नेताजी-१५९

हिटलर ब्रिटन के साथ केवल मजबूरन संघर्ष कर रहा है, उसकी महत्त्वाकांक्षा के आड़े आनेवाला देश इसी नाते केवल ब्रिटन हिटलर के शत्रुपक्ष में है, अन्यथा वह ब्रिटन के साथ पंगा लेने की बात को जितना हो सके उतना टाल देता है; अहम बात तो यह है कि वह भारत की ओर ब्रिटन के नज़रिये से ही देखता है और इसी कारण उसे भारत की आज़ादी के मामले में ज़रासी भी दिलचस्पी नहीं है, यह ध्यान में आने के बाद सुभाषबाबू और भी ज़्यादा बेचैन हो उठे। अपनी सारी योजना पर पानी फ़िर जाने से पहले ही उस योजना से अधिक से अधिक फ़ायदा कैसे उठाया जा सकता है, इस बारे में वे सोचने लगे। हालाँकि ‘भारत की आज़ादी’ यह मुद्दा हिटलर की युद्धयोजना के अन्तर्गत समाविष्ट नहीं था, मग़र फ़िर भी उसने अब तक, ना जाने क्यों, सुभाषबाबू की योजना का ज़ाहिर विरोध नहीं किया था। उलटा सरकारी खर्चे से बर्लिन के आलीशान होटल में उनके ठहरने का इन्तज़ाम करके, उन्हें जर्मनी ले आने से लेकर उनके लिए ‘स्टा़फ़’ का प्रबन्ध करने तथा उनकी आर्थिक सहायता करने तक सारी मदद की थी; बिलकुल किसी बड़े देश के राजदूत की तरह ही उनकी ख़ातिरदारी की थी। इतना सबकुछ होने के बावजूद भी, मैंने जर्मन सरकार को प्रस्तुत किये हुए निवेदन के मुद्दों पर अब तक कार्यवाही क्यों नहीं हो रही है, यही बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी। उस होटल का ऐशोआराम उन्हें चुभने लगा था। मैं बर्लिन आराम करने हरगीज़ ही नहीं आया हूँ, यह अहसास उन्हें निश्चित ही था। वे ट्रॉट, केपलर, वेर्थ आदि जर्मन सरकार में काम कर रहे उनके मित्रों के पास तिलमिलाकर इसके बारे में पूछते थे। लेकिन उनके पास भी इस सवाल का जवाब नहीं रहता था।

बर्लिन आकर लगभग एक महीना पूरा होने को आया था, ९ अप्रैल को निवेदन प्रस्तुत करने के बाद भी दो ह़फ़्ते बीत चुके थे; मग़र फ़िर भी उन्हें इच्छित स्वतन्त्र रेडिओ सेंटर के लिए अनुमति प्राप्त नहीं हुई थी, उनके द्वारा माँगी गयी ५० हज़ार की फ़ौज के आसार भी दूर दूर तक से दिखायी नहीं दे रहे थे। इतना ही नहीं, बल्कि एक भी जर्मन उच्चपदस्थ अ़फ़सर से उनकी मुलाक़ात नहीं हो पायी थी। अब अगला कदम क्या होना चाहिए, इस सोच में सुभाषबाबू पड़ चुके थे कि अचानक उन्हें मनचाही अच्छी ख़बर मिल गयी।

जर्मनी के जिन उच्चपदस्थों से मुलाक़ात कर उन्हें अपनी भूमिका के बारे में अवगत कराने के लिए सुभाषबाबू प्रयास कर रहे थे, उन्हीं में से एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे – जर्मनी के विदेशमन्त्री रिबेनट्रॉप। पहले विश्‍वयुद्ध के साँचे में ढला हुआ ऐसा वह एक कट्टर देशभक्त रसायन था। उसीके सहारे और परामर्श के अनुसार हिटलर दूसरे विश्‍वयुद्ध के ताश का खेल खेल रहा था। समूचे युरोप भर में कई मोरचों पर चल रहे इस विश्‍वयुद्ध ने रिबेनट्रॉप को कुछ इस कदर व्यस्त कर दिया था कि सुभाषबाबू से मिलने के लिए उसके पास वक़्त ही नहीं था। ऐसा यह रिबेनट्रॉप किसी काम के सिलसिले में और स्वल्प विश्राम करने व्हिएन्ना गया हुआ था। सुभाषबाबू चाहें तो उसे वहीं आकर मिल सकते हैं, ऐसा उसने ट्रॉट आदि को सूचित किया। सुभाषबाबू को वह सुनहरा अवसर ही प्रतीत हुआ।

दूसरे ही दिन ट्रेन से व्हिएन्ना जाने का उन्होंने तय किया। ‘पहले दर्शन ही मन पर हमेशा के लिए अंकित हो जाते हैं’ (‘फ़र्स्ट इंप्रेशन इज द लास्ट इंप्रेशन’) इसलिए उन्होंने अपनी योजना की पुनः एक बार नोट्स तैयार कर उन्हें बार बार पढ़ा। यह मुलाक़ात स़फ़ल हो जाने के बाद तो मानो अलिबाबा की गुहा ही उनके लिए खुल जाती। किसे पता, शायद हिटलर से मुलाक़ात का दरवाज़ा भी खुल सकता था।

