अस्थिसंस्था (भाग-४ )

Untitledआज हम यह देखेंगे कि हमारी अस्थिसंस्था की हड्डियाँ किस तरह बनती हैं, कैसे तैयार होती हैं।

गर्भधारणा के बाद पहले दो महीनों में अस्थिसंस्था का निर्माण होता है। परन्तु ये सभी हड्डियाँ नरम अथवा मुलायम होती हैं। इस प्रक्रिया की शुरुआत एक प्रकार के (hyaline cartiege) अथवा अन्य नरम पेशी के रूप में होती है। बाद में जैसे जैसे उसमें मॅट्रिक्स का हिस्सा बढ़ने लगता है वैसे-वैसे उसमें कठोरता आने लगती है। हड्डियों में कठोरता आने की क्रिया को ऑसिफिकेशन (Ossificationकहते है। यह कठोरता हड्डी के जिस स्थान से शुरु होती है, उसे हड्डी का ऑसिफिकेशन केन्द्र कहा जाता है। कुछ हड्डियों में ऐसा एक ही केन्द्र होता है, वहीं कुछ में ऐसे अनेक केन्द्र होते हैं। गर्भावस्था के आठवे से दसवे सप्ताह में ऐसे केन्द्र प्रथमत: दिखायी देने लगते हैं।

गर्भावस्था से लेकर शरीर की पूरी वृद्धि होने तक हड्डियों में दो बदलाव होते रहते हैं। पहला उसकी कठोरता व दूसरा उसमें होनेवाली वृद्धि। कुछ हड्डियाँ उनके दोनों सिरों से बढ़ती हैं। तो कुछ हड्डियां सिर्फ एक ही सिरे से बढ़ती हैं। पैर, हाथ, दाँत, कमर इत्यादि की हड्डियां दोनों सिरों से तथा तलवों, अंगुलियों की हड्डियां तथा पंसुडियों की हड्डिया एक ही सिरे से बढ़ती हैं।

हड्डी के मध्य भाग को डाइफिसिस(Dyaphisis)तथा बढ़नेवाले सिरों को एपिफिसिस(Epiphisis)कहते हैं। डाइफिसिस में ऑसिफिकेशन केन्द्र अथवा केन्द्र गर्भावस्था में ही दिखायी देने लगते हैं। तथा इस भाग का ऑसिफिकेशन ज्यादातर हड्डियों में जन्म से पहले अथवा जन्म के कुछ समय बाद ही पूरा हो जाता है। एपिफिसिस का ऑसिफिकेशन पूर्ण वृद्धि के समय ही होता है। विभिन्न हड्डियों के एपिफिसिस में ये ऑसिफिकेशन के केन्द्र विभिन्न आयु में दिखायी देने लगते हैं। क्ष-किरण की सहायता से इन्हें देखा जा सकता हैं। इन केन्द्रों की सहायता से किसी भी व्यक्ति की उम्र, लिंग, व वंश इ. घटकों पर आधारित होती है। उसी उम्र की लड़कियों में यह गति लड़कों की अपेक्षा ज्यादा होती है। लड़कियों में हड्डियों की वृद्धि भी लड़कों की तुलना में दो साल पहले ही पूरी हो जाती है।

हमने देखा कि हड्डी के मुख्य भाग को डाइफिसिस व बढ़ने वाले अथवा किनारे के भाग को एपिफिसिस कहते हैं। एपिफिसिस वाढ पूरी होने के पहले मुलायम तंतुओं से बनी होती है। इन तंतुओं का ऑसिफिकेशन हो जाने के बाद उनका रुपांतरण हड्डी में हो जाता है। परन्तु हड्डी के सिरो पर इन तंतुओ की पतली तह हमेशा बनी रहती हैं। हड्डी के बढ़ने वाले सिरे की ओर डाइफिसिस व एपिफिसिस के बीच में अस्थिपेशी, रक्तवाहनियों की एक पतली वह होती हैं जो नयी निर्मिती करती रहती है। इसे (growth plate)अथवा बढ़नेवाली सतह कहते हैं। इसका दूसरा नाम मेटोफिसिस है। इसका महत्त्व यह हैं कि यदि वृद्धि अवस्था में किसी भी प्रकार के आघात से यदि मेटोफिसिस को धक्का लगता है तो उसका हड्डी की वृद्धि पर विपरीत परिणाम हो सकता है।

हड्डी की वृद्धि के लिये अस्थिवर्धक पेशियां जवाबदार होती है। जैसे जैसे इन पेशियों की संख्या बढ़ती जाती है वैसे वैसे वे अपने चारों ओर हड्डियों की मॅट्रिक्स तैयार करती रहती है। इस मॅट्रिक्स में अस्थिवर्धक तंतु एवं क्षार होते हैं। क्षारों में प्रमुखता से कॅलशियम, फॉस्फेट, कोर्बानेट व हैड्रॉक्सिल जैसे अणु होते हैं। इसका बहुतांश भाग कॅलशियम फॉस्फेट का बना हुआ होता है। मॅट्रिक्स में कॅलशियम की मात्रा बढ़ती रहती है। इस क्रिया को केल्सिफिकेशन कहते हैं।

हड्डियों में कॅलशियम की मात्रा व रक्त में कॅलशियम की मात्रा एक-दूसरे पर अवलंबित होते हैं। इन दोनों स्थानों पर कॅलशियम की उचित मात्रा रखने के लिये कई घटक कार्यरत होते हैं। ये घटक हैं – आँस्टिओक्लास्ट पेशी रक्त का कॅलशियम हड्डियों में डिपॉजिट करती हैं। आवश्यकता पड़ने पर अर्थात रक्त में कॅलशियम की मात्रा कम हो जाने पर ऑस्टिओब्लास्ट पेशीयों को कार्यरत करके उनके माध्यम से हड्डियों के कॅलशियम को निकालना उसे रक्त में पहुँचाने की व्यवस्था करती है।

