इरा रेमसेन (१८४६-१९२७)

तर-त्यौहार के समय कभी कोई अनजान व्यक्ति इसी त्यौहार के निमित्त से घर पर आते रहते हैं। ऐसे ही एक घर में नवरात्रि के उत्सव में एक व्यक्ति दरवाजें पर आकर खड़ा हो गया और उसने पीने के लिए पानी माँगा और उसने पानी की कुछ बूँदे अपने हाथ में रखकर घर के मालिक से कहा, ‘‘पी लो इसे, यह भगवान का तीर्थ-प्रसाद है!’’ घर का मालिक बिलकुल भोला-भाला था उसने वह जल पी लिया उसमें मिठास थी। घर में चोरी लूटमार न होकर घर सुरक्षित रहा। यही एक हकीकत में मिठास रखनेवाली बात साबित हुई। ऐसे दर-दरवाजों पर घूमनेवाले कुछ चोर हाथ पर कृत्रिम स्विटनर लगाकर लोगों को अपने जाल में फँसा लेने में काफ़ी माहीर होते हैं। इतना अधिक गहराई तक पहुँच चुके इस कृत्रिम स्विटनर की कथा क्या होगी?

इरा रेमसेन

न्यूयॉर्क में जन्म लेनेवाले रेमसेन ने ‘कॉलेज ऑफ फिजीशियन एवं सर्जन’ से १८६७ में वैद्यकीय शाखा में मास्टर की उपाधि प्राप्त की, परन्तु यह शिक्षा उन्होंने अपने माता-पिता का मन रखने के लिए पूरी की थी। उन्हें रसायनशास्त्र करना था। अगली पढाई करने वे जर्मनी गए। गाँटिंजन विश्‍वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर वे पुन: अमरीका लौट गए। विल्यम कॉलेज में प्राध्यापक के रूप में काम करते हुए ‘थिअरॉटिकल केमेस्ट्री’ नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना उन्होंने की। इसके पश्‍चात उन्हें जॉन हॉपकिन्स महाविद्यालय के रसायनशस्त्र विभाग में सम्मानपूर्वक बुलाया गया। इस महाविद्यालय के उनके अपने स्वयं के प्रयोगशाला में अपना संशोधन का काम भी करते रहते थे। १८७९ में उन्होंने ‘अमरीकन केमिकल्स जर्नल’ शुरु किया; जिसका कामकाज एवं संपादकीय उन्होंने बिलकुल ३५ वर्षों तक संभाला।

कोई घटना, कृति अथवा अनेक घटनाओं की शृंखलाएँ यही किसी न किसी खोज के लिए कारण साबित होती है। संशोधनकर्ता की अत्यन्त तीक्ष्ण दृष्टि, सावधानी, बारीकी से निरीक्षण-परीक्षण आदि करने का अहसास इनमें से ही कोई शोध होते-होते हाथों से छूट भी सकता है अथवा एक ही झटके में वह शोध प्रसिद्धि का कारण भी बन जाता है।

१८७९ में ऐसे ही एक योगायोग की बात है। दिनभर के अपने प्रयोगशाला के काम के पश्‍चात् घर आने के बाद रेमसेन और उनकी पत्नी खाना खा रहे थे। रोल खाते समय वह रोल रेमसेन को काफ़ी पसंद आया। उसमें काफ़ी मिठास थी। इसके पश्‍चात् उसका स्वाद कसैला एवं उस में कड़वाहट का स्वाद आने लगा। उनकी पत्नी को ऐसा कुछ भी महसूस नहीं हुआ। इसके पश्‍चात् रेमसेन ने अपनी ऊँगलियों को चाटकर देखा। उनके मन में शंका उत्पन्न हुई कि कोल टार (coal tar) से संबंधित प्रयोग करते समय ऊँगलियों में जो आम्ल पदार्थ लगा था, यह शायद उसी का यह स्वाद होगा। सल्फॉनिक आम्ल के प्रयोग में उन्हें इस बात का पता चला कि हाथ में यदि आम्ल लगता है और इसके पश्‍चात् जो कुछ भी खाया उसमें सर्वप्रथम स्वाद में मिठास थी। उन्होंने इस पदार्थ को सॅक्रीन (Saccharin) नाम प्रदान किया। १८८० में रेमसेन एवं उनके सह संशोधनकर्ता कॉनस्टँटिन फाल्बर्ग ने उनके इस संशोधन के संबंध में प्रबंध प्रसिद्ध किया।

