नेताजी-१५२

उत्तमचन्द के परिवार को भावपूर्ण रूप से अलविदा कहकर सुभाषबाबू गाड़ी में बैठ गये। उस रात कारोनी ने सुभाषबाबू के क़रिबी लोगों के लिए एक छोटीसी दावत रखी थी। भगतराम तथा उत्तमचन्द भी उसमें शरीक रहनेवाले थे। इसलिए वे भी सुभाषबाबू के साथ गाड़ी में बैठ गये। खाने के बाद उत्तमचन्द कलेजे पर पत्थर रखकर घर लौट आया। भगतराम वहीं रुक गया। सुभाषबाबू ने, शरदबाबू के लिए बंगाली में लिखा हुआ ख़त, सरदार शार्दूल कवीश्‍वर को देने हेतु ‘फ़ॉरवर्ड ब्लॉक’ के विषय में लेख आदि उसे सुपूर्द किया। उसे भारत कैसे पहुँचाना है, उसे पहुँचाते समय क्या सावधानी बरतनी चाहिए, किस-किससे मिलना है इसके बारे में सूचनाएँ उसे दीं।

१८ तारीख़। जो दिन देखने के लिए सुभाषबाबू ने इतने सारे पापड़ बेले थे, वही दिन! अब सुभाषबाबू को ऊँच-नीच पर्वतीय प्रदेश से, नदी में से जान हथेली पर रखकर नहीं, बल्कि राजमार्ग से रशिया में प्रवेश मिलनेवाला था। गिऱफ़्तार हो जाने के निरन्तर डर का कालखण्ड अब पीछे छुट गया था। सालों के समान प्रतीत होनेवाले वे दो महीने आख़िर ख़त्म हो चुके थे।

सुबह पौ फ़टने के पूर्व ही एम्बसी की आलीशान गाड़ी तैयार थी। क्रिशिनी ने रात को ही सुभाषबाबू को….नहीं नहीं, ओरलेन्दो मेझोता को ‘उनका’ पासपोर्ट सुपूर्द किया था। निकलने की सारी तैयारियाँ पूरी हो गयीं। सभी गाड़ी के पास आ गये।

सुभाषबाबू ने भगतराम की ओर देखा। भगतराम को अलविदा कहने की घड़ी आ चुकी थी। पेशावर में जब ‘मेरे साथ गाईड़ के तौर पर कौन आयेगा’ ऐसा सुभाषबाबू ने मियाँ अकबरशाह से पूछा था, तब उन्होंने भगतराम का नाम सूचित किया था। ‘क्या यह छोटे कद का आदमी इस काम को अंजाम दे सकेगा’ इस प्रकार की अविश्‍वास भरी नज़र से सुभाषबाबू ने उसे देखा था; कितना ऊँचा लग रहा था अब वह! लेकिन अब तक नाक लाल हो चुके भगतराम को देखा नहीं जा रहा था, उसका बाँध फ़ूटने की कगार पर था। अपने जिस प्राणप्रिय नेता का, उसने पिछले दो महीनों से परछाई की तरह साथ दिया था, जिसका सुखदुख अब उसका सुखदुख बन गया था, जिसकी ध्येयपूर्ति के लिए उसने अपने आपको न्योछावर कर दिया था, उस अपने प्रिय नेता से अलग होने की घड़ी आख़िर आ ही चुकी थी।

उसके मन पर का तनाव हलका करने हेतु सुभाषबाबू ने मुस्कुराने की कोशीश करते हुए – ‘रहमतखान, आख़िर सब ठीक हो ही गया’ इतना कहा नहीं कि भगतराम के भर्राये हुए कण्ठ से केवल ‘बाबूजी….!’ यह एक ही शब्द का उच्चारण हो सका और वह फ़ूटफ़ूटकर रोने लगा। भावनाविवश हुए सुभाषबाबू ने उसे गले लगाया। किसी छोटे बच्चे की तरह समझाबूझाकर शान्त किया। आख़िर उसका ‘रोल’ यहाँ पर ख़त्म होनेवाला नहीं था। उस अनमोल हीरे की क्षमता एवं गुणवत्ता को पूरी तरह जाननेवाले ‘जौहरी’ सुभाषबाबू ने रात को ही उसे सारी योजना तथा उसकी अगली भूमिका के बारे में समझाया था। वह इटालियन एम्बसी के माध्यम से सुभाषबाबू एवं भारत इनके बीच की कड़ी (एजंट) के रूप में काम करनेवाला था। ‘सुभाषबाबू प्रत्यक्ष रूप में सामने नहीं दिखेंगे तो क्या हुआ, उनका काम तो मैं कर ही रहा हूँ’ यह तसल्ली पाने से, ‘मुझे सौंपा गया सुभाषबाबू का काम ही दरअसल सुभाषबाबू हैं’ इस एहसास को मन पर अंकित किया हुआ, अर्थात् अपने कार्य के साथ एकनिष्ठता रखनेवाला भगतराम थोड़ी ही देर में शान्त हो गया।

