चंडीगढ़ भाग-३

किसी क़तार में कई लोग खड़े हैं। हालाँकि दिखने में तो वे सभी एक जैसे ही हैं, मग़र फिर भी उनमें से कुछ की हाथों की ‘अ‍ॅक्शन’ दूसरों से थोड़ी सी अलग है। उनके पास ही थोड़ी ही दूरी पर कुछ छोटे जानवर भी इसी तरह खड़े हैं। इन्सान और जानवर एक ही क़तार में नहीं, बल्कि एक के बाद एक इस तरह कई क़तारों में खड़े हैं और इस प्रकारसे उनका एक बड़ा समुदाय ही खड़ा है। उस तरफ़ उन जानवरों के पीछे भी कोई खड़ा है। चलिए, तो ये सब कौन हैं, यह जानने इसी रास्ते से आगे बढते हैं।

आप सोच रहे होंगे कि समूह में खड़े रहनेवाले ये इन्सान, जानवर यह क्या माजरा है? अजी, यह तो ‘रॉक गार्डन’ की बस एक झलक है। हमने पिछले भाग में विश्राम करते समय ही तय किया था कि ‘रॉक गार्डन’ जायेंगे।

‘रॉक गार्डन’ यह चंडीगढ़ की कई ख़ासियतों में से एक है। अब पत्थरों से बनाये गये इस गार्डन में क्या होगा, ऐसा विचार मन में उठता है। जिन इन्सानों और जानवरों का ज़िक्र हमने पहले किया, उन्हें भी पत्थरों से ही बनाया गया है। ‘रॉक गार्डन’ में हमें पत्थरों से बनायी गयी शिल्पाकृतियों का अनोखा नज़ारा देखने को मिलता है।

हर इन्सान में एक शोधदृष्टि होती है। इसी वजह से किसी को कभी किसी पत्थर में, पेड़ के तने में इन्सान का चेहरा नज़र आता है, कभी किसी जानवर की आकृति दिखायी देती है तो कभी पूरा का पूरा इन्सान या जानवर दिखायी देता है।

‘नेकचन्द’ नाम के एक चंडीगढ़वासी की इसी तरह की खोजदृष्टि एवं कल्पना में से इस ‘रॉक गार्डन’ का निर्माण शुरू हो गया।

लेकिन ‘रॉक गार्डन’ इस शब्द को सुनकर यह मत सोचिए कि यहाँ पर हमें सिर्फ़ काले, सफ़ेद, कत्थई रंग के छोटे बड़े, गोल-चपटे पत्थर ही दिखायी देंगे। यहाँ पर विभिन्न प्रकार के पत्थरों के साथ साथ टूटी हुई तश्तरियाँ और कप्स से, टाईल्स के टुकडों से, चिनी मिट्टी के बर्तनोंके टुकडों से, सिरॅमिक पॉटरी के टुकड़ों से बने अनगिनत शिल्प दिखायी देते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि अलग ही दिखायी देनेवाले धातुओं (मेटल्स) के टुकड़ें, काँच की टूटी बोतलें, फटे हुए टायर्स, टूटी हुई गुडियाएँ, फटी हुई हॅट्स्, काँच के रंगबिरंगी टुकड़ें, पंछियों के खाली पड़े हुए घोसलें, ज़्यादा भुनी गई इटें, गिरे हुए पेड़ों के तनें, इमारत बनाने के सामान में से बेक़ार पड़ी हुई चीजें इस तरह की कई वस्तुएँ भी इस ‘रॉक गार्डन’ के शिल्पों के निर्माण में इस्तेमाल की गयी हैं।

इन सब वस्तुओं से तरह तरह के शिल्प बनाने का शौक़ रखनेवाले नेकचन्द नाम के निवासी की कल्पना में से इस ‘रॉक गार्डन’ का निर्माण शुरू हो गया।

हालाँकि इस उद्यान के निर्माण में इस्तेमाल की गयीं वस्तुएँ बेक़ार, टूटी फूटी हैं, लेकिन इनसे बनाये गये शिल्प लाजवाब हैं और हाँ, हालाँकि रॉक गार्डन यह इसका नाम ज़रूर है, लेकिन यहाँ का नज़ारा काला, मटमैला बिलकुल भी नहीं है। इनमें से अधिकतर शिल्प उनमें रहनेवाले टाईल्स के टुकड़ों के कारण सफ़ेद रंग के या रंगबिरंगे भी हैं।

पत्थरों के शिल्पों के साथ पेड़ भी यहाँ पर हैं और बहता हुआ पानी भी।

ऊँचाई पर रहनेवाली हरियाली से एक जल का स्रोत यहाँ पर बह रहा है और इस हरियाली पर गेट जैसी एक रचना है। पेड़, जल ये कुदरत के घटक हालाँकि यहाँ पर मौजूद हैं, लेकिन प्रमुख आकर्षण तो पत्थरों से बनाये गये शिल्प यही है। इस गार्डन में छोटे बड़े मार्गों और दीवारों का निर्माण भी पत्थरों से ही किया गया है।

