क्रान्तिगाथा-८७

१८वीं सदी के उत्तरार्ध से यानी कि अँग्रेज़ों का भारत में प्रवेश होने के बाद इन आदिम जनजातियों ने अँग्रेज़ों के खिलाफ़ लड़ना शुरू किया।

सन १७७४७९ में छत्तीसगड की हलबा नामक जनजाति अँग्रेज़ों से लडने के लिए सिद्ध हो गयी। सन १७७८ में छोटा नागपूर के पहारिया सरदार अँग्रेज़ों के खिलाफ़ खड़े हुए।

१९वीं सदी में तो कई स्थानों पर आदिम जनजातियों ने अँग्रेज़ों से लड़ना शुरू किया। अहम बात यह थी कि ये आदिम जनजातियाँ प्रकृति के साथ साहचर्य रखनेवाली थी और इसी कारण उनके शस्त्रअस्त्रों का स्वरूप भी प्राथमिक (प्रायमरी) था। इनमें से अधिकांश जनजातियाँ तीरकमान का इस्तेमाल करती थी, वहीं अँग्रेज़ों के पास रायफलें, बंदुके थी। अर्थात इन आदिम जनजातियों के शस्त्रअस्त्रों की अपेक्षा अँग्रेज़ों के शस्त्रअस्त्र बहुत ही आधुनिक और घातक थे। मगर इसके बावजूद भी इन बातों से न डरते हुए उन आदिम जनजातियों ने उनके पास रहनेवाले हथियारों से अँग्रेज़ों के खिलाफ़ लडाई लडी।

भारत के विभिन्न प्रांतों की भिल, संथाल, मुण्डा, डाफला, खासी, मिश्मी आदि आदिम जनजातियों ने समय के भिन्न भिन्न पडावों पर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना योगदान दिया। इनमें से कुछ आदिम जनजातियों ने समूह के रूप में अँग्रेज़ों का विरोध किया, तो कहीं उनके समूह का नेतृत्व उनकी जनजाति के ही किसी व्यक्ति ने किया।

भारत के आदिम जनजातियों में से एक ‘संथाल’ जनजाति द्वारा अँग्रेज़ों के खिलाफ़ किया गया संग्राम इतिहास में मशहूर है। ज़मीनदार और ईस्ट इंडिया कंपनी यानी अँग्रेज़ों के खिलाफ़ इस संथाल जनजाति के लोग खड़े हुए।

कटक, मनभूम, बरभूम, छोटा नागपुर, पलामु, मिदनापुर, बान्कुरा, बीरभूम इन इलाकों के पहाड़ी प्रदेशों में संथाल लोग बसते थे। खेती और प्राणियों की शिकार ये उनके परंपरागत व्यवसाय थे। लेकिन अँग्रेज़ों द्वारा अपनाये गये रवैय्ये के कारण उनके पारंपारिक व्यवसायों को खतरा उत्पन्न हुआ। संथाल लोग जिस जमीन पर खेती करते थे उन सभी स्थानों पर तथा जिन जंगलों में वे शिकार करते थे, उन जंगलों पर अँग्रज़ों ने अपना अधिकार स्थापित कर दिया। इससे संथालों को वह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाना पडा। लेकिन उन्होंने जिन स्थानों पर स्थानांतरण किया था, उन स्थानोंपर भी अँग्रेज़ों और ज़मीनदारों ने अपना अधिकार स्थापित कर संथालों को गुलाम बना दिया। इतनाही नहीं बल्कि संथाल महिलाओं और बच्चों को अपमानास्पद जीवन व्यतीत करना पडा। संथाल महिलाओं को सभी प्रकार के अत्याचारों का सामना करना पडा। इन सभी घटनाओं से सन्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करनेवाली संथाल जनजाति के सम्मान की काफ़ी बड़ी ठेस पहुँची।

जैसा की हम पहले कह चुके है कि अन्याय जब सहने की सीमा को लाँघता है, तब जिन पर अन्याय हो रहा है ऐसा कोई समूह या उस समूह में से कोई एक इस सबके खिलाफ़ उठकर खड़ा हो जाता है।

३० जून १८५५ के दिन सिधु और कान्हु मरमु नामक दो लोग हजारों संथाल लोगों के साथ अँग्रेज़ों और ज़मीनदारों के खिलाफ़ खड़े हो गये और संघर्ष की शुरुआत हुई। संथालों द्वारा अपनाये गये इस आक्रमक रवैय्ये से अँग्रेज़ और ज़मीनदार दोनों आश्‍चर्य में पड़ गये।

शुरुआती दौर में संथालों के इस आक्रमक रवैय्ये को कुचल डालने के लिए छोटीसी सेना भेजी गयी। लेकिन यह सेना निष्प्रभ साबित हुई और स्थिती अँग्रेज़ों और ज़मीनदारों के काबू में नहीं रही। संघर्ष ने उग्र रूप धारण कर लिया। संथालों में से कई लोग जख़्मी हुए या हुतात्मा हुए।

भले ही संथालों की तादाद बड़ी थी मगर अँग्रेज़ों के आधुनिक शस्त्रअस्त्रों के सामने इनके परंपरागत शस्त्रास्त्र टिक नहीं सके। जुलाई १८५५ से लेकर जनवरी १८५६ के दौरान अँग्रेज़ों की सेना और संथालों के बीच काफ़ी बड़ा संघर्ष हुआ और आखिरकार संथालों के इस संघर्ष को कुचल देने में अँग्रेज़ कामयाब हुए।

संथालों का नेतृत्व कर रहे सिधु और कान्हु मरमु दोनों वीरगती को प्राप्त हुए। मुर्शीदाबाद का नवाब और ज़मीनदारों का काफ़ी सहायता इस काम में ब्रिटिशों को प्राप्त हुई। मुर्शीदाबाद के नवाब द्वारा भेजे गये हाथी संथालों के घरों को उजाड देने में काम में लाये गये।

अँग्रेज़ों के इतिहासकार इस संग्राम का वर्णन करते हुए कहते है कि संथाल एकजूट होकर और एकसाथ अँग्रेज़ों के खिलाफ़ आखिर तक जूझते रहे। ये इतिहासकार और एक बात लिखते है कि संथाल लोग शिकार करने के लिए परंपरागत रूप से जहरीले तीरों का इस्तेमाल करते थे, लेकिन अँग्रेज़ों के खिलाफ़ इन लोगों ने कभी भी इन तीरों का इस्तेमाल नहीं किया और केवल अँग्रेज़ों के खिलाफ़ ही नहीं बल्कि अपने किसी भी शत्रु के खिलाफ़ उन्होंने ऐसे जहरीले तीरों का इस्तेमाल नहीं किया।

संथालों के इस संघर्ष को कुचल देने में अँग्रेज़ और ज़मीनदारों का वर्ग यशस्वी हुआ।

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