अस्थिसंस्था -१४

जोड़ों के दूसरे प्रमुख समूह के बारे में जानकारी प्राप्त करने से पहले हमने ठोस जोड़ अथवा सिनआरथ्रोसिस की जानकारी प्राप्त की। सिन यानी नजदीक आना अथवा होना, जुड़ना अथवा संलग्न होना और अरथ्रॉस यानी जोड़ अथवा सांधा। उपरोक्त प्रकार में हमने देखा कि सांधे की दोनो हड्डियाँ एकत्र आकर कुछ समय तक एक ही हड्डी की तरह काम करती हैं।

human Skeleton

आज हम जिसके बारे में जानकारी प्राप्त करने वाले हैं वे हैं डायाअरथ्रोसिस अथवा खोखले सांधे। यहाँ पर डाय का मतलब है अलग होना, दो वस्तुयें अथवा दो चीजें होना। ठोस सांधों की तुलना में इसकी भिन्नता इन शब्दों में व्यक्त की जा सकती है। सांधे में सहभागी होने वाली दो हड्डियाँ या दो से अधिक हड्डियाँ, एक दूसरे से अलग-अलग रहती हैं। उनका एक-दूसरे से सीधा सम्पर्क नहीं होता। एक तंतुमय थैली में वे एकत्र जकड़ी हुयी होती हैं। इस थैली के अंदर हीं सांधे में रिक्तस्थान (पोकली) होती है(Synonial membrane and synovial cavity)। इस थैली के अलावा – थैली की खाली जगह के लिगामेंटस् व थैली के बाह्रर के जोड़ लिंगामेटस् हड्डियों को एकत्र बांधकर रखने में मदद करते हैं। तंतुमय थैली के अंदर की हड्डियों के सिरों पर हायलाइन कुर्चा का स्तर होता है। दोनो हड्डियों के ऊपर कुर्चा का स्तर ही एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं। हड्डियाँ कभी भी एक-दूसरे के सीधे संपर्क में नहीं आती। सांधों की थैली में (Synovial Fluid) नामक द्रव पदार्थ होता है। यह द्रव पदार्थ सांधों में घर्षण रहित हलचलों की वंगण बनकर मदत करता है। उसी तरह सांधों की कुर्चा पेशी, लिंगामेंटस् का पोषण करता है।

इस सांधे के ऊपर अथवा बाहर से संपूर्ण तंतुमय थैली का आवरण होता है। इस थैली के अंदर के आवरण को सायनोवियल परदा अथवा मेब्रेन कहते हैं। यह परदा सांधे के अंदर के सभी अर्थात सांधे में सहभागी होने वाली व सहभागी न होने वाली, सभी चीजों पर होता है। कुछ सांधों में दो हड्डियों के बीच फाइव्रोकार्टिलेज  की एक प्लेट होती है। इसे मेनिस्कस कहते हैं। इसके कारण सांधे की खोकली जगह दो भागों में बंट जाती हैं। हमारे गुड़दों के सांधों में ऐसी मेनिस्काय होते हैं।

सायनोवियल सांधे का सबसे महत्त्वपूर्ण उपयोग है मोबिलिटी अथवा हलचल अथवा गतिशीलता। प्राणियों की उत्क्रांती में सस्तन प्राणी जैसे जैसे जमीन पर विचरण करने लगे वैसे वैसे उनके पैरों की हलचल सुलभ व विविध तरह की होने की जरूरत होने लगी। इस विकास की आवश्यकतानुसार बदल होकर ठोस जोड़ों का रूपांतर सायनोवियल जोड़ों में होता गया।

मानवों में हाथों, पैरों, गर्दन इत्यादि स्थानों पर आवश्यकतानुसार सांधे सायनोवियल हो गये। परंतु पहला सायनोवियल जोड़ जलचरों के जबड़े में बना। सुरूवात के प्राणीमात्र में इन जोड़ों के रिक्तस्थान में भरपूर तंतुमय पेशियां, लिगामेन्टस् व बड़ी मात्रा में  द्राव (Synovial Fluid) हुआ करता था। फलस्वरूप  वास्तव में यह खाली जगह भर ही जाया करती थी और जोड़ों की  गतिपर विपरीत असर होता था। धीरे-धीरे इनमें इन सभी चीजों की मात्रा कम होती गयी। फलस्वरूप  गतिशीलता सुलभ हो गयी। मानवी शरीर में इन सांधों में अत्यंत अल्प मात्रा में द्राव होता है। वर्षानुवर्ष सभी प्रकार के खिंचाव, तनाव, भार सहन करके भी इन जोड़ों की गतिशीलता घर्षणरहित व सहज कैसे रहती है, यह एक पहेली ही है।

अब इन जोड़ों की रचना थोड़ी विस्तार से देखेंगे।

आर्टिकुलर सरफेसेस (Articular Surfaces) :

हमने देखा कि इस प्रकार के सांधों में हड्डियां सीधे-सीधे एक-दूसरे के  संपर्क में नहीं आती। इन हड्डियों के जोड़ों वाले भाग में विशिष्ट हायलाइन कुर्चा का स्तर होता है। दो हड्डियों पर यह कुर्चा का स्तर एक-दूसरे के संपर्क में आता है। तरुणावस्था में इस कुर्चा की मोटाई ५ से ७ मिमी होती है। तरुणावस्था में यह कुर्चा एकदम सफ़ेद व स्वस्थ होती है। बुढ़ापे में इसकी मोटाई कम (१ से २ मिमी) हो जाती है । कुर्चा कड़ी हो जाती है तथा पीली पड़ जाती है और इसके तुरंत टुकड़े हो सकते हैं। ये शायद ही इस हाइलाइन कुर्चा का हड्डियों में रूपांतर बहुत कम ही होता है। हड्डियों के गोलाकार भाग पर इनकी मोटाई मध्यभाग में ज्यादा होती है तथा घोरों प्र कम होती हैं। इसके विपरीत गहरे भाग पर मध्य में मोटाई कम तथा घोरो पर ज्यादा होती हैं।

सायनोवियल मेब्रेन (Synovial membrane) :

आरटिक्युलर सरफेस पर पूरी तरह इसका आवरण होता है। यह पतला परदा गुलाबी रंग का होता है। साथ ही साथ यह स्वस्थ और चमकीला होता है।

सायनोवियल द्राव (Synovial Fluid):

रंगहीन अथवा फीके पीले रंग का, घनत्वयुक्त द्राव होता है। मानवी संधो में इसकी मात्रा काफी कम होती है। यहाँ तक कि गुड़दों जैसे बड़े जोड़ों में भी इसकी मात्रा मुश्किल से आधा मिली. निकलती है। इनका कार्य सिर्फ  वंगण का ही नहीं ब्लकि जोड़ों पर पड़नेवाले सभी दाब, भार, तनाव, (चल एवं अचल दोनों स्थितियों में) जो पड़ते हैं उनका उचित प्रतिकार करने की क्षमता इसमें होती हैं।

ऐसा है यह सायनोवियल संधि (जोड)। उसमें उपस्थित जोडपेशियों के आधार पर इनका वर्गीकरण हमने देखा। अब अगले लेख में सायनोवियल सांधों का वर्गीकरण तथा उनकी क्रियाओं का सिंहावलोकन करेंगे।

(क्रमश:)

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