क्रान्तिगाथा- १८

१८५७ के अप्रैल महीने में बहने लगीं क्रान्ति की हवाएँ यानी क्रान्तियज्ञ की ज्वालाएँ अब भारत के अन्य इलाक़ों में फ़ैलने लगीं। अब मातृभूमि को दास्यता से मुक्त करने के लिए शुरू हो चुका यह यज्ञ भारत के मध्य और पश्‍चिमी इला़के में भी चल रहा था।

हालाँकि कानपुर पर पुन: कब्ज़ा कर लेने में अँग्रेज़ों को क़ामयाबी मिली थी, मग़र इससे रणधुरंधर सेनापति तात्या टोपे के कार्य में कोई बाधा नहीं आयी। अब तात्या टोपे निकल पड़े। किसलिए? तो अब भी उनके मन की आशा बरक़रार थी कि दुश्मन के छक्के छुड़ाकर हमारी मातृभूमि को आज़ाद करने में हम सफ़ल होंगे और इसीलिए वे कानपुर से निकले थे। अन्य जगह के सैनिकों को इकठ्ठा करके फ़िर एक बार अँग्रेज़ों से जंग करने के लिए वे तैयार हो गये। उनकी इन कोशिशों में उन्हें क़ामयाबी मिली और उनकी अगुआई में अँग्रेज़ों के ख़िला़फ़ लड़ने के लिए लैस ग्वालियर के भारतीय सैनिक एक साथ आ गये। ग्वालियर के बाद मध्यप्रदेश स्थित सागर, नर्मदा के आसपास के इला़के, राजस्थान और महाराष्ट्र के कुछ इला़के के भारतीय सैनिक दुश्मन का सामना करने के लिए तैयार हो गये। लेकिन अब तात्यासाहब टोपे को इस जंग की अगुआई स्वयं ही करनी पड़ रही थी, क्योंकि उनके ‘पेशवा’ रहनेवाले ‘नानासाहब’ अब उनके साथ नहीं थे। इसीलिए जगह जगह के क्रान्तिकारियों को एकत्रित करना और व्यूहरचना करना ये काम तात्या टोपे अकेले ही कर रहे थे।

तात्या टोपे की एक ख़ास बात को इतिहास बयान करता है। तात्या टोपे कुछ ऐसे दाँवपेंच लड़ाते थे कि सामने से चलकर आनेवाले दुश्मन को कुछ ही दूरी से दिखायी देनेवाली तात्या टोपे की अगुआई में लड़नेवाली सेना दुश्मन के क़रीब आ जाने पर पल भर में ही गायब हो जाती थी और दुश्मन के बेख़बर हो जाते ही उसपर हमला कर देती थी।

अँग्रेज़ों के अधिपत्य में रहनेवाले भारत में कई छोटी बड़ी रियासतें थी। इन रियासतों के राजा -महाराजा प्राय: नामधारी ही रहते थे। साथ ही भारत में एक और वर्ग था-ज़मीनदारों का वर्ग। इन ज़मीनदारों के पास बहुत बड़ी ज़मीन-जायदाद रहती थी। जितनी ज़मीन अधिक उतनी उस ज़मीनदार की ताकद भी अधिक रहती थी। कई बार इन ज़मीनदारों के नाम के आगे ‘राजा, महाराजा’ या अन्य कुछ बिरुद होते थे। इन ज़मीनदारों का अधिकार भी बहुत बड़ा रहता था। अँग्रेज़ों के भारत आने के बाद भी ज़मीनदारों का यह अधिकार कायम था।

लेकिन सारे भारतवर्ष में तेज़ी से फ़ैल रही क्रान्ति के समाचार सुनकर भारत के नक़ाशे पर किसी बिंदु की तरह दिखायी देनेवाले छोटे छोटे गाँव, इलाके और उन पर अब तक जिनका अधिकार था ऐसे कुछ ज़मीनदार भी इस स्वतंत्रता यज्ञ में हिस्सा ले रहे थे।

क्रान्तियज्ञ
 वीर कुँवरसिंह

‘वीर कुँवरसिंह’ यह ऐसा ही एक नाम था। स्वतंत्रता यज्ञ में जिस व़क़्त इस योद्धा ने हिस्सा लिया, उस समय उनकी उम्र थी, महज़ अस्सी साल की।

इससे एक बात स्पष्ट होती है कि अँग्रेज़ों के खिला़फ़ भारतीयों के दिलों में खौलते हुए क्रोध के आड़े कोई भी बात आ न सकी, यहाँ तक की किसी व्यक्ति की उम्र भी नहीं। इसीलिए अस्सी साल की उम्र हो जाने के बावजूद भी वीर कुँवरसिंह स्वतंत्रता यज्ञ में कूद पड़े।

बिहार स्थित जगदीशपूर में नवंबर १७७७ में वीर कुँवरसिंह का जन्म हुआ था और उन्हें मिली थी, राजवंश की वैभवशाली विरासत।

जुलाई महिने के अंत में दानापुर में अँग्रेज़ों के ख़िला़फ़ लड़ने के लिए सिद्ध हुए भारतीय सैनिकों का नेतृत्व इन्हीं वीर कुँवरसिंह ने किया था और यहीं से उनके संघर्ष भरे जीवन की शुरुआत हो गयी। जगदीशपूर के पास रहनेवाला ‘आरा’ यह गाँव अब उनके कार्य का प्रमुख केंद्र बन चुका था। क्योंकि उनके नेतृत्व में लड़नेवाले सैनिकों ने महज़ दो ही दिनों में आरा पर जीत हासिल की थी। अब अपनी मातृभूमि को अँग्रेज़ों के चंगुल से छुड़ाने के लिए वीर कुँवरसिंह अपने जन्मस्थल से विदा लेकर अन्य प्रांतों की ओर चल पड़े।

वीर कुँवरसिंह के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने से कुछ ही समय पहले उत्तरी भारत स्थित जौनपुर में बसनेवाला एक ज़मीनदार घराना भी अँग्रेज़ों के ख़िला़फ़ उठ खड़ा हुआ था। बनारस और उसके आसपास के इला़के को अँग्रेज़ों से मुक्त करने के लिए उन्होंने अँग्रेज़ों के ख़िला़फ़ जंग भी छेड़ दी थी। अब उनका रुख था बनारस की ओर और उस दृष्टि से व्यूहरचना करना उन्होंने शुरू भी कर दिया था। लेकिन जिस व़क़्त उनका अँग्रेजों से पहली बार आमना सामना हुआ, तब उन्हें बहुत बड़ा नुकसान सहना पड़ा और इतनी कोशिशों के बाद भी बनारस को अँग्रेजों से मुक्त करने में वे नाकाम रहे।

अँग्रेज़ों की फ़ौज तो दिल्ली कब की पहुँच चुकी थी; मग़र दिल्ली अब भी दिलोजान से लड़ रही थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.