परमहंस-१३१

कोलकाता के श्यामापुकुर स्ट्रीट स्थित मक़ान में रामकृष्णजी निवास के लिए आये थे। नीचली मंज़िल पर एक बड़ा दीवानखाना और एक मध्यम आकार का कमरा और ऊपरि मंज़िल पर दो एकदम छोटे कमरें, ऐसा इस जगह का स्वरूप था। नीचली मंज़िल पर के उस मध्यम आकार के कमरे को रामकृष्णजी निवासस्थान के रूप में इस्तेमाल करें और बड़े दीवानखाने में मिलने आये भक्तों से मुलाक़ात करें, ऐसा तय हुआ था। ऊपरि कमरों में, दिनरात उनकी साथसंगत करनेवाले उनके एकदम क़रिबी शिष्यगण बारी बारी से रहनेवाले थे।

लेकिन मुख्य प्रश्‍न परहेज़ के खाने का उपस्थित हुआ। ये उनके साथ रह रहे सभी शिष्य हालाँकि उन्हें पूरी तरह समर्पित थे, मग़र फिर भी खाना, और वह भी परहेज़ का खाना बनाने का अनुभव उनमें से किसी को भी नहीं था। क्या शारदादेवी को बुलाया जाये, ऐसा विचार अब वहाँ शुरू हुआ।

लेकिन ना जाने यह बात रामकृष्णजी को पसन्द आयेगी भी या नहीं; और मुख्य बात इतने छोटे कमरे में भला शारदादेवी कैसे अपने आपको समायोजित कर पायेंगी, इसके बारे में शिष्यों के दिल में साशंकता थी।

लेकिन दोनों मुश्किलें गुरुकृपा से ही हल हो गयीं। शारदादेवी यदि समायोजित कर सकेंगी, तो उन्हें पूछने में कोई हर्ज़ नहीं, ऐसी अनुमति रामकृष्णजी ने दे दी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णवहीं, रामकृष्णजी के परहेज़ के खाने की यह दिक्कत सुनते ही आगे-पीछे की बिलकुल भी न सोचते हुए शारदादेवी ने हामी भर दी। रामकृष्णजी के पास उनका बचपन से जो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रशिक्षण हुआ था, उसमें – ‘बदलते हालातों से अपने आपको समायोजित कर पाना’ यह हमेशा ही महत्त्वपूर्ण मुद्दा हुआ करता था। अत एव यह ख़बर सुनते ही वे फ़ौरन ही अपने थोड़े कपडे आदि लेकर वहाँ रहने आयीं भी।

वहाँ रामकृष्णजी की सेवा कर रहे शिष्यों में विभिन्न विचारधाराओं वाले लोग थे। इस कारण उनकी इस बीमारी के बारे में अलग अलग सोचें ज़ाहिर की जा रही थीं। कुछ लोगों का कहना था कि ‘रामकृष्णजी ने खुद अपनी ही इच्छा से किसी बड़े वैश्‍विक कार्य के लिए इस बीमारी का स्वीकार किया है।’ उनका यह कार्य सिद्ध हो जाने के बाद वे स्वयं होकर उस बीमारी से बाहर निकलेंगे, ऐसा यक़ीन ये लोग ज़ाहिर करते थे। विभिन्न दिशाओं में बिखरे हुए रामकृष्णजी के शिष्य उनकी इस बीमारे के चलते ही एकसाथ आये, उनमें एकसंघता आयी, जो कि रामकृष्णपरिवार के लिए आनेवाले समय में बहुत ही उपयोगी साबित होगी, इसकी ओर ये लोग निर्देश करते थे।

कुछ लोगों का मत – ‘रामकृष्णजी ये स्वयं को देवीमाता के हाथ का केवल एक साधन मानते थे। अतः देवीमाता ने ही किसी अनाकलनीय कारण की वजह उनके माथे पर बीमारी थोंप दी होगी’ ऐसा था।

वहीं, कुछ वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण होनेवाले युवा शिष्य – ‘उनकी बीमारी यह महज़ एक नैसर्गिक, शारीरिक घटना है, क्यों उसे आध्यात्मिक संपुट में बिठा रहे हो’ ऐसा युक्तिवाद करते थे। ‘एक बार जब मानवी देह का स्वीकार किया है, तो फिर सारे शारीरिक-भौतिक नियम लागू होनेवाले हैं, जिनमें उम्र के अनुसार बढ़ना, विभिन्न बीमारियाँ, उम्र के अनुसार शरीर का थकना, इतना ही नहीं, बल्कि मृत्यु का भी समावेश है’ इसकी ओर ये लोग निर्देश करते थे।

लेकिन ‘हमारे तारणहार रामकृष्णजी ही हैं और हमारी आध्यात्मिक उन्नती केवल उन्हीं के माध्यम से होगी’ इसके बारे में उनमें से एक के भी मन में दोराय नहीं थी।

इस प्रकार अब शारदादेवी का उस छोटे से कमरे में दिनक्रम शुरू हुआ। उस घर में वे अकेली ही महिला थीं। अतः अन्य लोगों के जागने से पहले ही यानी भोर के तीन बजे ही वे उठ जाती थीं। फिर गंगानदी पर स्नान, फिर घर आकर उपासना आदि ख़त्म कर वे रामकृष्णजी के और शिष्यों के खाने की तैयारी में लग जाती थीं। यह खाना बनाने का प्रबन्ध, टेरेस पर अस्थायी रूप से पर्दे आदि लगाकर तैयार की गयी जगह में किया गया था। दोपहर को रामकृष्णजी खाना खाने के बाद जब थोड़ी देर आराम करने अपने कमरे में जाते थे, तब ही वे टेरेस से पहली मंज़िलवाले अपने कमरे में आकर थोड़ासा आराम करती थीं। उसके बाद उपासना आदि करके वे शाम के खाने की तैयारी में जुट जाती थीं।

पुनः रात को सबका खाना होने के बाद जब सर्वत्र शान्त हो जाता था, तब ही वे लगभग ११ बजे उस टेरेस पर से नीचे अपने कमरे में आ जाती थीं और उपासना करके सो जाती थीं। उपासना के साथ ही, रामकृष्णजी की तबियत को आराम मिलने के लिए वे लगातार प्रार्थना करती थीं।

ऐसा लगभग तीन महीने यह दिनक्रम जारी था। लेकिन यह बीमारी कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.