संघटन

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – भाग १२

तय कार्यक्रम के अनुसार शाम के समय माधव शाखा में गये। वहाँ डॉक्टर उनकी प्रतिक्षा कर रहे थे। शाखा का कार्यक्रम सम्पन्न हो जाने के बाद उन्हें लेकर डॉक्टर अपने घर आये और उनके साथ गप-शप करने लगे। ‘मुझे पता चला है कि तुमने ‘बनारस हिन्दु युनिव्हर्सिटी’ में प्राध्यापक की नौकरी छोड़ दी है और आज कल तुम नागपुर में भी नहीं रहते हो। तो इस समय तुम कर क्या रहे हो?’ ऐसा डॉक्टर ने पूछा।

मैंने संन्यास स्वीकार कर लिया है और मैं वर्तमान समय में बंगाल के एक आश्रम में रह रहा हूँ। वहीं मुझे माँ की तबियत खराब होने की सूचना मिली, इसीलिये मैं उन्हें देखने के लिये यहाँ आया हूँ। माँ की तबियत में सुधार होने के बाद मैं यहाँ से वापस लौट जाऊँगा, ऐसी जानकारी माधव ने दी। ‘हम सबकी भारत माँ की तबियत भी काफी  खराब हो चुकी है, उसका क्या? तुम जब तक यहाँ पर हो, मुझसे मिलते रहो, का़ङ्गी काम है।’ डॉक्टर का बहुत ही आदर करने वाले माधव ने उनका कहना मान लिया और वे डॉक्टर को नियमित रूप से मिलते रहे।

सन् 1930 में जंगल-सत्याग्रह में डॉक्टर सम्मिलित हुये थे और इसके लिये उन्हें नौ महीने की सज़ा भी हुई थी। इस दौरान भी संघ के कार्य शुरु ही थे। इसी दरम्यान डॉक्टर की मुलाकात बाबू पद्मराज जैन और महामना पंडित मदनमोहन मालविय से हुयी। इन दोनों ने डॉक्टर द्वारा किये जा रहे कार्यों को जानकर उन्होंने डॉक्टर को आर्थिक सहायता करने का वादा किया। परन्तु डॉक्टर ने ये पैसे लेने से इन्कार कर दिया। मुझे धन नहीं चाहिये, मुझे संघटन के काम हेतु युवक चाहिये, ऐसा डॉक्टर ने कहा।

आर्थिक सहायता की अपेक्षा देश के लिये सर्वस्व अर्पण कर सकने वाले युवकों की आवश्यकता है, ऐसा डॉक्टर का कहना था। इसीलिये माधव जैसे ओजस्वी युवकों को ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ’ से जोड़ने की कोशिश डॉक्टर मन:पूर्वक कर रहे थे। इसी दरम्यान स्वतंत्रता-संग्राम-सैनिक वीर सावरकर को अंदमान स्थित जेल से मुक्त करके रत्नागिरी में नज़रबंद करके रखा गया। डॉक्टर सावरकर से मिलने के लिये रत्नागिरी गये। संघ के कार्यों की संपूर्ण जानकारी सावरकर को दी। यह जानकारी पाकर स्वातंत्रवीर सावरकर काफी प्रभावित हुए।

डॉक्टर पूरे देश में भ्रमण करके संघ के कार्यों को बढ़ा रहे थे। सन् 1934 में वर्धा में संघ का ‘हेमंत शिबिर’ चल रहा था। इस समय महात्मा गांधीजी भी वर्धा में थे। उनके सचिव महादेवभाई देसाई ने गांधी से इस शिबिर में जाने का आग्रह किया। गांधीजी इस शिबिर में आये। डॉक्टर और स्वयंसेवकों ने गांधीजी का मन:पूर्वक स्वागत किया। शाम के समय जमनालाल बजाज मैदान में स्वयंसेवक एकत्रित हुए। इस अवसर में डॉक्टर ने गांधीजी से स्वयंसेवकों को संबोधित करने का आग्रह किया।

गांधीजी ने एक स्वयंसेवक से उसका नाम पूछा और उसकी जाति पूछी। उस स्वयंसेवक ने अपना नाम बताया और ‘मैं हिन्दू हूँ’ इतना ही उत्तर दिया। तुम हिन्दू हो, यह तो पता चल गया परन्तु तुम्हारी जाति कौन सी है? इस पर स्वयंसेवक का उत्तर था, ‘मैं केवल हिन्दु हूँ।’ इसके बाद गांधीजी ने एक और स्वयंसेवक से यही प्रश्‍न पूछाँ। उसने भी ‘मैं हिन्दु हूँ’ यहीं उत्तर दिया। इसके बाद और दो स्वयंसेवकों ने गांधीजी को ऐसा ही उत्तर दिया। ‘पूरे देश में जो भी हैं, वे हिन्दु हैं और यह हिन्दुओं का देश हैं।’ ऐसा एक स्वयंसेवक ने गांधीजी से कहा।

