। उसके पीछे पीछे उसका छोटा भाई, जिसे सब ‘भाऊराव’ के नाम से ही जानते थे, वह भी संघ की शाखा में जाने लगा। माँ को बाळ का संघ की शाखा में जाना मंज़ूर था। आज शाखा में क्या क्या हुआ, उसके बारे में माँ हररोज़ बाळ और भाऊ से पूछती रहती थी। लेकिन बच्चों का शाखा में जाना भैय्याजी को पसंद नहीं था। इससे अच्छा वे शिक्षा पर अधिक ध्यान दें, अच्छे ओहदे की सरकारी नौकरी हासिल करें, ऐसा भैय्याजी को लग रहा था। डॉ. हेडगेवारजी अपने बच्चों को ख़ामख़ाँ बिग़ाड़ रहे हैं, ऐसा भैय्याजी को लगता था। इसी कारण बाळ और भाऊ जब शाखा से घर आते थे, तब – ‘ये लो! दूसरे हेडगेवार आ गये’ ऐसे तानों से भैय्याजी उनका ‘स्वागत’ करते थे।

बाळ और भाऊ के शाखा जाने पर हालाँकि भैय्याजी हमेशा नापसंदगी ज़ाहिर करते थे, फिर भी उन दोनों ने भी शाखा जाना नहीं छोड़ा। ‘बच्चे उत्तम शिक्षा अर्जित कर रहे हैं। शाखा में जाकर उनका कुछ नुकसान नहीं हो रहा है’ ऐसा माँ का कहना था। वह भैय्याजी को मानना ही पड़ा। लेकिन बच्चें यह सब करते रहे, तो उन्हें सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी, यह चिंता भैय्याजी को सता रही थी। लेकिन बाळ और भाऊ संघशाखा में तहे दिल से सहभाग ले रहे थे। एक बालमित्र जब कुछ दिन शाखा में नहीं आया, तब बाळ ने उसके घर जाकर उसकी पूछताछ की। इस दोस्त को कुछ आर्थिक अड़चन थी। बाळ ने उसकी यह समस्या हल कर उसे, ‘शाखा में आना छोड़ मत देना’ ऐसा मशवरा दिया। उनका यह दोस्त फिर से शाखा में नियमित रूप में आने लगा।

शाखा में उपस्थिति बढ़ने लगी। खुले मैदान में आयोजित शाखा देखकर अन्य बच्चें भी – ‘क्या हम शाखा में आ सकते हैं’ ऐसा पूछते थे। उनका भी शाखा में स्वागत होता था और इस प्रकार शाखा का विस्तार होने लगा, शाखाओं की संख्या भी बढ़ने लगी। इन शाखाओं में कबड्डी की प्रतियोगिता, वक्तृत्त्व प्रतियोगिता आयोजित की जाती थीं। इनमें बाळ सहभागी होता था। बाळ में रहनेवाले वक्तृत्त्वगुण यहाँ पर सबको दिखायी दिये। महापुरुषों के जीवन पर बाळ इस क़दर प्रभावी रूप में बोलने लगता था कि सभी लोग दंग रह जाते थे। इस दौरान ‘संघ शिक्षा वर्ग’ शुरू हुए थे। बाळ अपने दोस्तों के साथ इस वर्ग में सहभागी हो गया।

बाळ का मित्रपरिवार बढ़ रहा था। माँ बाळ को हमेशा उसके मित्रों के बारे में पूछती थी। उन सबको अपने घर ले आओ, ऐसा कहती थी। लेकिन बाळ के कई मित्र उस ज़माने की प्रथानुसार तथाकथित कनिष्ठ जाति के थे। लेकिन बाळ के जातपात के भेद कतई मंज़ूर नहीं थे। ‘मैं सभी मित्रों को घर बुलाता हूँ। लेकिन वे सभी मेरी तरह ही रसोईघर में आयेंगे और वहीं पर खाना खाने बैठेंगे। क्या यह तुम्हें रास आयेगा?’ ऐसा प्रश्‍न बाळ ने अपनी माँ से पूछा। ‘खाना खाने के बाद जिस तरह तुम मेरी थाली उठाती हो, उसी तरह क्या उनकी भी थाली उठाओगी’, ऐसा प्रश्‍न भी बाळ ने माँ से पूछा था। माँ ने वह मान्य करने के बाद बाळ अपने सभी मित्रों को घरी लेकर आया था। उसके बाद बाळ के ये मित्र हमेशा उसके घर आने लगे।

जैसे जैसे उम्र बढ़ती जा रही थी, वैसे वैसे बाळ को क्रांतिकारकों के प्रति रहनेवाला आकर्षण भी तेज़ी से बढ़ने लगा। क्रांतिकार्य में हिस्सा लेने के लिए वे कोशिशें करने लगे। डॉ. हेडगेवारजी की तीक्ष्ण नज़र को इस बात का एहसास हो गया। बाळ क्रांतिकार्य शुरू करने के लिए अपना खुद का गुट तैयार कर रहा है, यह जान लेने के बाद डॉक्टरसाहब ने बाळ को समझाया। ‘देश में कई लोग क्रांति के लिए कोशिशें कर रहे हैं। उसके लिए जानतोड़ प्रयास कर रहे हैं। लेकिन होता क्या है कि चन्द कुछ वर्षों में वे पकड़े जाते हैं। हमारे ही लोग पुलीस तक उनकी ख़बर पहुँचाते रहते हैं। उन्हें पकड़नेवाली पुलीस भी हमारी ही है। उन्हें सज़ा देनेवाले न्यायाधीश भी हममें से ही हैं। हमारी आज़ादी के लिए लड़नेवाले क्रांतिकारियों का घात करनेवाले और कोई नहीं, बल्कि हम खुद ही हैं। इतने निम्न स्तर तक हमारा समाज कैसे गिर गया, इसके बारे में हमें सोचना चाहिए। इसे यदि टालना हो, तो चारित्र्यसंपन्न समाज का गठन करना होगा। इसके लिए हम प्रयास कर रहे हैं’ यह बात डॉक्टरसाहब ने बाळ को समझायी। इसके बाद बाळ ने अपने आपको संघ के कार्य में पूरी तरह समर्पित कर दिया।

