मसानोबु फुकुओका (१९१३-२००८ )

मुंबई के बॉम्बे युनियन ऑफ जर्नलिस्ट के कार्यालय १९९६ में एक ८३  वर्ष के जपानी मनुष्य ने प्रवेश किया और उनके प्रवेश करते ही उपस्थितों ने तालियों की गडगडाहट के साथ उनका जोरदार स्वागत किया।

Fukuokaकोई भी प्रसिद्धि न होने के बावजूद भी भीतर प्रवेश करते ही इतना प्रेम, आदर एवं आस्था प्राप्त करनेवाले वे व्यक्ति थे, मशहूर जापानी निसर्ग विशेषज्ञ ‘मसानोबु फुकुओका ’।

आज जगभर में कृषि सबसिडी से संबंधित विभिन्न देशों में वादविवाद हो रहे है और खाद कंपनियाँ संशोधन पर करोड़ों रुपये खर्च कर रही हैं । ऐसी परिस्थिति में ‘किसी भी बाहरी चीज़ का उपयोग न करते हुए भी खेती कीजिए’ ऐसा कहने वाले मसानोबु फुकुओका  जैसे व्यक्तित्व कुछ अलग ही है।

दक्षिण जपान के शिकोकु बंदरगाह पर २ फरवरी १९१३ के दिन जन्म लेने वाले मसानोबु ने सूक्ष्मजीवशास्त्र में उपाधि प्राप्त कर ‘मृदा संशोधनकर्ता’ के रूप में एक प्रयोगशाला में काम करना शुरु कर दिया। एक किसान परिवार में जन्म लेनेवाले मसानोबु को जल्द ही इस बात का पता चल गया कि आधुनिक कृषिशास्त्र पर किया गया संशोधन अर्थहीन है, व्यर्थ है। रसायन एवं रासायनिक खाद के बढ़ते हुए उपयोग के प्रति उनके मन में अरूचि उत्पन्न हो गई। कुछ वर्ष यूँ ही बीत जाने पर आखिरकार उम्र के २५ वे वर्ष मसानोबु फुकुओका  ने संशोधक पद का इस्तीफ़ा दे दिया और अपने गाँव के कृषि व्यवसाय की ओर वापस लौटने का निश्‍चय कर लिया।

जापान के हजारों नौजवान उस समय आधुनिकता एवं औद्योगिक विकास की प्रगति के आकर्षण में शहरों की ओर खींचे चले जा रहे थे। इसी कारण मसानोबु फुकुओका  के द्वारा लिया गया कृषि व्यवसाय की ओर व्यक्तिगत ध्यान देने का फैसला  साहसपूर्ण था। उनका खानदानी पेशा कृषि का ही होने के कारण घर के लोगों का उन्हें पूरा सहयोग प्राप्त हुआ। कृषि के प्रति आधुनिक बदलाव के प्रति उनके मन में अरूचि उत्पन्न होने के कारण ही मसानोबु फुकुओका  ने नैसर्गिक पद्धति से कृषि व्यवसाय करने का निश्‍चय किया। आधुनिक कृषिशास्त्र रसायनों एवं खाद का उपयोग करके फसलो  का उत्पाद बढ़ाने का रास्ता दिखलाता है, परन्तु ये सारी बातें निसर्ग के विरुद्ध हैं, इस बात का अहसास फुकुओका  को हो चुका था। निसर्ग का संतुलन बनाये रखकर उसे ठेस पहुँचाये बिना, उनसे मित्रता बनाये रखकर फुकुओका  ने अपना कृषि व्यवसाय आरंभ कर दिया।

आरंभिक समय में धान एवं इसके पश्‍चात बार्ली एवं वनमेथी इस प्रकार की फसलो  का उत्पाद करना आरंभ कर दिया। धान की फसले तैयार होते ही, वनमेथी, बार्ली इनके बीज वे बोना आरंभ कर देते थे। धान की फसल काटते समय ये बीज पैरों तले आते थे। धान की बालियाँ खूंडकर उसके डंठल को पुन: खेत में फैला देते थे। इसके पश्‍चात् अपनी मुर्गियों, बतखों आदि को खेत में छोड़ देते थे। इन पक्षियों की विष्ठा अपने-आप ही मिट्टी में घुलमिल कर उससे खाद बन जाता था। इसी खाद के आधार पर वनमेथी एवं बार्ली की फसले सहज ही पनपने लगती थीं। आगे चलकर फुकुओका  ने अनेक वर्षों तक इन तीन फसलो  का चक्राकार सहजीवन सफलतापूर्वक संभाला। इस दौरान उन्होंने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि जमीन को योग्य समय पर पानी देना एवं योग्य समय पर उसे सूखी रखना। इस प्रकार को उन्होंने मजाक ही मजाक में ‘डू नथींग’ कृषि ऐसा नाम दिया था।