यह सुनकर गांधीजी प्रभावित हुए। ‘यह तुमने अद्भुत कार्य किया है’ इन शब्दों में गांधीजी ने डॉक्टर की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। ‘जातिभेद और ऊँच-नीच का भेदभाव समाप्त करने का प्रयास मैं कितने वर्षों से कर रहा हूँ। वह कार्य तुमने करके दिखा दिया है। मुझे यहाँ पर सामाजिक समरसता के यथार्थ दर्शन हो गये हैं’, ऐसा यहाँ पर गांधीजी ने कहा। अपने संस्मरण में भी गांधीजी ने इसका उल्लेख विशेष तौर पर किया है।

देश की स्वतंत्रता के लिये लड़ाई इस दौरान तेज़ हो गयी थी। राजकीय पक्षों के कार्यक्रम, जन-आंदोलन, क्रान्तिकारियों का संघर्ष शुरु था। इस दौरान संघ के कार्य करते समय, हमें स्वतंत्रता का भी उद्घोष करना है। देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में हमें भी साथ देना है, इसका अहसास डॉक्टर स्वयंसेवकों को बारम्बार कराते रहते थे।

काँग्रेस छोड़ने के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस से डॉक्टर से मुलाकात की। संघ के द्वारा तैयार किये गये युवावर्ग को देखकर नेताजी ने समाधान व्यक्त किया। नेताजी ने डॉक्टर से पूछा, ‘आपके कार्य और उसके उद्देश्य क्या हैं?’ ‘भारतवर्ष के हिन्दु समाज को संघटित और सुसंस्थापित करके देश को समर्पित करना ही हमारा ध्येय हैं।’ ऐसा डॉक्टर ने कहा। इस पर नेताजी ने प्रश्‍न किया, ‘केवल हिन्दुओं को ही क्यों संघटित कर रहे हो? इस में अन्य लोगों को समाविष्ट क्यों नहीं करते?’ डॉक्टर ने इसका बहुत ही मार्मिक उत्तर दिया।

‘देश की जो भी वर्तमान स्थिति है, उसका प्रमुख कारण यह है कि हिन्दु संघटित नहीं हैं। इसीलिये हजारों वर्षों से मुट्ठी भर विदेशी इस देश पर राज कर सके। इसलिये हिन्दुओं को संघटित करना यह सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साबित होता है। जिस दिन इस देश का हिन्दु समाज संघटित हो जायेगा, उसी दिन इस देश की सारी समस्यायें समाप्त हो जायेंगी। इसीलिये हिन्दुओं को संघटित करके, जाति-पाँति का भेदभाव, उच्च-नीच का भेदभाव समाप्त करने का काम मैं सबसे पहले कर रहा हूँ। जब यह कार्य पूर्ण हो जायेगा, तो अन्य लोगों को भी संघटित किया जायेगा।’ डॉक्टर ने ऐसा नेताजी को बताया। शायद उस समय नेताजी को डॉक्टर का यह कथन मान्य न हुआ होगा और वे वहाँ से चले गये। डॉक्टर के साथ नेताजी की इस मुलाकात के समय माधव वहाँ उपस्थित थे।

नागपुर में अपने वास्तव्य के समय माधव, डॉक्टर की सहायता कर रहे थे। परन्तु वापस आश्रम में जाने की उनकी जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। परन्तु कोई ना कोई काम बताकर डॉक्टर माधव को रोकते रहते थे। एक दिन डॉक्टर ने संघ के अखिल भारतीय बै़ठक की योजना बनाने और उसके सूत्रसंचालन की ज़िम्मेदारी माधव को सौंप दी। यह सब काम माधव ने अतिशय उत्कृष्ट ढ़ंग से पूरा किया। इसके बाद माधव डॉक्टर से आश्रम में वापस जाने की अनुमति मांगने लगे। माधव ने कहा, ‘अब माँ की तबियत ठीक है, मुझे आश्रम में लौट जाना चाहिये।’

‘तुम्हें जाना ही है तो जाओ, परन्तु उससे पहले मेरी बात सुनो। आश्रम में जाकर या अन्य किसी गिरिकंदरा में जाकर तुम साधना करोगे। उससे क्या होगा, तुम्हें मोक्ष प्राप्त होगा। परन्तु  ध्यान में रखो की हमें हिन्दू समाज के उत्थान की चिन्ता करनी हैं। ऐसा हुआ तो ही यह राष्ट्र बचेगा। समाज में रहकर संघ के कार्य करते समय, समाज में रहकर भी हम संन्यस्त जीवन जी सकते हैं। देश की यह जो भी दशा हुई है, क्या हम सब उसके लिये ज़िम्मेदार नहीं हैं? इसीलिये हमें अपनी ज़िम्मेदारी समझकर अपने कर्तव्यों का पालन करना होगा। इसीलिये माधव मुझे तुम्हारी आवश्यकता है, समाज के लिये और राष्ट्र के लिये।’

यह सब सुनकर माधव भावविभोर हो उ़ठे। उनके मन में द्वंद्व शुरु हो गया। एक ओर पहले ही स्वीकार किया जा चुका संन्यास और दूसरी ओर डॉक्टर द्वारा समाज और राष्ट्र के लिये किया गया आवाहन। अंतत: डॉक्टर के विचार उन्हें पूर्णत: मान्य हो गये और ‘माधव सदाशिव गोळवलकर’ ने स्वयं को संघ के कार्य के लिये पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया।
(क्रमश:………)

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