परमहंस-१३३

इसी बीच दुर्गापूजा उत्सव नज़दीक आया। वैसे तो यह उत्सव यानी दक्षिणेश्‍वर में रामकृष्णजी के शिष्यों के लिए मंगल पर्व ही होता था। क्योंकि यह देवीमाता का उत्सव होने के कारण रामकृष्णजी भी उसमें दिल से सम्मिलित होते थे। इस उत्सव के उपलक्ष्य में जो सत्संग होता था, उसके दौरान रामकृष्ण भावसमाधि को प्राप्त होने के वाक़ये कई बार घटित होते थे और भावसमाधि में रामकृष्णजी को निहारना, अनुभव करना यह रामकृष्ण-शिष्यों के लिए प्राणप्रिय बात थी।

लेकिन अब यहाँ वैसी कोई गुंजाइश ही नहीं थी। रामकृष्णजी की इस बढ़ती बीमारी के दौरान डॉक्टर ऐसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं देनेवाले थे, जिससे उनकी बीमारी और बढ़ेगी। लेकिन रामकृष्णजी के एक क़रिबी शिष्य सुरेंद्रनाथ मित्रा के घर में भी वंशपरंपरागत पद्धति से यह उत्सव हर साल मनाया जाता था और रामकृष्णजी उत्सव के किसी एक दिन वहाँ हो आते थे। तब हर्षोल्लास के साथ सत्संग होता था। लेकिन चूँकि इस साल बीमारी के कारण रामकृष्णजी का वहाँ जाना असंभव था, सुरेंद्र को बहुत ही दुख हो रहा था।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णयहाँ श्यामापुकूर में भी शिष्यगणों के उत्साह पर पानी फेर गया था। लेकिन हालाँकि बड़े पैमाने पर उत्सव नहीं मनाया जानेवाला था, मग़र उत्सव के दूसरे दिन एक छोटा-सा सत्संग रामकृष्णजी के कमरे में हो ही गया। उत्सव के इस दूसरे दिन की शाम को उनके क़रिबी शिष्य और अन्य कुछ भक्तगण रामकृष्णजी के कमरे में इकट्ठा हो गये। डॉ. सरकार भी उनमें थे।

बातें करते करते धीरे धीरे भक्तिगीत भी प्रस्तुत होने लगे और सत्संग शुरू हो गया। रामकृष्णजी बीच बीच में भावसमाधि को प्राप्त हो रहे थे। शाम के साढ़ेसात बज गये। डॉक्टरसाहब ने उठकर वहाँ से विदा लेने के लिए रामकृष्णजी की अनुमति माँगी। उन्हें विदा करने के लिए रामकृष्णजी उठकर खड़े हो गये और अचानक गहरी भावसमाधि में गये। उनकी आँखें खुली थीं, लेकिन इस भौतिक दुनिया से उनका कुछ भी संबंध दिखायी नहीं दे रहा था।

अब आगे क्या होगा, इसकी प्रतीक्षा करते हुए शिष्यगण रामकृष्णजी की ओर टकटकी लगाकर बैठे रहे। निकले हुए डॉक्टर भी रुक गये। रामकृष्णजी लगभग आधे घण्टे तक भावसमाधि में स्तब्ध, हलचलरहित अवस्था में खड़े थे।

उनके इस समाधिअवस्था में होते हुए डॉ. सरकार तथा इकट्ठा हुए भक्तगणों में से एक और डॉक्टर ने रामकृष्णजी की नाड़ीपरीक्षा, दिल की धड़कन आदि परीक्षाएँ भी कीं। ना हाथ को उनकी नाड़ी लग रही थी, ना स्टेथोस्कोप में दिल की धड़कन सुनायी दे रही थी! इतना ही नहीं, बल्कि उनकी खुलीं आँखों की पुतलियों को हाथ लगाकर देखा, फिर भी कुछ भी गतिविधि नहीं हो रही थी। शरीर भी लकड़ी की तरह कड़क हो गया था। अर्थात् जिन्दा होने का कोई भी लक्षण रामकृष्णजी में उन्हें नहीं दिखायी दिया था।

लगभग आधे घण्टे में रामकृष्णजी धीरे धीरे सभान होकर, इस भौतिक जगत् में लौट आये होने के लक्षण दिखाने लगे। तब दोनों डॉक्टरों ने स्वयं होकर क़बूल किया कि यह सारा वाक़या यक़ीनन ही विज्ञान (सायन्स) से बहुत ही परे है और इस वाक़ये का तर्कसंगत स्पष्टीकरण देने में विज्ञान असमर्थ है।

भावसमाधि से जाग गये रामकृष्णजी क्या कहते हैं, इसकी सभी लोग बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। सभान होने के बाद रामकृष्णजी ने कहा – ‘मैंने एक बहुत ही दिव्य प्रकाशमान् मार्ग देखा, जो यहाँ से सुरेंद्र के घर तक जा रहा था। सुरेंद्र की भक्ति से प्रसन्न होकर देवीमाता उसकी घर की मूर्ति में साक्षात आयी है। उसकी तीसरी आँख में से दिव्यप्रकाश सर्वत्र प्रसारित हो रहा है। लेकिन सुरेंद्र उसके घर के आँगन में, मैं पूजा के लिए नहीं आया इसलिए बहुत ही दुखी होकर ज़ोर-ज़ोर से रो रहा है। जाओ, तुम जाकर उसकी सांत्वना करो, उसे आधार दो।’

फिर उनके कुछ क़रिबी शिष्य उनकी आज्ञा के अनुसार सुरेंद्र के घर गये, तो वाक़ई सुरेंद्र आँगन में बैठकर ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था और रोने का कारण भी वहीं था, जो रामकृष्णजी ने बताया था। तब अचंभित हुए शिष्यों ने उसे यह सारा वाक़या बताकर उसकी सांत्वना की कि ‘रामकृष्ण भले ही भौतिक रूप में यहाँ न आ सके हों, मग़र उनकी कृपादृष्टि तुमपर है ही; और वे तुम्हें याद भी करते हैं।’ डॉक्टरों को जब यह हक़ीगत ज्ञात हुई, तो वे भी अत्यधिक हैरान हो गये। रामकृष्णजी के शिष्यगण, जो उन्हें ‘अपना भगवान’ मानते हैं, उसमें कहीं सच्चाई तो नहीं, ऐसा शक़ अनजाने ही डॉक्टर साहब के दिल में प्रविष्ट होने लगा था।

इस तरह, केवल वैद्यकीय ईलाज के लिए रामकृष्णजी के संपर्क में आये हुए और बहुत ही तार्किक एवं बुद्धिवादी दृष्टिकोण होनेवाले उनके डॉक्टर की मनोभूमिका भी कुछ समय में आमूलाग्र बदली थी।

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