व्हिएन्ना स्थित ‘इंपिरियल’ होटल में २९ अप्रैल १९४१ को यह मुलाक़ात हुई। सुभाषबाबू के साथ ट्रॉट, डॉ. रीथ ये लोग हालाँकि व्हिएन्ना आये हुए थे, लेकिन यह मुलाक़ात बिलकुल गोपनीय स्वरूप की होने के कारण प्रत्यक्ष मुलाक़ात के समय केवल सुभाषबाबू और रिबेनट्रॉप ये दोनों ही थे। विभिन्न स्थानों पर चल रहीं मुहिमों की बढ़त के बारे में विवरण रहनेवाले सन्देश रिबेनट्रॉप को दिखाने के लिए उसके सहकर्मी बीच बीच में आ जाते थे। कभी बर्लिन से, तो कभी अन्य स्थानों से फ़ोनों का सिलसिला भी जारी था। इस तरह बीच बीच में रुक रुक कर उनके बीच की बातचीत आगे बढ़ रही थी।

‘भारत को अपनी निजी जागीर ही मानकर अँग्रेज़ों ने भारतवासीयों के मन्तव्य के बारे में न सोचते हुए, जर्मनी के साथ भारत की कोई भी दुश्मनी न रहते हुए भी महज़ एक अध्यादेश के द्वारा भारत को विश्‍वयुद्ध की खाई में धकेल दिया है। भारतीय जनता के मन में अँग्रेज़ों के प्रति द्वेष की भावना ठसाठस भरी हुई है और फ़िलहाल ब्रिटन की स्थिति पेचींदा रहने के कारण, ऐसे वक़्त पर यदि ताकतवर जर्मनी हमें समर्थन देता है, तो चन्द कुछ ब्रिटीश फ़ौजों को यहाँ से खदेड़ देना कोई मुश्किल बात नहीं है। आप मेरी आर्थिक सहायता तो कर ही रहे हैं, एक राजदूत का दर्जा भी आपने मुझे दिया है। ऐसी स्थिति में यदि आप भारत की आज़ादी के मसले के प्रति आत्मीयता दिखाकर, जो निवेदन मैंने पहले ही आपको प्रस्तुत किया हुआ है, उसे तुरन्त ही फ्यूरर (हिटलर) तक पहुँचाने की कृपा करें’ यह कहकर सुभाषबाबू ने प्रचार के लिए स्वतन्त्र रेडिओ स्टेशन, पचास हज़ार की फ़ौज इन अपनी माँगों को पुनः प्रस्तुत किया और युद्ध के ख़त्म होते ही भारत को आज़ादी दी जायेगी, ऐसी घोषणा जर्मनी तुरन्त ही कर दें, ऐसा सूचित किया।

उसी दौरान हिटलर के सेनापति रोमेल ने अफ़िका में ब्रिटीश सेना को परास्त कर उन्हें युद्धबन्दी बनाने की ख़बर आयी हुई थी। उनमें से हज़ारों सैनिक भारतीय थे। यदि इन भारतीय युद्धबन्दियों को मेरे हवाले किया जाये, तो उनका हृदयपरिवर्तन कर उनका इस्तेमाल इस सेना के लिए किया जा सकता है, ऐसा सुझाव सुभाषबाबू ने रिबेनट्रॉप को दिया।

सर्वशक्तिवान् ब्रिटीश साम्राज्य से अकेले जूँझने निकले सुभाषबाबू के प्रति, सुभाषबाबू से उम्र में चार साल बड़े रहनेवाले रिबेनट्रॉप के मन में एक ओर से कौतुक उमड़ रहा था; वहीं, दूसरी ओर – क्या यह प्रॅक्टिकली संभव है, ऐसा उसमें स्थित राजनीतिज्ञ बोल रहा था। उसने सुभाषबाबू को बहुत सारे उलटे-पुलटे सवाल पूछे, लेकिन सुभाषबाबू ने उन्हें आत्मविश्‍वास के साथ सन्तोषजनक जवाब दिये।

अन्त में, ‘भारत की आज़ादी को जर्मनी का समर्थन घोषित करने के लिए मुझे फ्यूरर से (हिटलर से) बात करनी पड़ेगी। लेकिन आपके लिए एक गुप्त रेडिओ स्टेशन का इन्तज़ाम मैं तुरन्त ही कर देता हूँ’ ऐसा रिबेनट्रॉप ने सुभाषबाबू को बताया और वह क़ामयाब मीटिंग समाप्त हुई।

इस मीटिंग में भले ही सुभाषबाबू ने बहुत कुछ प्राप्त किया हो, मग़र भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जर्मनी से एक मर्यादा से अधिक मदद की अपेक्षा रखना मुनासिब नहीं होगा, यह एहसास सुभाषबाबू को होने लगा था।

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