श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१००

कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा।
कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥
(कहीं भी रहना, कुछ भी करना। परन्तु सदैव इतना स्मरण रखना।
कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥)

साईबाबा के इन वचनों का अर्थ हमने पिछले लेख में देखा है और उनका अध्ययन भी किया है। अब हम बाबा के इस वचन के आधार पर हमारे जीवन से जुड़े एक अन्य पहलु पर विचार करेंगे।

मनुष्य अपने जीवन में दुखों का, वेदना का, हाथों से हुई गलतियों का उपाय ढूँढ़ता रहता है। कोई कुछ करता है तो कोई कुछ करता है। कुछ मानव उन भगवान की शरण में जाकर अपने दुख-दर्द आदि उन्हें बताते हैं। उनके समक्ष खड़े रहकर अपनी उन तकलीफो आदि को बतलाते हैं। अपनी गलती उनके समक्ष कबूल करते हैं। परन्तु कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अनेकों बार अपने दुख-दर्द आदि भगवान से कहने पर भी भगवान मुझे कोई उपाय नहीं सुझाते हैं। मेरे दुख की मुक्ति का, वेदनामुक्ति का कोई भी मार्ग नहीं सुझाते हैं और फिर मनुष्य उस भगवान को ही दोष देने लगता है।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईअब हम एक बार पुन: बाबा के मुख से निकले हुए वचनों पर गौर फर्मायेंगे। जिस क्षण मेरे जीवन में दुख उत्पन्न हुआ, वेदना उत्पन्न हुई अथवा मेरे हाथों से कोई गलती हुई, वह सब कुछ मेरे प्रारब्ध के ही कारण, परन्तु दुख-दर्द आदि सभी मेरे जीवन में घटित होनेवाली क्रियाएँ ही हैं और गलती, वह चाहे मेरे हाथों से घटित हुई हो अथवा मेरे मन से या बुद्धी से, परन्तु वह मेरे जीवन में घटित होनेवाली एक क्रिया ही है, इसीलिए दुख अथवा वेदना की उत्पत्ति होना अथवा गलती होना इनमें से कोई भी क्रिया हो, वह क्रिया जिस क्षण मेरे जीवन में घटित होती है, उसी क्षण उसका पता भगवान को चल ही जाता है और उसी क्षण अपना दुख अथवा वेदना अपने भगवान से कहने का केवल विचार भी मेरे मन में आता है, उसी क्षण वह उस भगवान को पता चल चुका होता है। परन्तु मेरा दुख अथवा वेदना मैं उनसे कहना चाहता हूँ, फिर चाहे वह भगवान की मूर्ति हो अथवा तसवीर हो वह मुझे कहना ज़रूरी होता है। जो बात दुख एवं वेदना के संबंध में है, वही बात मेरे हाथों से होनेवाली गलतियों के बारे में भी है। अपनी गलती को कबूल करने का केवल विचार भी यदि मेरे मन में आता है, तब भी उन्हें उसका पता चल ही जाता है। परन्तु उन्हें मुझसे जो गलती हुई है, वह कहना यह मेरे लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक है।

यदि भगवान को मेरी पीड़ा, वेदना एवं गलती होते ही उसका पता उसी क्षण पता चल जाता है और मैं जब उनसे कहता हूँ, किंबहुना कहने का विचार भी करता हूँ, तो वह भी उन्हें उसी क्षण पता चल जाता है। ऐसा यदि है तो फिर भगवान मेरी सुनते क्यों नहीं हैं, मेरी समस्या का समाधान वे क्यों नहीं करते हैं?

मेरे ही प्रारब्ध के कारण निर्माण होनेवाली परिस्थिति नहीं बदलती है तो क्या इसके लिए मैं भगवान को दोष दूँ? कहाँ तक योग्य है यह? इस बात का विचार हर किसी को तो करना ही चाहिए। हिन्दी में एक कहावत है, ‘चोरी तो चोरी ऊपर से सीना जोरी’। वह इस परिस्थिति के संदर्भ में बिलकुल लागू होती है। भगवान को दोष देना चाहिए या नहीं यह तो हर किसी की अपनी सोच पर निर्भर करता है।

अंतत: एक बात तो ध्यान देने योग्य है ही कि मेरी जो भी समस्या है उसका समाधान भगवान उचित समय आने पर जरूर करेंगे, क्योंकि हर घटना का एक निश्‍चित समय होता है। उसी वक्त वह घटना घटित होती है। इस सूत्र को भुलाकर बिलकुल भी नहीं चलेगा।

इसी लिए साईनाथ अपने भक्तों से बारंबार ‘श्रद्धा और सबूरी’ नामक दो पैसे (सिक्के) माँगते रहते हैं। ‘उचित समय आते ही भगवान मेरे लिए उचित वह करेंगे ही’ यह दृढ़विश्‍वास और ‘यह उचित समय आने तक रुकने की तैयारी’ इन दोनों बातों को जिसने भी आत्मसात कर लिया, उसने मानों बाबा को ये दो पैसे दे दिए हैं। हर एक श्रद्धावान अपने साईनाथ को ये दो पैसे अर्पण करके अर्थात इन दोनों बातों को आत्मसात करके और अपनी हर एक कृति का पता उसी क्षण परमात्मा को पता चल ही जाता है, इस बात का ध्यान रखकर अपना जीवन प्रवास करता है।

जिस क्षण से ‘श्रद्धा और सबूरी’ ये केवल दो मूल्य न रहकर मेरी जीवन की वृत्ति बन जाती है, उसी क्षण से किसी भी प्रसंग में परिस्थिति का धैर्यपूर्वक सामना करने की तैयारी उस मनुष्य की हो जाती है।

ऊपर हमने बाबा के मुख से निकले जिस वचन के बारे में गौर किया, उसमें से दो शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं।

‘इतना सदैव स्मरण रहे’ इस पंक्ति में ‘सदैव’ यह शब्द और ‘तुम्हारी इत्थंभूत कृतियों की खबरें’ इस पंक्ति में ‘इत्थंभूत’ यह शब्द। सदैव एवं इत्थंभूत इन दो शब्दों के माध्यम से ही बाबा हमें ‘हमेशा होश में रहो। बिलकुल किसी भी क्षण होश मत गवाना’ यही कहते हैं।

एक बार मनुष्य के पास भाव थोड़ा कम अधिक भी हो तो चल जायेगा, परन्तु ‘वे’ भगवान मुझे सदैव देख ही रहे हैं, यह विश्‍वास कभी भी टूटना नहीं चाहिए। क्योंकि यह विश्‍वास जब टूटने लगता है तो जान लो कि अपने जीवन की गाड़ी का ब्रेक फेल (निष्क्रिय) होने लगा है। फिर तो बस यही होगा कि जिसके मुख में ‘राम’ नहीं उसके जीवन में ‘आ….राम’ कहाँ होगा!

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