बाळ की पढ़ाई पूरी हुई। वे बी.ए., एल.एल.बी बन गये। लेकिन जैसा कि पिताजी चाहते थे, वैसे सरकारी नौकरी करने के लिए बाळ तैयार होना मुमक़िन ही नहीं था। वे डॉक्टरसाहब की तरह पूर्ण रूप से संघकार्य में समर्पित होना चाहते थे। संघ की ‘प्रचारक व्यवस्था’ शुरू हो चुकी थी। संघ के प्रचारक देश के विभिन्न प्रांतों में जाकर संघकार्य बढ़ाने लगे थे।

सन १९३९  में, बंगाल में हमारा कार्य शुरू होने जा रहा है, अतः तुम प्रचारक बनकर कलकत्ता (कोलकाता) जाओ, ऐसा आदेश डॉक्टर ने बाळ को दिया। बाळ तो तैयार था, लेकिन उसके लिए पिताजी की अनुमति प्राप्त होना असंभव था। बाळ ने माँ के साथ चर्चा की, बड़े भाई को भी यह बात बतायी। उन्हें बाळ की बात वाजिब लग रही थी, लेकिन शीघ्रकोपी रहनेवाले भैय्याजी से इस बारे में बात करेगा कौन? यह सवाल था। आख़िरकार बाळ ने स्वयं होकर इस ज़िम्मेदारी का स्वीकार किया।

एक दिन भैय्याजी की तबियत ठीक नहीं थी, इसलिए वे आराम कर रहे थे। दोपहर का समय था। बाळ पिताजी के पैर दबा रहा था। ‘अन्यथा तो मेरे इर्दगिर्द नज़र भी न आनेवाला बाळ आज मेरी सेवा कर रहा है’ यह देखकर भैय्याजी को बहुत अच्छा लगा। उन्हें नींद आने लगी। इस अवस्था में ही बाळ ने दबी आवाज़ में पिताजी से पूछा, ‘क्या मैं संघ के प्रचारक के तौर पर कलकत्ता जाऊँ?’ नींद में रहनेवाले पिताजी ने ‘हूं’ कहा। ‘आज शाम की गाड़ी है, मैं निकलता हूँ।’ इसपर भी भैय्याजी नींद में ‘हूं’ कह गये। ये शब्द सुनते ही बाळ ने धीरे धीरे पाँव दबाना बंद कर दिया। वहाँ से निकलकर वे माँ और बड़े भाई के पास आये और ‘पिताजी ने अनुमति दे दी है, अब मैं निकलता हूँ’ ऐसा उनसे कह दिया।

कपड़ों का एक सेट लेकर बाळ स्टेशन पर आया। वहाँ डॉक्टरसाहब बाळ की प्रतीक्षा कर रहे थे। उन्होंने कलकत्ता का टिकट और २०  रुपये बाळ को थमा दिये। साथ में एक पता भी दिया। डॉक्टर के परिचय का एक परिवार राजस्थान से कलकत्ता आकर स्थायिक हुआ था। यह पता उस परिवार का था। उससे अधिक बाळ को कुछ भी मालूम नहीं था। बाळ गाड़ी में बैठा। उसे खिड़की के पास की सीट मिली।

यहाँ पर भैय्याजी नींद से जाग गये। बाळ के बारे में पूछने लगे। ‘आप ही ने तो उसे कलकत्ता जाने की अनुमति दी’, ऐसा माँ द्वारा बताया जाने के बाद भैय्याजी के पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गयी। वे दौड़ते ही स्टेशन पहुँचे। खिड़की में बैठे बाळ को डॉक्टरसाहब प्लॅटङ्गॉर्म पर खड़े रहकर कुछ मार्गदर्शन कर रहे थे। भैय्याजी वहाँ पर पहुँचे और ज़ोरज़ोर से चिल्लाने लगे। ‘यह डॉक्टर मेरे बेटे को भगा ले जा रहा है’ ऐसा चिल्लाचिल्लाकर बोलनेवाले भैय्याजी के कारण यहाँ पर लोगों की भीड़ इकट्ठा होने लगी। अब क्या किया जाये, यह सवाल डॉक्टरसाहब के मन में भी उठा। लेकिन डॉक्टरसाहब हमेशा की तरह शांत रहे। बाळ ने डॉक्टरसाहब से चुपके से ‘आप यहाँ से निकल जाओ, आगे का मैं सँभालता हूँ’, ऐसा इशारे से बताया। भैय्याजी ग़ुस्से से बाळ को, ‘गाड़ी से नीचे उतरो’ ऐसा धमका रहे थे। बाळ मन ही मन, ‘हे भगवान! जल्द ही गाड़ी की सीटी बजने दो’ ऐसी प्रार्थना कर रहा था। भगवान ने बाळ की सुन ली और गाड़ी की सीटी बजी। गाड़ी प्लॅटङ्गॉर्म पर से निकली और

….सबकुछ पीछे छोड़कर बाळ मार्गस्थ हुआ।

(क्रमशः)

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