बेंझॉईक सल्फीनाईड, जो मूल घटक होते हुए उसमें सुक्रोज से अधिक मिठास है, परन्तु उसका स्वाद लेने पर वह अंत में थोड़ा सा कड़वेपन का स्वाद देता है। प्रथम विश्‍वयुद्ध में शक्कर का भंडार कम हो जाने से इस कम मिठास देनेवाले पदार्थ का उपयोग किया गया। Otoluene sulfonamide के ऑक्सिडेशन प्रक्रिया में यह सॅक्रीन तैयार किया गया। १९५० के पश्‍चात् सुधार प्रक्रिया द्वारा उसे प्राप्त किया जाने लगा। Mau mee chemical co (जापान) की इस कंपनी ने इस पदार्थ का अधिक से अधिक एवं सुलभ तरीके से इसका उत्पादन कैसे किया जा सकता है। इस प्रकार की नयी पद्धती ढूँढ़ निकाली, Anthranilic accide यह nitrus acide, sulfer dyoxide एवं क्लोरीन, अमोनिया इन सबकी प्रक्रिया के साथ ही सॅक्रीन प्राप्त हुआ।

नैसर्गिक तौर पर चाहे तो स्टिविया Stevia नामक वनस्पति कृत्रिम मिठास लाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है।

१९०१ में रेमसेन को जॉन हॉपकिन्स के प्रमुख पद पर नियुक्त किया गया। रेमसेन ने वहाँ की प्रयोगशालाओं में अनेक जर्मन एवं आधुनिक पद्धति एवं यंत्रों का आरंभ किया। रसायनशास्त्र की अनेक महत्त्वपूर्ण पाठ्यपुस्तकें विद्यार्थियों के लिए लिखीं।

१९१२ में इस प्रमुख पद का इस्तीफा देकर रेमसेन कॅलिफोर्निया के कारमेल नामक स्थान पर पुन: लौट आयें। जॉन हॉपकिन्स के अहाते में दफनाये जानेवाले रेमसेन का व्यक्तित्व अद्वितीय था। वैसे ही रेमसेन के पश्‍चात् पुन: नाविन्यता के साथ बनाई जानेवाली केमिस्ट्री बिल्डिंग को रेमसेन का नाम प्रदान किया गया।

१९०७ से सॅक्रिन यह मधुमेह से त्रासित लोगों द्वारा शक्कर के पर्याय के रुप में उपयोग में लाया जाने लगा। शरीर की पाचनक्रिया में उर्जा के समान उसका उपयोग नहीं है, केवल उष्मांक (कॅलरी) विरहित स्विटनर के रूप में इसका उपयोग किया जाता है। १९६० के पश्‍चात् सॉफ्ट ड्रिंक्स, च्युईंगम, बेकरियों में बनाये जानेवाले कुछ पदार्थ, जॅम, डिब्बे में बंद करके रखे गए पदार्थ, सॅलड ड्रेसिंग ऐसी अनेकों वस्तुओं में उसका उपयोग सहज ही किया जाने लगा। आज मानवी शरीर के लिए ये कृत्रिम स्वीटनर भले ही योग्य साबित हुआ है फिर भी पहले इसके उपयोग एवं परिणाम के संबंध में मतभेद थे।

मनुष्य की जिह्वा पर रुचि जाननेवाली पेशियों को (टेस्ट बड्स) इसकी मिठास का अहसास तो होता है परन्तु मधुमख्खियाँ, तितलियों के समान कीट-पतंगें जैसे फूलों से शहद निकाल लेते हैं वैसे ही ये कृत्रिम मिठासवाले पदार्थ की ओर कभी भी जरा सा भी आकर्षित नहीं होते।

केन शुगर, सुक्रोज, फ्रुक्टोज, माल्टोज, लॅक्टोज् ग्लॅकटोज इन जैसे शक्कर के विविध प्रकार हैं और सॅक्रीन यह मानव के द्वारा खोजा गया कृत्रिम स्विटनर है।

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