बाळासाहब की दूरदृष्टि

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ – भाग ५९

सामाजिक समरसता के बग़ैर एकता संभव नहीं है। समाज संघटित हुए बग़ैर राष्ट्र बलशाली नहीं होगा। इसीलिए बाळासाहब ने सामाजिक समरसता पर सर्वाधिक ज़ोर दिया। संघ द्वारा स्थापन किया गया ‘सामाजिक समरसता मंच’ फुरती के साथ यह कार्य करने लगा। देश के हर एक प्रांत में ‘सामाजिक समरसता मंच’ का कार्य शुरू हो चुका था। उसके लिए बाळासाहब ने स्वतंत्र रूप से प्रचारकों को नियुक्त किया था।

MadhukarDattatraya

पंजाब प्रांत का दौरा कर आये बाळासाहब बहुत ही बेचैन हो चुके थे। पंजाब में सिखों को हिंदुओं से अलग कराने के क्रियाकलाप देश के लिए घातक साबित हुए बग़ैर नहीं रहेंगे, इसका एहसास बाळासाहब को हो चुका था। इन कोशिशों को नाक़ाम करना ही होगा, उसके लिए स्वतंत्र संगठन का निर्माण करना होगा, ऐसा निर्णय सरसंघचालक ने किया। इसीमें से ‘राष्ट्रीय शिख संगत’ नाम का संगठन तैयार हुआ। संघ के स्वयंसेवक रहनेवाले सिखों पर इस संगठन की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। राजनीतिक फ़ायदे के लिए सिखों को अलग कराने की कोशिशें की जा रही हैं, इसका एहसास इस संगठन के ज़रिये करा दिया गया। शुरुआती दौर में सिखों का अधिकांश मात्रा में समावेश रहनेवाले इस ‘राष्ट्रीय सिख संगत’ से बाद के दौर में अन्य लोग भी जुड़ जाने लगे।

गुरुगोविंद सिंह ने सिख समाज को जो विशेष पहचान प्राप्त करा दी, वह धर्मरक्षणकर्ता की ही थी, इसकी याद बाळासाहब ने करा दी। भारत में कई संप्रदाय तथा पंथ हज़ारो वर्षों से भाईचारे से बसते आये हैं। इन पंथों तथा संप्रदायों में कभी टकराव हुआ ही नहीं ऐसा नहीं कहा जा सकता। मग़र हज़ारों वर्ष के इतिहास का अधिकांश समय यह संघर्ष का नहीं, बल्कि सौहार्द का था, यह बात माननी ही होगी। लेकिन जिस जिस दौर में पंथों एवं संप्रदायों के बीच का विवाद चरमसीमा तक पहुँचा, उन दौरों में हमारे समाज की ताकत क्षीण हो गयी। विदेशी आक्रमकों ने इसी का फ़ायदा उठाया। इतिहास से हमने यह सबक नहीं सिखा। बार बार हमारा समाज इन्हीं ग़लतियों को दोहराता रहा। अस्पृश्यता जैसी विनाशक रूढ़ि अभी तक हमारे समाज में मौजूद थी। इस कारण सामाजिक समरसता का महत्त्व और भी बढ़ गया था। देशभर में निरंतर प्रवास करनेवाले और परिस्थिति का सूक्ष्म निरीक्षण करते रहनेवाले पूजनीय सरसंघचालक को हमारे समाज में रहनेवाले इन दोषों का भी एहसास था।

इसी कारण सामाजिक समरसता को बढ़ाने के लिए सरसंघचालक एक ही समय कई स्तरों पर प्रयास कर रहे थे। हिंदु धर्म का ही अंग रहनेवाले विभिन्न पंथ, संप्रदाय इनमें एकता को बढ़ाने के लिए बाळासाहब ने संघ के गीत एवं काव्य लिखनेवालों पर एक अलग ही ज़िम्मेदारी सौंपी। संघ के ‘एकात्मता स्तोत्र’ में देवीदेवता, देश की भौगोलिक रचना, नदियाँ, पर्वत, इस देश में जन्में साधुसंत, वीरपुरुष एवं वीरांगनाएँ इनका पूज्य भाव से स्मरण किया जाता है। सारे देश को एक करनेवाले महापुरुष, कवि, कलावंत इनका भी इस एकात्मता स्तोत्र में स्मरण किया जाता है। इसी प्रकार भारतीय संस्कृति का अंग रहनेवाले सभी पंथों एवं संप्रदायों को जोड़नेवाला ‘एकात्मता मंत्र’ तैयार करो, ऐसी सूचना बाळासाहब ने की। उनकी सूचना के अनुसार अध्ययन शुरू हुआ और अल्प अवधि में ही संघ का ‘एकात्मता मंत्र’ तैयार हुआ।

