नेताजी-१८६

८ फरवरी १९४३ यह सुभाषबाबू का पूर्व की ओर प्रस्थान करने का दिन जैसे जैसे क़रीब आने लगा, वैसे वैसे उनकी तैयारियाँ भी ज़ोर-शोर से शुरू हो गयीं। इसी दौरान २३ जनवरी को उनका जन्मदिन उनके दोस्तों ने उन्हीं के बंगले में सादगी से मनाया। पिछला जन्मदिन उन्होंने अ़ङ्गगानिस्तान में खच्चर और ट्रक की सवारी करते हुए अकेले ही ‘मनाया’ था। इस बार एमिली के अलावा नंबियार, ट्रॉट, ताईजी, अबिद हसन, गणपुले, स्वामी, बालकृष्ण शर्मा आदि गिने-चुने क़रिबी दोस्त इस अवसर पर उपस्थित थे। सुभाषबाबू कुछ ही दिनों में यहाँ से लंबे स़फर पर रवाना होनेवाले हैं, इस बात की थोड़ीसी भी जानकारी एमिली और ट्रॉट के अलावा अन्य किसी को भी नहीं थी।

फिर २६ जनवरी को ‘इंडियन लीजन’ द्वारा भारत का ‘स्वतन्त्रता माँग दिवस’ धूमधाम से मनाया गया। लगभग ८०० मेहमान इस समारोह में शामिल हुए थे। उसके बाद बस दो ही दिनों में सुभाषबाबू ने  ‘इंडियन लीजन’ के सदस्यों की सभा आयोजित की। उस वक़्त किये हुए भाषण में सुभाषबाबू ने ‘अब मुझे शायद कुछे दिनों के लिए अ‍ॅनाबर्ग, पॅरिस, रोम, ट्रिपोली का स़फर करना पड़ेगा। हो सकता है कि लंबे समय तक हमारी मुलाक़ात न भी हो’ यह सूतोवाच कर दिया। लेकिन यह दौरे का स़फर बहुत ही प्रदीर्घ होगा, इस तरह का किसी भी प्रकार का सन्देह ‘इंडियन लीजन’ के सदस्यों को उनके भाषण से नहीं आया।

अब बाक़ी सबकुछ तो योजना के अनुसार हो ही चुका था कि यक़ायक़ जापानी नौदल के वरिष्ठ अधिकारी ने सुभाषबाबू के इस पनडुबी स़फर पर ऐतराज़ जताया। उस वक़्त के जापानी क़ानून के अनुसार युद्धकाल में आम नागरिक (‘सिव्हिलियन्स’) पनडुबी में से स़फर नहीं कर सकते थे। जब ट्रॉट ने जापानी अधिकारी से फोन पर बात की, तब वह आगबबूला हो गया। ‘किस बलबूते पर आप सुभाषचन्द्र बोस को ‘आम नागरिक’ क़रार कर रहे हैं? वे किसी भी मापदण्ड से आम नागरिक नहीं हैं, बल्कि वे तो सेना-अधिकारी ही हैं; ‘आज़ाद हिन्द सेना’ के सिपाहसालार हैं’ यह ट्रॉट ने निर्धारपूर्वक उनसे कहने पर ही उन्होंने इस आक्षेप को पीछे ले लिया और सुभाषबाबू का पनडुबी-स़फर का मार्ग सुकर बन गया।

प्रस्थान करने के कुछ दिन पूर्व सुभाषबाबू ने नंबियारजी पर भरोसा जताकर उन्हें अपनी अगली योजनाओं की जानकारी दे दी। मेरी ग़ैरमौजूदगी में भी ‘इंडियन लीजन’ का क़ामक़ाज इसी तरह करते रहिए, यह आदेश उन्हें दिये। सुभाषबाबू के बहुत ही विश्‍वसनीय रहनेवाले नंबियारजी एक कुशल प्रशासक हैं और इसीलिए वे इस ज़िम्मेदारी को भली-भाँति निभा सकते हैं, इसका सुभाषबाबू को यक़ीन था। नंबियारजी ने भी इस भरोसे को व्यर्थ जाने नहीं दिया और सुभाषबाबू की ग़ैरमौजूदगी में भी ‘इंडियन लीजन’ के क़ामक़ाज को कुशलतापूर्वक किया। उनके बर्लिन में न होने की किसी को भनक तक न लगे, इसलिए सुभाषबाबू ने अपनी आवाज़ में कुछ भाषण ध्वनिमुद्रित करके नंबियार के पास दिये थे और अगले कुछ दिनों तक उन्हें नित्यनियमित रूप में प्रसारित करते रहें, यह सूचना भी दे दी। हालात से अच्छी तरह वाक़िब रहनेवाले सुभाषबाबू ने क़रिबी भविष्यकाल में भारत एवं दुनिया की परिस्थिति में क्या क्या बदलाव हो सकते हैं, इसका अन्दाज़ा लगाकर स्थूलतः वे भाषण लिखे थे। अत एव उन्हें सुनते हुए वे कुछ दिन पूर्व ध्वनिमुद्रित किये भाषण हैं, यह शक़ भी किसी को नहीं होता!