विदा लेने का वक़्त आया। सुभाषबाबू ने कारोनी दम्पति से भी विदा ली। हेर थॉमस से विदा ली। भगतराम, उत्तमचन्द ये कम से कम भारतीय मिट्टी में जन्में ही लोग थे। लेकिन ये दोनों या फ़िर जर्मन राजदूत पिल्गर इनसे तो सुभाषबाबू का वैसा कुछ भी ताल्लुक नहीं था। जीवन में पहली बार ही मिले ये अनजाने लोग….लेकिन उनपर भी सुभाषबाबू की प्रामाणिक ज्वलन्त देशभक्ति का जादू चल गया था और उन्होंने सुभाषबाबू के, स्वतन्त्रतासंग्राम के लिए बाहरी देशों से सहायता माँगने के ध्येय को अपना मानकर ही, उनके रशियाप्रयाण के प्रयासों के लिए ‘आऊट ऑफ़ द वे’ जाकर उन्हें मदद की थी। मानो सुभाषबाबू के हाथों इस कार्य का सम्पन्न होना यह ‘ईश्वरीय इच्छा’ हो, इस प्रकार सुभाषबाबू को मुश्किल की घड़ियों में समय समय पर सहायता बराबर मिलती रही और अड़चनें दूर होती गयीं। अतः मानो ईश्वर ने ही सुभाषबाबू के लिए जिनका प्रबन्ध किया है ऐसा प्रतीत हों, ऐसे इन व्यक्तियों का ऋण चुकाना संभव ही नहीं था और इन सबके ऋणों को चुकाने का महज़ उच्चारण करने से भी उनकी भावनाओं का अनादर हो जाता।

ख़ैर! सबको नमस्कार कर, माता चण्डिका का स्मरण कर सुभाषबाबू ने गाड़ी में कदम रखा। यह गाड़ी उन्हें – जिस नदी में से वह डाकू राहबर याकूब उन्हें चोरीछीपे रशिया ले जानेवाला था, उसी अमू दरिया (ऑक्सस) नदी पर के ‘उस’ ब्रिज को बिना किसी डर के लाँघकर सुभाषबाबू को रशिया ले जाने के बाद वापस आनेवाली थी। तब तक उनके साथ इटालियन तथा जर्मन एम्बसी का एक एक अ़फ़सर रहनेवाला था। ये लोग गाड़ी के साथ वापस आनेवाले थे। लेकिन सुभाषबाबू को यात्रा के दौरान कोई दिक्कत न हो, इसलिए डॉ. वॉयल्गर नामक एक जर्मन अ़फ़सर बर्लिन तक उनके साथ रहनेवाले थे। मुख्य बात यह थी कि ओरलेन्दो मेझोता अब इटालियन एम्बसी के कर्मचारी रहने के कारण और उनके कागज़ात पर ‘विशेष वायरलेस यन्त्रणा अ़फ़सर’ ऐसा दर्ज किया हुआ होने के कारण, उनका नाम इस्तेमाल करनेवाले सुभाषबाबू को अब अपने आप ही राजनीतिक सुरक्षा भी प्राप्त थी।

गाड़ी स्टार्ट हुई। सुभाषबाबू को विदा करने आये हुए लोग दूर दूर जाते हुए ओझल हो जाने तक सुभाषबाबू हाथ हिलाकर उनसे विदा ले रहे थे। एक क्षण वे लोग नज़रों से ओझल हो गये….और सुभाषबाबू ने ये पिछले दो महीने मन की एक सुगन्धित डिबिया में बन्द कर रखे….अब उनका कोलकाता से ब्रिटीश गुप्तचरों को चकमा देकर घर से भाग जाना, पेशावर पहुँचना, बाद का काबूल तक का कष्टदायी प्रवास और बाद के उनका रशियाप्रवेश के प्रयास; यह सारा मामला अब कम से कम उस समय तक तो उनके लिए ख़त्म हो चुका था और उनका मन अब अगली योजना पर विचार करने लगा था।

इतने में उन्हें गयी रात क्रिशिनी ने दिये हुए ‘उनके’ पासपोर्ट की याद आयी और उन्होंने जेब से उसे निकालकर उसपर चिपकाया हुए उनके छायाचित्र को निहारना शुरू किया। नख़रेबाज़ इटालियन स्टाईल दाढ़ी और युरोपियन पोषाक़ इनके कारण वे इटली के रईसज़ादों में से ही एक लग रहे थे। अन्य त़फ़सील भी उन्होंने कौतुकपूर्वक पढ़ा – ‘नाम – ओरलेन्दो मेझोता। राष्ट्रीयता – इटालियन। पासपोर्ट नं. ६४९३२’….

….और वे सीट की बॅक पर माथा टेंककर आँखें बन्द कर मन ही मन मुस्कराते हुए आराम के साथ बैठ गये।

Leave a Reply

Your email address will not be published.