शाखाओं में नियमित रूप से एकात्मता स्तोत्र के साथ ही एकात्मता मंत्र का भी गान शुरू हुआ। इस एकात्मता मंत्र का प्रभाव भी दिखायी देने लगा। हमारे पंथ, संप्रदाय की ओर आदरभाव से देखा जा रहा है, यह संदेश पंथों एवं संप्रदायों को मिला ही; साथ ही, हम व्यापक रहनेवाली मूल भारतीय संस्कृति का हिस्सा हैं, यह भाव भी इससे अधिक दृढ़ बन गया। बाळासाहब को यही अपेक्षित था। सामाजिक समरसता के बग़ैर एकता संभव नहीं है। समाज संघटित हुए बग़ैर राष्ट्र बलशाली नहीं होगा। इसीलिए बाळासाहब ने सामाजिक समरसता पर सर्वाधिक ज़ोर दिया। संघ द्वारा स्थापन किया गया ‘सामाजिक समरसता मंच’ फुरती के साथ यह कार्य करने लगा। देश के हर एक प्रांत में ‘सामाजिक समरसता मंच’ का कार्य शुरू हो चुका था। उसके लिए बाळासाहब ने स्वतंत्र रूप से प्रचारकों को नियुक्त किया था।

विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करनेवालें संघ के संगठनों पर बाळासाहब का ध्यान रहता था। इन संगठनों के कार्यक्रमों को बाळासाहब उपस्थित रहा करते थे। समय समय पर मार्गदर्शन करते थे। केवल देश के संगठनों के कार्य पर ही नहीं, बल्कि संघ के ‘विश्‍व विभाग’ के कार्य पर भी बाळासाहब का ध्यान रहा करता था। संघ के ‘विश्‍व विभाग’ की ज़िम्मेदारी लक्ष्मणरावजी भिडे एवं चमनलालजी कई सालों से सँभाल रहे थे। ‘विश्‍व विभाग’ के कार्य का अधिक से अधिक विस्तार हो रहा था। उसी दौरान उसका सूत्रसंचालन करनेवाले लक्ष्मणरावजी की उम्र ढलने लगी थी। इसी कारण ‘विश्‍व विभाग’ में युवा प्रचारक की आवश्यकता होने का एहसास बाळासाहब को हो गया। इसीलिए उन्होंने रवीकुमार अय्यर इस तमिलनाडू के युवा स्वयंसेवक पर यह ज़िम्मेदारी सौंप दी।

रवीकुमार अय्यर मद्रास युनिव्हर्सिटी में से फ़र्स्ट क्लास में पास हुए इंजिनिअर थे। उन्होंने शुरुआती दौर में विद्यार्थी परिषद के लिए कार्य किया। अगले समय में उनपर संघ के कार्य की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। आगे चलकर स्वयं सरसंघचालक ने ही उनपर ‘विश्‍व विभाग’ का कार्य सौंपा। रवीकुमारजी यानी अध्ययनशील व्यक्तित्त्व। उन्होंने समाज एवं राष्ट्र के बारे में चिंतन करनेवालीं उत्तम क़िताबें लिखी हैं। उत्तम वक्तृत्वगुण रहनेवाले रवीकुमार की मातृभाषा तमिल के साथ ही, हिंदी, मराठी, गुजराती, मल्याळी तथा अँग्रेज़ी भाषा पर भी महारत है। इस कारण विदेशस्थ भारतीयों रवीकुमारजी आसानी से अपना लेते थे।

लक्ष्मणराव भिडे के मार्गदर्शन में रवीकुमार तैयार हुए। उन्होंने ‘विश्‍व विभाग’ में कार्य करनेवाले युवाओं की टीम तैयार की। लक्ष्मणराव भिडे का देहान्त हो जाने के बाद, ‘विश्‍व विभाग’ की ज़िम्मेदारी युवा प्रचारक सौमित्र गोखलेजी पर सौंपी गयी। सौमित्रजी का वास्तव्य अमरीका में रहता है। उन्होंने और रवीकुमारजी ने मिलकर ‘विश्‍व विभाग’ के कार्य को बहुत ही आगे बढ़ाया है।

किसी में रहनेवाली क्षमता झट से भाप लेना यह बाळासाहब की ख़ासियत थी। रवीकुमार अय्यर में बहुत बड़ी क्षमता है, उनसे मुझे बहुत सारी उम्मीदें हैं, ऐसा बाळासाहब हमेशा कहते थे। रवीकुमार अय्यर अभी भी ‘विश्‍व विभाग’ के प्रचारक के तौर पर कार्यरत हैं।

संघ के कार्य का आज विदेश में प्रचंड विस्तार हुआ है। जब उसे देखता हूँ, तो मुझे बाळासाहब की गुणग्राहकता का स्मरण होते रहता है। बाळासाहब को एक और युवा स्वयंसेवक से बहुत बड़ी उम्मीदें थीं। इस स्वयंसेवक के बारे में भी वे बहुत आत्मीयता के साथ बोलते थे। उस स्वयंसेवक का नाम – नरेंद्र मोदी! ये उस दौरान गुजरात प्रांत के ‘विभाग प्रचारक’ ही थे। बाळासाहब ने उन्हें मुंबई बुला लिया। बाळासाहब जब कभी भी मुंबई आते थे, तब उनका निवास हमारे घर में होता था, यह हमारा परमभाग्य था। बाळासाहब से मिलने नरेंद्र मोदीजी हमारे घर आये। संघ के स्वयंसेवक रहते हुए ही आपको राजनीतिक क्षेत्र में कार्य करना है, ऐसा आदेश बाळासाहब ने नरेंद्र मोदीजी को दिया। इस आदेश के अनुसार नरेंद्र मोदीजी गुजरात में भारतीय जनता पार्टी का कार्य करने लगे।

