श्‍वसनसंस्था-२

हम हमारी श्‍वसनसंस्था का अध्ययन कर रहे हैं। श्‍वसन-संस्था की रचना और कार्य दोनों के बारे में हम जानकारी प्राप्त करनेवाले हैं।

हमारी श्‍वसनसंस्था की शुरुआत हमारी नाक से होती है। फेफड़ें, श्‍वसनसंस्था के मुख्य अवयव हैं। नाक से लेकर फेफडों तक जो जो अवयव इसमें सम्मिलित होते हैं, उन सभी को मिलाकर वायु मार्ग अथवा Air Passage कहते हैं। इसमें हमारी नाक, गला, स्वरयंत्र, श्‍वसननलिका और फेफड़ों में रहने वाली उसकी शाखाएँ इत्यादि अवयवों का समावेश होता है।

श्‍वसनसंस्था की रचना देखने से पहले हम श्‍वसनसंस्था के कार्यों की संक्षिप्त जानकारी लेते हैं। वायु का आदान-प्रदान करने के महत्त्वपूर्ण कार्य के अलावा श्‍वसनसंस्था अन्य कार्य भी करती है। इनमें में पहला कार्य है स्वर, आवाज़ अथवा Phonation। नाक के द्वारा विविध गंधों का ज्ञान करना यह है दूसरा कार्य। इसके अलावा श्‍वसन के दौरान छाती के पिंजरे के आकार को स्थिर रखना और वायु के अलावा अन्य घटकों का आदान-प्रदान करना ये कार्य भी श्‍वसनसंस्था के ही हैं।

श्वसनसंस्था, श्वासोच्छ्वास, फेफड़ें, Air Passage, Phonation, प्राणवायु, शरीर, मोलीक्युलर१) वायु का आदान-प्रदान :
शरीर की प्रत्येक पेशी (कोशिका) को उसके कार्यों के लिए शक्ति प्राणवायु प्रदान करती है। इसके लिये प्राणवायु का मोलीक्युलर रूप में होना आवश्यक होता है। हमारे फेफड़ों की अंतर्गत रचना ही ऐसी होती है कि जिसके कारण वायु के आदान-प्रदान के लिए विस्तृत पृष्ठभाग उपलब्ध होता है। रक्तवाहिनियों का जाल इस कार्य में मदद करता है। यहाँ पर प्रमुख रूप से प्राणवायु और कार्बन डाय ऑक्साईड का आदान-प्रदान होता है।

२) आवाज अथवा स्वरों की निर्मिति :
यह हमारे सुनने के ज्ञान से घनिष्ठ संबंध रखनेवाली बात हैं। हम सुनने की क्रिया से ज्ञान प्राप्त करते हैं और फिर उन सुनें हुए शब्दों का उच्चारण करते हैं यानी बोलते हैं। हमारा स्वरयंत्र सिर्फ शब्दों के उच्चारण में ही मदत नहीं करता, बल्कि इस बात का ख्याल भी रखता हैं कि हमारी श्‍वसननलिका में हवा के अलावा अन्य कोई भी चीज प्रवेश ना करें। स्वरयंत्र और गर्दन की स्नायु चेतातंतु और प्रत्यक्ष मस्तिष्क की चेतापेशी के समन्वय का उत्तम उदाहरण है, हमारा स्वर, हमारी आवाज़, हमारा बोलना। हमारे होंठ, तालु, जीभ, गर्दन के स्नायु, स्वरयंत्र के स्नायु, छाती के स्नायु और पेट के स्नायु आदि सभी की मदत स्वर के निर्माण में होती है।

३) गंधज्ञान :
हमारी नाक की छत, बगल की दीवारों तथा दोनों नासारन्ध्रों के बीच के द्विभाजक परदे पर गंधज्ञान से संबंधित चेतातंतु होते हैं। नाक में प्रवेश करनेवाली हवा में उपस्थित सभी गंधकणों की अचूक जानकारी ये चेतातंतु, मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं।

४) छाती के पिंजरे के आकार को स्थिर रखना :
श्‍वास के माध्यम से हवा अंदर लेने के बाद फेफड़ों के हवा से भर जाने पर हमारी गिलायु हवा के बाहर निकलने का मार्ग बंद कर देती है। पसलियों के स्नायु और शरीर का द्विभाजक परदा आकुंचित होता है। फलस्वरूप छाती के पिंजरे में दबाव बढ़ जाता है और पिंजरा स्थिर हो जाता हैं। इसके कारण पिंजरे के ऊपर से कंधो और हाथों की ओर जानेवाले स्नायुओं की ताकत बढ़ जाती है। जब छाती में दाब बढ़ा हुआ होता है, तब द्विभाजक परदे के फैल जाने पर उसका उपयोग करके पेट के अन्य अवयवों पर दबाव बढ़ाया जा सकता है। इसके दो उत्तम उदाहरण है – शौच के समय मल उत्सर्जित करने के लिये और प्रसूति के दौरान अर्भक को योनिमार्ग की ओर धकेलने में इस दबाव का उपयोग होता है।

अब हम श्‍वसनसंस्था की रचना का अध्ययन करनेवाले हैं। सुविधा के लिए इस रचना को दो भागों में बाँटा जा सकता है।

१) श्‍वसनसंस्था का ऊपरी भाग
और
२) श्‍वसनसंस्था का निचला भाग।

श्‍वसनसंस्था के ऊपरी भाग में नाक के रंध्र, गर्दन और स्वरयंत्र का समावेश होता है और निचले भाग में श्‍वसननलिका, उसकी शाखायें और फेफड़ों का समावेश होता है।

इनकी सविस्तर जानकारी हम अगले लेख में देखेंगें।

(क्रमश:-)

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