जोड़ों का वर्गीकरण – अस्थिसंस्था भाग – १३

जोड़ों (Joints) का वर्गीकरण हमने पिछले लेख में देखा। आज हम जोड़ों के प्रत्येक प्रकार का अध्ययन करेंगे।

सिनआरथ्रोसिस जोड़ों का एक मुख्य प्रकार है। इसे सामान्य अंग्रेजी में (Solid Joints) अर्थात ठोस जोड़ कहते हैं। ठोस क्यों? क्योंकि इसमें दो हड्डियों के मिलन के बाद उनके बीच में रिक्त स्थान अथवा पोकली शेष नहीं रहती। दो हड्डियों के बीच का रिक्त स्थान जब तंतुमय पेशियों से (fibres) भरा जाता है तब उन जोड़ों को फाइबर्स संधि कहते हैं। जब यह रिक्त स्थान कुर्चा से भरा जाता है तब ऐसे जोड़ों क कार्टिलेजिनस जोड़ कहा जाता है।

फाइबर्स जोड़ :

इस प्रकार के जोड़ों में प्राय: हड्डियों के बीच की खाली जगह कोलॅजेन तंतुओं द्वारा भरी जाती है। परन्तु कभी इस जगह में इलॅस्टिन तंतू होते हैं। इस प्रकार के जोड़ों के उपप्रकार निम्न हैं –

१)सुचर्स :

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जब दो हड्डियों का कड़ा अथवा चौड़ा भाग एक-दूसरे से जोड़ा जाता है तो वह संधि इस प्रकार के जोड़ से बनती है। इस प्रकार के जोड़ युक्त सांधे हमारी खोपड़ी में होते हैं। सांधे की दोनों हड्डियां रक्तबाहनियों के बीच के कोलजेन तंतु के स्तरों से एक दूसरे में मिलती हैं। सांधे के दोनो बाजू से इस पर पेरिऑस्टियम का आवरण रहता है। इससे सांधे को स्थिर रखने में सहायता होती है। इस प्रकार के सांधों में ज्यादा हलचल नहीं होती।

२)गोम्फ्रोसिस  :

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इस प्रकार के सांधों के दूसरे प्रकार को पेग अंडरसाकेट प्रकार का सांधा कहते हैं। इसका उदाहरण हैं – हमारे दाँत। हड्डियों के अलविरोल पोकली (खाली जगह) में दाँत इस प्रकार की तंतुमय पेशियों द्वारा मजबूती से बैठाये जाते हैं।

३)सिनडेसमॉसिस :

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जब दो हड्डियां ऑसिजस लिगामेंट के द्वारा जोड़ी जाती हैं तब इस प्रकार का सांधा बनता है। इसमें लिंगामेंट (यानी एक प्रकार की पतली तंतुमय डोर) हड्डियों के बीच के भाग तक मर्यादित रहती है। इस प्रकार के सांधे हमारे हाथों व पैरों में होते हैं। हमारे हाथों में कोने से लेकर कलाई तक दो हड्डियां होती हैं। उसी तरह गुडदों से लेका घोंटी तक दो हड्डियां होती हैं। इन हड्डियों में इस प्रकार का जोड़ होता है। फलस्वरूप ये हड्डियां एक-दूसरे के चारों ओर कुछ हद तक घुस जाती हैं।

कार्टिलेजिनस जोड़  :

कुर्चा पेशियों से जुडे हुये सांधो को कार्टिलेजिनस् सांधे कहते हैं। इसके भी दो प्रकार है –
१)सिन्कॉन्ड्रोसिस
२)सियफायसीस

कुछ विशिष्ट गुणधर्मों को छोड़कर इनमें कुछ फर्क नहीं होता।

१)सिन्कॉन्ड्रोसिस :

हायलाईन कूर्चा में ही यह सांधा बनता है। बढ़नेवाली अथवा वृद्धि की हायलाईन कूर्चा में एक-दूसरे के बगल में ओसिफिकेशन के दो केन्द्र तैयार होते हैं। इनसे उस कूर्चा का रूपांतरण हड्डियों में हो जाता है। हड्डियों की वृद्धि की दिशा में यह बाढ़ शुरू ही रहती है। परन्तु बीच की कुर्चा का भाग वैसा का वैसा ही रहता है। इसे सिनकॉन्ड्रोसिस कहते हैं। प्राय: लम्बी हड्डियों में उनके सिरो की ओर इस प्रकर के जोड़ बनते हैं।  इसे सांधा कहने की अपेक्षा यह एक वृद्धि का प्रकार, ग्रोथ मेकॅनिझम हैं। हमारे शरीर की सभी लम्बी हड्डियां, स्टरमन, खोपड़ी की हड्डियां इत्यादि में यह जोड़ होता है। बढ़ती उम्र के साथ बीच की कूर्चा का रुपांतर हड्डियों में होता जाता है। इन्हें सिनाऑस्टोसिस कहते हैं। सिनकॉशेसिस का रूपांतर सिनाऑस्टोसिस में उम्र के विविध पडावों पर होता हैं। जन्म के पहले से लेकर उम्र के तीसवें साल तक कभी भी ऐसा होता रहता हैं।

२)सिमफायसीस  :

यह कूर्चा संधी का दूसरा उपप्रकार हैं। इन सांधों की विशेषता यह है कि सभी सांधे शरीर की मध्य रेषा पर ही होते हैं। उनमें से भी सिर्फ एक सांधा छोड़कर अन्य सभी सियफायसीस सांधे अ‍ॅक्सिअल अस्थिसंस्था में मिलते हैं। छाती के बीच की हड्डियां, सभी मणिकाओं के सांधे, कमर की हड्डियां के सामने का प्युबिक अस्थि का जोड़ इसके उदाहरण है।

इस प्रकार के सांधों में प्रत्येक हड्डी पर हायलाईन कुर्चा का पतला स्तर होता है। दोनो बाजू की हायलाईन कुर्चा में मोटा, ठोस फाइब्रोकार्टिलेज  होता है। बाह्रर से इसे पकड़कर रखने वाली कोलजेन तंतु की लिगामेन्टस् होती हैं । इन सबके कारण सांधों की शक्ती बढ़ती है व हलचल सुलभ हो जाती है।

बढ़ती उम्र के साथ सियफायसीस  की कुर्चा का रूपांतरण भी हड्डियों (सिनाऑस्टोसिस) में हो जाता है।
ठोस जोड़ों की जानकारी यहीं पर पूरी होती है। अब हम सायनोलिअल जोड़ों की जानकारी प्राप्त करेंगे।

(क्रमश:)

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