यह सन १९८९ की बात है। २७ साल बाद नरेंद्र मोदीजी भारत के प्रधानमंत्री बने हैं। बाळासाहब ने नरेंद्र मोदीजी में रहनेवाली क्षमता को अचूकतापूर्वक पहचाना था। बाळासाहब की दूरदृष्टि भविष्यकाल को पहचान सकती थी, इसकी यह सर्वोत्तम मिसाल साबित होगी।

निरंतर प्रवास एवं निरीक्षण, चिंतन, मनन करते रहनेवाले बाळासाहब को विश्राम के लिए बहुत ही कम व़क्त मिल पाता था। हमेशा कार्यरत रहने का असर शरीर पर होता ही है। बाळासाहब के स्वास्थ्य पर उसके परिणाम दिखायी देने लगे। उन्हें मधुमेह (डायाबिटीज़) हुआ था। बाळासाहब बिना चुके मधुमेह के परहेज़ का पालन करते थे। बचपन से बाळासाहब के साथ ही संघ में कार्य करनेवाले उनके सहकर्मी एक एक करके उनका साथ छोड़कर इस दुनिया से विदा ले रहे थे।

माधवराव मुळ्ये, आप्पाजी जोशी इन अपने साथियों के निधन का बाळासाहब को झटका लगा था। बाळासाहब के छोटे भाई भाऊराव देवरस का भी निधन हो गया। डॉक्टरसाहब ने तैयार की हुई संघ के ‘बाळ’ और ‘भाऊ’ की जोड़ी अब टूट चुकी थी। गुरुजी के पश्‍चात् बाळासाहब के भी स्वीय सचिव बनें डॉ. आबाजी थत्ते का स्वास्थ्य भी बिगड़ता चला जा रहा था। डॉक्टरसाहब ने संघ की पहली ‘बाल शाखा’ शुरू की, उस समय ‘बाळ’ के साथ आये हुए ‘एकनाथ’ अर्थात एकनाथजी रानडे भी कालवश हो गये। उनके निधनपश्‍चात् बाळासाहब को अतीव दुख हुआ था।

‘संघ प्रचारक’ के तौर पर कार्य करनेवाले, मोहमाया का त्याग कर, अपने कार्य पर ही सारा ध्यान केंद्रित करते हैं। स्वयं की तबियत की भी वे परवाह नहीं करते। खाना मिला तो ठीक, नहीं मिला तो खाली-पेट रहनेवाले और इस बात का किसी को भी पता न चलने देनेवाले प्रचारक हमने देखे हैं। सायकल पर सवार होकर मीलोंमील प्रवास करनेवाले, तो कभी पैदल चलकर संघ के कार्य को आगे बढ़ानेवाले प्रचारक अपने सुख-सुविधाओं के बारे में नहीं सोचते। अपने परिवार का भी वे मोह नहीं रखते। इसके परिणाम उनके स्वास्थ्य पर दिखायी देने ही लगते हैं। लेकिन इस बात का भी, बिना तक़रार के, मुस्कुराते हुए स्वीकार कर कार्य करते रहनेवाले प्रचारक पर जब अपना साथी गँवाने की नौबत आती है, तब वे अपनी भावनाओं को क़ाबू में नहीं रख सकते।

बाळासाहब के साथ भी वही हुआ। बचपन से डॉक्टरसाहब द्वारा निर्देशित ध्येय की ओर और श्रीगुरुजी के मार्गदर्शन में अपने जैसे ही मार्गक्रमणा करनेवाले साथी एक एक करके इस दुनिया से विदा लेते समय, बाळासाहब को उनके वियोग की चरमसीमा की यातनाएँ हो रही थीं। बाळासाहब के मन में क्या चल रहा है, उसकी किसी को भी कभी भी ख़बर नहीं रहती थी। भावनाओं के विकार उनके चेहरे पर कभी भी दिखायी नहीं देते थे। लेकिन अपने साथी अब इस दुनिया में नहीं रहे, इसका दुख बाळासाहब के मन की गहराई में जाकर बैठा था। इस दुख को साथ लेकर बाळासाहब संघकार्य का सूत्रसंचालन कर रहे थे। हिंदुओं को समर्थ बनाकर, उसके ज़रिये राष्ट्र को अधिक से अधिक बलशाली बनाने के लिए जो कुछ भी संभव है, वह सब बाळासाहब कर रहे थे। व्यक्तिगत स्तर पर का दुख बाळासाहब के इस कार्य में बाधा बनकर कभी आ न सका।

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