व्यावहारिक दृष्टिकोन से देखा जाये तो फुकुओका  की ‘डू नथिंग’ खेती काफी किफायतदार साबित हुई। खेती की ज़मीन, खेती करने का तरीका, खेती से प्राप्त उत्पादन एवं आस-पास के किसानों द्वारा किए गए उत्पादन को लिखित रूप में दर्ज कर लिया गया। कुछ वर्षों पश्‍चात् तुलना करने पर फुकुओका  के नैसर्गिक कृषि से प्राप्त उत्पादन एवं अन्य किसानों की उत्पादन क्षमता लगभग समान ही थी। आर्थिक दृष्टिकोन से देखा जाये तो फुकुओका  के उत्पादन हेतु होनेवाला खर्च लगभग नगण्य ही था। साथ ही मुर्गियाँ, बतखें एवं एक ही स्थान पर तीन-तीन फसलो  का उत्पादन एवं प्राप्त उत्पन्न भी अतिरिक्त ही था। रसायन एवं कृत्रिम खाद के उपयोग की अपेक्षा किसानों का हुनर एवं निसर्ग पर होनेवाला विश्‍वास अधिक फायदेमंद साबित हुआ। यह फुकुओका  ने उदाहरण के माध्यम से कर दिखाया था।

मसानोबु फुकुओका  का प्रयोग जापान में काफी लोकप्रिय हुआ। वैसे देखा जाय तो जापान यह एक अत्यन्त छोटा सा देश हैं। इसके साथ ही इसे कृषिप्रधान देश भी नहीं कहा जा सकता है। इसी कारण फुकुओका  के प्रयोग को वहाँ पर कोई विशेष स्थान न था। इस पर भी फुकुओका  की ख्याति देश की सीमा लाँघकर दुनियाभर में फ़ैल गई। रासायनिक खाद एवं कीटकनाशकों का दुष्परिणाम धीरे-धीरे जाननेवाले देशों में फुकुओका  का ‘डू नथिंग’ निसर्ग खेती का समर्थ विकल्प आदर्श बन गया। केवल आर्थिक दृष्टिकोन से उत्तम खेती पर ही फुकुओका  संतुष्ट नहीं रहे, बल्कि विविध देशों की ‘बीमार हो चुकी एवं खराब हो चुकी’ खेती की जमीनों को ठीक करने का कार्यभार भी उन्होंने संभाला।

एशिया, अफ्रीका , दक्षिण अमेरिका जैसे बड़े देशों से फुकुओका  को सरकार की ओर से विशेष तौर पर बुलाया जाने लगा। अपने निसर्ग खेती के अनुभवों पर आधारित उन्होंने ‘वन स्ट्रॉ रिव्होल्युशन’ नामक किताब भी लिखी। स्ट्रॉ का अर्थ है सूखी हुई घास-पूस की कांड़ी। निसर्ग के एक तुच्छ माने जाने वाले चीज़ से भी हरितक्रांति लाई जा सकती है, इस बात का ध्यान रखकर फुकुओका  ने सभी देशों से मुलाकात करते हुए स्थानिक निसर्ग का अध्ययन करके उसी के अनुसार अपने प्रयोग को कार्यक्षम किया।

दुनियाभर की अनेक ज़मीनों को संजीवनी प्रदान करने वाले मसानोबु फुकुओका  को १९८८  में समाजसेवा, शांति, उदयोन्मुख नेतृत्व इन क्षेत्रों में दिये जाने वाले एशिया के नोबल पुरस्कार के रूप में पहचाना जानेवाला प्रतिष्ठित ऐसे ‘मॅगसेसे’ पुरस्कार से गौरावान्वित किया गया। आज उम्र के ९३ वे वर्ष में भी फुकुओका  पूर्व उत्साह  के अनुसार ही दुनियाभर में निसर्ग खेती का प्रचार करने में व्यस्त हैं। दुनियाभर में वैज्ञानिक प्रगति तो हो ही रही है। परन्तु इसके साथ ही द्रुतगति के साथ निसर्ग को बर्बाद भी किया जा रहा है, उसे नष्ट करने का दुष्कृत्य भी हमारे ही हाथों हो रहा है। इस बात का हमें अहसास भी नहीं हैं। मसानोबु फुकुओका  के समान ‘क्रांतिकारी’ समय को परवाह किए बगैर निसर्ग को बचाने के लिए एकाकी संघर्ष कर रहे हैं।

भारत के समान कृषि प्रधान देश में वर्षभर में सैकड़ों किसान आत्महत्या कर रहे हैं। इस आत्महत्या का प्रमुख कारण ही है कृषि उत्पादन हेतु बढ़ता खर्च, इसकी खातिर लिया जानेवाला कर्ज़ और इसी कारण निर्माण हुआ यह दिवालियापन है। ऐसे समय में ‘निसर्गखेती’ के विकल्प पर यदि भारतीय किसान विचार करते हैं, इसे स्वीकार करते हैं तो उन पर शायद आत्महत्या करने की नौबत नहीं आयेगी। हमें केवल इस आदर्श को दुनिया के सामने प्रस्तुत ही नहीं करना है, बल्कि उस पर अमल कर के अपने जीवन में उतारना भी है, तभी इस दुनिया को संकट की खाई से उबारने में हमारी ओर से सहायता हो सकती है, इसमें कोई शक नहीं है।

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