क्रान्तिगाथा-८८

दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश में स्थित विझागपटम् के पहाड़ी इलाके में राम्पा नामक आदिम जनजाति सदियों से बस रही थी। कई सदियों से ये लोग आजादी का अनुभव कर रहे थे। अन्य आदिम जनजातियों के तरह ये लोग भी परंपरागत व्यवसाय कर रहे थे। ताड़ के पेड़ का रस जिसे प्रारंभिक अवस्था में नीरा और आगे की अवस्था में ताडी कहा जाता है, उसे जमा करना यह भी उनका पारंपारिक व्यवसाय था।

इस पूरे प्रदेश पर अँग्रेज़ों के मद्रास प्रेसिडन्सी का अधिकार था। इस मद्रास प्रेसिडन्सी द्वारा एक कानून पारित किया गया। उस कानून के अनुसार नीरा या उसके आगे चलकर निर्माण होनेवाले स्वरूप जिसे ताडी कहते है, उसे जमा करने पर पाबंदी लगायी गयी और उसपर टॅक्स भी लगाया गया।

इस पूरी घटना के कारण राम्पा आदिम जनजाति के लोग क्रोधित हुए। अपने परंपरागत अधिकारों पर लगायी गयी पाबंदी उन्हें मंजूर नहीं थी। क्योंकि जिस ताड़ के पेड़ पर उनका व्यवसाय निर्भर था, वह पेड़ अँग्रेज़ों के नहीं, बल्कि प्रकृति के मालकियत का था।

मार्च १८७९ में राम्पा जनजाति के लोग अँग्रेज़ों के इस निर्णय के खिलाफ़ उठ खड़े हुए। उनके द्वारा वहाँ के पुलिस स्टेशन पर हमला किया गया। धीरे धीरे यह खबर फैली और पूरे तालुके में यह संघर्ष शुरू हुआ।

राम्पा आदिम जनजाति के लोगों के इस ब्रिटिश विराध को कुचल देने के लिए अँग्रेज़ों द्वारा सेना भेजी गयी। अन्य आदिम जनजातियों की तरह इस घटना में भी राम्पा लोगों के पास रहनेवाले शस्त्रास्त्र अँग्रेज़ों की अपेक्षा प्राथमिक रूप के थे। इसी कारण अँग्रेज़ों की सेना को फ़तह मिली और आखिरकार राम्पा लोगों को पीछे हटना पडा; लेकिन बात उनके पीछे हटने तक ही सिमीत नहीं रही, राम्पा जनजाति के जो लोग इसमें अग्रस्थान पर लड़ रहे थे उन्हें अँग्रेज़ों ने कैद कर लिया और उन सबको अंदमान जेल में भेजा गया।

राम्पा आदिम जनजाति के लोग इस उपरोक्त संघर्ष के बाद पुनः एक बार सन १९२२२४ के दौरान अँग्रेज़ों से संघर्ष करने के लिए सिद्ध हो गये। लेकिन इस बार उन्हें निपुण नेतृत्व का लाभ हुआ।

इस राम्पा आदिम जनजाति की एक विशेषता का इतिहासकार वर्णन करते है कि उनके इस संघर्ष का नेतृत्व कर रहे लोगों के खिलाफ़ इन राम्पा लोगों ने कभी भी दगाबाजी नहीं की। उनका नेतृत्व कर रहे लोगों का पता जानने के लिए अँग्रेज़ों ने इन लोगों पर तरह तरह के अत्याचार बड़े पैमाने पर किये। इन लोगों को कभी लातों से तो कभी चाबूक से भी अँग्रेज़ों ने मारा लेकिन इनमें से एक भी व्यक्ति ने उनका नेतृत्व करनेवाले व्यक्तित्व का पता तक अँग्रेज़ों को होने नहीं दिया।

सन १८७९ में अँग्रेज़ों के खिलाफ़ किये गये संघर्ष के बाद राम्पा जनजाति ने फिर एक बार सन १९२२२४ के दौरान अँग्रेज़ों के खिलाफ़ संघर्ष किया।

१८८२ में पारित किये गये ‘मद्रास फॉरेस्ट अ‍ॅक्ट’ इस कानून के तहत राम्पा लोगों की जंगल में होनेवाली रोजमर्रा की गतिविधियों पर बहुत बड़ी पाबंदी लगायी गयी। दरअसल ये जंगल जो प्रकृति का ही एक हिस्सा थे, इन पर अधिकार तो प्रकृति का ही था। परंपरागत रूप से कई पीढियों से इन जंगलों और पहाडी इलाकों में बसनेवाले इन आदिम जनजातियों का पूरा जीवन ही इन जंगलों पर निर्भर था। लेकिन अँग्रेज़ों ने इन जंगलों पर भी कब्जा कर लिया और इन आदिम जनजातियों के परंपरागत रूप से रहनेवाले अधिकारों पर प्रतिबंध लगाया।

आंध्रप्रदेश में गोदावरी नदी के पास रहनेवाले इन जंगलों में ही राम्पा लोग बसते थे। इन जंगलों में रहनेवाली खाली जमीन पर और पहाडों की ढलानों की सीढियों जैसी रचनाओं पर ये लोग खेती करते थे। यह खेती की पद्धति कुछ ऐसी थी इसमें जमीन के एक हिस्से पर विशिष्ट समय तक खेती करने के बाद जब यह समझ में आ जाता था की इस जमीन का उपजाऊपन अब खत्म हो गया है, तब उस जमीन के हिस्सों को छोडकर दूसरा जमीन का हिस्सा ढूँढा जाता था और उस पर खेती की जाती थी। इस स्थलांतरण खेती की पद्धति का राम्पा आदिम जनजाति ने परम्परागत रूप से स्वीकार किया था।

लेकिन अँग्रेज़ों द्वारा १८८२ में पारित मद्रास फॉरेस्ट अ‍ॅक्ट के तहत राम्पा लोगों की इस खेती पर और साथ ही जंगलों में उनकी गतिविधियों पर पूरी पाबंदी लगायी गयी।

इस समय राम्पा लोगों को एक विलक्षण व्यक्तित्व का नेतृत्व के रूप में लाभ हुआ, जिनके मार्गदर्शन में इन लोगों ने अँग्रेज़ों से संघर्ष किया।

राम्पा जनजाति के अँग्रेज़ों के साथ हुए संघर्ष के दौरान एक महत्त्वपूर्ण नाम उजागर हुआ और वह नाम था – अल्लुरि सीताराम राजु।

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