सुभाषबाबू के साथ स़िर्ङ्ग एक ही व्यक्ति जा सकता था। सुभाषबाबू ने अबिद हसन को चुना था। लेकिन उसे कहाँ जाना है, कैसे जाना है इस सन्दर्भ में किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं दी गयी थी; बस ‘कील’ बन्दरगाह पर तुम्हें ठीक इस समय पहुँचना है, यह सन्देश उसे दिया गया था और सुभाषबाबू पर जान निछावर करनेवाले उस ईमानदार सिपाही ने भी कोई सवाल तक नहीं पूछा था। सुभाषबाबू के साथ कहीं जाना है, यही उसके लिए का़फी था।

अब दोन दिन बाद सुभाषबाबू रवाना होनेवाले थे। सामान बाँधना, कुछ रखना-कुछ निकालना यह चल ही रहा था। स़िर्ङ्ग स़फर के लिए आवश्यक रहनेवालीं चीज़ों को ही बॅग में भरने की सूचना सुभाषबाबू ने दी थी। लेकिन पत्नीसुलभ ममता के कारण एमिली ‘यह भी साथ में ले जाइए, हो सकता है कि शायद ज़रूरत पड़ जाये’ यह कहकर कई चीज़ें भरती रहती थीं और सुभाषबाबू पुनः बॅग से उन्हें निकालने के लिए कहते थे। आख़िर सामान भरकर हो गया। सबसे अहम बात यह थी कि यह स़फर कुछ ह़फ़्तों का रहने के कारण सुभाषबाबू ने सुसज्जित टाईपरायटर को भी अपने सामान में शामिल कर लिया था।

बस, अब सुभाषबाबू के रवाना होने में चन्द कुछ ही घण्टें बाक़ी थे। एमिली से विदा लेने की घड़ी क़रीब आती जा रही थी। दोनों भी एक-दूसरे से का़फी कुछ कहना चाहते थे, लेकिन लब्ज़ ही जैसे कहीं खो गये थे। कभी लब्ज़ों से, तो कभी नज़र से बातचीत हो ही रही थी। उतने में सुभाषबाबू के मन में एक विचार की बिजली कड़कड़ा उठी और एमिली के प्रति रहनेवाली लगन ने उनके दिल को चीर दिया।

‘यदि मेरे साथ कुछ भलाबुरा हो जाता है तो…?’

‘एमिली क्या करेगी? मेरी नन्हीं सी बेटी का क्या होगा?’

एक तो, उनके विवाह के बारे में का़फी कम लोग जानते थे। तो ऐसे इन हालातों में एमिली की फ़रियाद भला कौन सुनेगा?

उन्होंने फ़ौरन सोचविचार करके कागज़ और क़लम हाथ में लेकर शरदबाबू के लिए बंगाली में इस आशय की एक चिठ्ठी लिखी – ‘प्रिय मेजदा, मैं फ़िर एक बार ख़तरनाक स़फर पर रवाना हो रहा हूँ। भविष्य में क्या लिखा है, यह तो मैं नहीं जानता। लेकिन मान लीजिए कि यदि कुछ अनहोनी मेरे साथ हो भी जाती है, तो आपको यह जानकारी देना आवश्यक है, इस सोच से मैं यह चिठ्ठी लिख रहा हूँ। मैं यहाँ युरोप में विवाहबद्ध हुआ हूँ और हमारी एक बेटी भी है। जिस तरह आपने मुझे अपने बेटे की तरह प्यार दिया, उसी तरह का प्यार मेरे बाद आप अपनी भाभी और आपकी भतीजी को देंगे, इस बात पर मुझे पूरा विश्‍वास है – सुभाष।’

उस चिठ्ठी को मरते दम तक सँभालकर रखने का निर्देश उन्होंने एमिली को दिया

….और भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के सबसे देदिप्यमान रहनेवाले अध्यायों में से एक के रचयिता रहनेवाले उस निष्ठावान सिपाहसालार ने, दिल पर पत्थर रखकर अपनी प्रिय पत्नी से अलविदा कहकर, अपने अगले स़फर के लिए घर के बाहर क़दम खा….अज्ञात भविष्य की ओर!

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