नेताजी-७५

गाँधीजी और सुभाषबाबू को दिल्ली ले जानेवाली गाड़ी जैसे जैसे उत्तरी भारत में जा रही थी, वैसे वैसे भगतसिंगजी के प्रति वहाँ के जनमत में रहनेवाली उत्कटता भी प्रतीत हो रही थी।

गाड़ी के दिल्ली पहुँचने तक भगतसिंगजी आदि को फाँसी देने की तैयारी सरकार ने पूरी कर ली है ऐसी ख़बर आयी। दिल्ली उतरकर गाँधीजी फ़ौरन भगतसिंगजी आदि की रिहाई के लिए मध्यस्थता करने व्हाईसरॉय आयर्विन से मिलने उसके राजमहल में गये। लेकिन ‘गाँधीजी-आयर्विन समझौते’ के समय व्हाईसरॉय के रवैये में रहनेवाला खुलापन इस मुलाक़ात में ग़ायब हो चुका था। इसलिए गाँधीजी की यह मध्यस्थता क़ामयाब नहीं हो सकी और साथ ही ‘आप भला सशस्त्र क्रान्ति की राह पर चलनेवालों की तऱफ़दारी क्यों कर रहे हैं?’ ऐसी उपहासपूर्ण तानेबा़जी व्हाईसरॉय से गाँधीजी को सुनने पड़ी। मग़र तब भी ‘भगतसिंगजी का यह मामला संवेदनशील होने के कारण जरा सब्र से काम लीजिए, जल्दबा़जी में कोई भी कदम मत उठाइए’, ऐसा गाँधीजी ने दिल्ली से प्रस्थान करने के पूर्व व्हाईसरॉय को भेजे हुए ख़त में लिखा था।

२९ मार्च को कराची अधिवेशन शुरू हो रहा था। २३ मार्च को गाँधीजी, सुभाषबाबू आदि सभी लोग गाँधीजी की मध्यस्थता के नाक़ामयाब होने की चुभन के साथ दिल्ली से कराची जानेवाली गाड़ी में बैठ गये और चन्द कुछ ही घण्टों में उस दिल दहला देनेवाली ख़बर ने सबके होश उड़ा दिये….

….भगतसिंग, सुखदेव और राजगुरु इन्हें सरकार ने २३ तारीख़ की रात को ही फाँसी दे दी थी। उनके पार्थिव के दर्शन करने का अवसर भी उनके आप्तों को नहीं दिया गया। जेल के अहाते में ही उसी रात चिता जलाकर उनके पार्थिव को अग्नि दे दी गयी और उनकी रक्षा को सतलज नदी में फ़ेंका गया।

ज़ुल्मी अँग्रे़जी सत्ता के पाशवीय दमनतन्त्र का प्रतिकार करनेवाले तीन और वीरों की बली स्वतन्त्रता की वेदी पर चढ़ा दी गयी, वे ‘शहीद’ बन गये।

२४ मार्च को कराची स्टेशन पर गाँधीजी और अन्य लोगों का स्वागत सीने में सुलगते हुए अँगारों के साथ युवकों ने काले झण्ड़ें दिखाकर किया। भगतसिंगजी की हत्या के बाद सारा देश शोकसागर में डूब गया था और देशभर में हड़ताल की गयी। कई जगह हिंसा की घटनाएँ हुईं।
कराची अधिवेशन पर भी इस तनावपूर्ण माहौल का साया था। बुज़ुर्ग नेताओं में से किसी की भी कुछ भी सुनने की मनःस्थिति में क्रोधित युवावर्ग नहीं था। वहीं, भगतसिंग द्वारा स्थापित ‘नौजवान सभा’ के युवा कार्यकर्ताओं की भीड़ सुभाषबाबू के टेन्ट के आसपास लगी रहती थी। मुख्य अधिवेशन में भगतसिंगजी के वृद्ध पिता किशनसिंगजी को सम्मान के साथ मंच पर बिराजमान किया गया था। भगतसिंगजी के शहीद होने को सम्मानित करने के साथ साथ बाहर के इस गर्म माहौल को ठण्ड़ा करना यह भी उसका एक उद्देश्य था। लेकिन युवा कार्यकर्ताओं के लिए वह पर्याप्त नहीं था। गाँधीजी के तथा अध्यक्ष सरदार पटेलजी के भाषण के समय युवा वर्ग में से लगातार नारे लगाये जा रहे थे। युवा कार्यकर्ताओं ने अधिवेशन के प्रांगण में ही अलग से मण्डप का निर्माण कर युवाओं का अलग अधिवेशन लिया और सुभाषबाबू से उसका अध्यक्ष बनने की प्रार्थना की।

अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने ‘दिल्ली समझौते’ का पालन करने की अँग्रे़जों की प्रामाणिकता पर सन्देह जाहिर किया। क्रान्तिकारी मार्ग के अलावा अन्य मार्गों से स्वराज्य नहीं मिलेगा, यह सा़फ़ सा़फ़ कहते हुए सुभाषबाबू ने उन्हें अभिप्रेत रहनेवाली राज्यव्यवस्था में स्वतन्त्रता, समानता, न्याय, अनुशासन और प्रेम इन बातों पर जोर दिया। किसान-मजदूरों के, युवाओं के तथा महिलाओं के अनुशासनबद्ध संगठन स्थापित कर समग्र विकास को साध्य करने का आग्रह उन्होंने किया। जातिभेद और अन्धश्रद्धा को जड़ से उखाड़ना, अँग्रे़ज माल को बहिष्कृत करना इन मुद्दों का समावेश उन्होंने मुख्य रूप से अपने भाषण में किया। भारत को ग़ुलामी जंजीरों में जकड़नेवाले साम्राज्यवादियों के साथ किसी भी प्रकार से सामोपचार की बातचीत नहीं करनी चाहिए, यह जाहिर करते हुए उन्होंने युवाओं को सम्पूर्ण क्रान्ति का सन्देश दिया।

युवाओं ने उन्हें सिर-आँखों पर बिठा दिया था;

काँग्रेस अध्यक्ष सरदार पटेलजी ने उनका अपनी कार्यकारिणी में समावेश नहीं किया था;

वहीं, सुभाषबाबू के भाषण को सुनते हुए, सुभाषबाबू को राजद्रोही साबित करने के लिए मालमसाले की ख़ोज में रहनेवाले टेगार्ट के पठ्ठों के मन में लड्डू फ़ूट रहे थे और उन्होंने सुभाषबाबू के भाषण के इन मुद्दों को समय न गँवाते हुए सरकार के पास भेज दिया था।

सुभाषबाबू को उसकी परवाह नहीं थी। कराची से कोलकाता लौटते ही उन्होंने विभाजित बंगाल काँग्रेस के एकीकरण का कार्यक्रम हाथ में लिया। लेकिन दूसरे पक्ष ने उसे प्रतिसाद नहीं दिया। दो पक्षों के बीच के मनमुटाव में कहीं दुश्मन अँग्रे़ज सरकार का फ़ायदा न हो जाये, इसलिए उन्होंने स्वयं ही महापौरपद से इस्ती़फ़ा देने का प्रस्ताव सेनगुप्ताजी के सामने रखा, लेकिन उन्होंने उसे भी धुतकार दिया।

इसी दौरान मिदनापूर के हिजली में स्थानबद्ध किये हुए लगभग दो ह़जार स्वतन्त्रतासैनिकों के पुलीस के साथ हुए झगड़े का रूपान्तरण आपसी लड़ाई में होकर पुलीस द्वारा की गयी गोलीबारी में दो स्वतन्त्रतासैनिक शहीद हो गये। पूरा बंगाल फ़िर से भड़क उठा। सुभाषबाबू स्वयं हिजली जाकर उनके पार्थिव अपने साथ सम्मानपूर्वक कोलकाता ले आये। उनकी अन्तिम यात्रा में लाखों की तादाद में लोग शामिल हुए थे और उसके बाद बंगाल काँग्रेस ने शोकसभा का आयोजन किया था। लेकिन ठीक उसी समय सेनगुप्ता ने भी दूसरी शोकसभा का आयोजन किया था। यह समझने के बाद सुभाषबाबू ने अपनी शोकसभा रद्द करके उस शोकसभा में जाकर भाषण किया। आपसी मतभेद का फ़ायदा दुश्मन को न हों, इसलिए बंगाल प्रान्तीय काँग्रेस के अध्यक्षपद का त्याग करने की तैयारी भी उन्होंने उस भाषण में दिखायी। लेकिन इसका भी सेनगुप्ता पर कोई असर नहीं हुआ।

इसी दौरान आयर्विन का व्हाईसरॉयपद का कार्यकाल ख़त्म हो चुका था और लॉर्ड विलिंग्डन को व्हाईसरॉय के पद पर नियुक्त किया गया था। वह कड़ा साम्राज्यवादी जाना जाता था। भारत आते ही उसने ‘दिल्ली समझौते’ को लगभग भंग ही कर दिया था। गाँधीजी ने सरकार द्वारा समझौते की जिन जिन कलमों का भंग हुआ है, उनकी सूचि बनाकर सरकार के पास भेज दी थी। इतने में २८ अक्तूबर १९३१ को किसीने ढाका के कलेक्टर पर गोली चलाकर उसे जख्मी कर दिया। इसे अंजाम देनेवाले के सुराग ढूँढ़ने में नाक़ामयाब रही पुलीस ने नागरिकों पर अपना ग़ुस्सा उतारते हुए दमनतन्त्र का नंगा नाच शुरू कर दिया।

तब तक गाँधीजी दूसरी गोलमेज परिषद के लिए इंग्लैंड़ के लिए रवाना हो चुके थे। सुभाषबाबू हालात का जाय़जा लेने ढाका रवाना हुए।

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