ऑस्टिओब्लास्ट पेशी हड्डियों का कॅलशियम निकालकर उसे रक्त में पहुँचाती हैं।

पॅराथायराईड हार्मोन – यह पॅराथायराईड ग्रंथी से उचित होता है। रक्त में कॅलशियम की मात्रा कम हो जाने पर ये हार्मोन तीन प्रकार से यह यात्रा बढ़ाने में सहायता करते हैं –
अ)हड्डियों का कॅलशियम रक्त में पहुँचाना। इसके लिये यह हार्मोन सीधे-सीधे ऑस्टिओब्लास्ट पेशियों को कार्यरत करके उसकी सहायता से ऑस्टिओक्लास्ट पेशियों को कार्यरत करके उनकी सहायता से ऑस्टिओक्लास्ट पेशी का कार्य बढ़ा देता है। और कॅलशियम शोषण करने की क्षमता बढ़ाता है।

‘ड’ जीवनसत्व (vitamin-D) हड्डियों से बाहर निकलनेवाले कॅलशियम की मात्रा कम करती है और कॅलशियम शोषण करने की क्षमता को बढ़ाती है।

हड्डियों की सामान्य वृद्धि होने व बढ़ी हुयी हड्डियों को व्यवस्थित रखने में अनेक घटकों का समावेश है। हमारे अन्न, भोजन का कॅलशियम, फॉस्फोरस, अ,क व ड इत्यादि जीवनसत्त्वों के उचित प्रमाण तथा  उनका योग्य मात्रा में शोषण इत्यादि महत्त्वपूर्ण है। साथ ही साथ ग्रोथ हार्मोन, थायराईड हार्मोन, अ‍ॅन्ड्रोजन्स व इल्ट्रोजेन्स इत्यादि संप्रेरकों का एक दूसरे से समन्वय महत्त्वपूर्ण होता है।

काफी समय तक यदि भोजन में कॅलशियम की मात्रा काम रह तो हड्डियों के मॅट्रिक्स में कॅलशियम की मात्रा अन्य क्षारो की मात्रा कम हो जाती है जिससे हड्डियां नाजुक हो जाती हैं। इसे ही ऑस्टिरओपोरोसिस (osteroporosis)कहा जाता है।

‘ड’ जीवनसत्व द्वारा होनेवाले कॅलशियम व फॉस्फोरस का शोषण बढ़ाता है तथा हड्डियों में उनकी  उचित मात्रा बनाये रखने में सहायता करता है। ‘ड’ जीवनसत्व की कमी होने पर हड्डियों पर उसका असर होता है। यह परिणाम वृद्धि अवस्था में अलग तथा वृद्धि के अवस्था के बाद अलग होता है।

कम उम्र में, वृद्धि अवस्था में ‘ड’ जीवनसत्व की कमी होने पर उसका परिणाम एपिफिसिस में बढ़नेवाले तंतुओं पर तथा हड्डियों के ऑसिफिकेशन पर होता है। ग्रोथ प्लेट ज्यादा मोटी व अनियमित बन जाती है। फलस्वरूप हड्डियों के बाहर का भाग मोटा अथवा सूजा हुआ दिखाई देता है। हड्डियाँ नरम हो जाती है, जिससे विभिन्न प्रकार के दबावों के कारण उनका आकार बदल जाता है। इसे ही हम रिक्ट्रस अथवा मुडदुस कहते हैं।

बड़ी उम्र में ‘ड’ जीवनसत्त्व की कमी के कारण अस्थि पेशियों का आकार बदल जाता है व हड्डियों का सघनत्व कम होत जाता है। इसे ऑस्टिओमलेसिया (osteamalcia)कहते हैं।

‘क’ जीवनसत्व – ‘क’ जीवनसत्व के अभाव के कारण स्कन्ही नामक रोग होता है। इसमें ग्रोथ प्लेट एकदम पतली हो जाती है। ऑसिफिकेशन प्रक्रिया पूरी तरह रुक जाती है। कोलॅजेन बनना बंद हो जाता है। फलस्वरूप हड्डियां कमजोर बन जाती है। तथा फ्रैक्चर होने पर उन्हें ठीक होने में काफी समय लग जाता है।

‘अ’ जीवनसत्व के अभाव के कारण हड्डियों की वृद्धि कम हो जाती है। इसका ज्यादा परिणाम कवटी के निचले हिस्से के हड्डियों तथा पीठ की मणकियों पर होता है। फलस्वरूप यहाँ से बाहर निकालनेवाले चेतातंतुओं पर दबाव बढ जाता है। इस जीवनसत्व की मात्रा बढ़ जाने पर भी यह घातक सिद्ध  होता है। इस में ग्रोथ प्लेट बारीक अथवा पतली हो जाती है तथा हड्डियों की बाढ़ बाधित होती है।

विभिन्न अंतर्स्त्रावी ग्रंथियों का स्त्राव अथवा हार्मोन्स का समतोल भी हड्डियों की वृद्धि के लिये तथा उनके कार्यों को व्यवस्थित चलाने के लिये महत्त्वपूर्ण होता है।

पॅराथायरॉईड हार्मोन्स के कार्य हड्डियों पर कैसे होते है, यह हमने पहले देखा है। इसका स्त्राव ज्यादा होने पर हड्डिया पतली हो जाती हैं, कमजोर हो जाती हैं क्योंकि इससे ऑस्टिओक्लास्ट पेशी के कार्य बढ़ जाते हैं।

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