गार्डन में दाखिल होते ही हमें क़िले जैसी एक रचना दिखायी देती है और वहाँ है एक जलस्रोत, गार्डन के विभिन्न विभागों में भी जल प्रवाहित होता हुआ दिखायी देता है या छोटे छोटे तालाबों जैसी रचनाएँ दिखायी देती है।

भंगार में जिनकी गिनती होती है, उन वस्तुओं से बनाये गये विभिन्न प्रकार के शिल्प। इन्सानों के विभिन्न भावमुद्राओं में बने शिल्प। लंबी मेहराबों के नीचे से गुज़रते हुए उनपर खड़े घोड़े जैसे जानवर दिखायी देते हैं, वहीं एक जगह ऊँचाई से छलाँग लगाने की स्थिती में रहनेवाले बड़े पंछी भी दिखायी देते हैं।

देखिए, रॉक गार्डन की सैर करते करते हम इसके निर्माण के बारे में जानकारी लेना तक भूल गए। तो चलिए, अब रॉक गार्डन की जानकारी लेते है। सन १९५७ से यह निर्माण कार्य शुरू हुआ, जो आगे चलकर सन १९७६ में ‘रॉक गार्डन’ नाम से जाना जाने लगा। ४० एकर्स की ज़मीन पर यह रॉक गार्डन बना है।

यहाँ के ऊँचे नीचे मोड़वाले रास्तें हमें एक अलग ही दुनिया में ले जाते हैं। पुरानी, टूटी-फूटी एवं बेक़ार की चीज़ो से बनाये गये शिल्प यही रॉक गार्डन का स्वरूप है।

चंडीगढ़ शहर का नज़ाराही कुछ ऐसा है कि पहली ही मुलाक़ात में यह शहर आपके मन को मोह लेता है।

दो राज्यों की राजधानी होने के कारण यह शहर दोनों राज्यों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। प्रमुख प्रशासकीय कचहरियाँ, न्यायालय के साथ साथ कई महत्त्वपूर्ण शिक्षा संस्थाएँ भी यहाँ पर हैं और औद्योगिक संस्थाएँ भी इस शहर का अविभाज्य अंग है।

फिलहाल हमारा मूड़ गार्डन्स की सैर करने का है। है ना! तो चलिए, एक और गार्डन देखने चलते हैं। लेकिन इसके लिए हमें यहाँ से २० किलोमीटर्स दूर बसे ‘पिंजोर’ जाना पड़ेगा।

‘पिंजोर’ कहते ही याद आता है ‘पिंजोर गार्डन’। वहाँ ही तो हम जा रहे हैं।

चंडीगढ़ से लगभग २० किलोमीटर्स पर बसा है ‘पिंजोर’ नाम का एक छोटासा गाँव। यह छोटा सा ज़रूर है, लेकिन पुराने समय से यह काफ़ी मशहूर है, वहाँ पर रहनेवाले ‘मुग़ल गार्डन’ के लिए।

पिंजोर का यह मुग़ल गार्डन ही ‘पिंजोर गार्डन’ इस नाम से जाना जाता है और आज कल उसका नाम ‘यादविन्द्र गार्डन’ है।

एक के बाद एक रहनेवाले अलग अलग स्तरों पर बने बग़ीचें, जो एक दूसरे के साथ सीढियोंद्वारा जुड़े हुए होते हैं और उनके बीच में जल का प्रवाह बहता रहता है इस तरह का टेरेस गार्डन्स जैसा मुग़ल गार्डन्स का स्वरूप रहता है। यहाँ पर भी बिलकुल इसी तरह की रचना है।

गार्डन्स की शुरुआत में ही एक बड़ा प्रवेशद्वार है, जिसमें से दाखिल होते ही बस ‘लाजवाब’ यह एक ही लफ़्ज़ देखनेवाले के मुँह से निकलता है।
दूर तक फैली हरियाली, उसके बीच में बहनेवाला जल, यह जल जहाँ सें आता है वह ऊँची सीढियों जैसी रचना और हरियाली के दोतरफ़ा बड़े बड़े पेड़ ऐसा नज़ारा देखते ही दिल को सुकून मिलता है।

मुग़ल साम्राज्य के दौरान साधारणतः सतरहवीं सदी में इस बाग़ का निर्माण किया गया। कुल १०० एकर्स में यह गार्डन फैला हुआ है।

यहाँ की एक और ख़ासियत है, यहाँ के फ़ौवारें। जरा सोचिए, गर्मी के दिनों में इन फ़ौवारों को देखने से ही मन को कितनी ठंडक मिलती है। लेकिन यहाँ के फ़ौव्वारों की असली ख़ूबसूरती देखनी हो, तो शाम के ढलने तक यहाँ पर रुकना चाहिए। क्योंकि दिन ढल जाने के बाद ही यहाँ के फ़ौव्वारों का जल रंगबिरंगी रोशनी से खिल उठता है। दर असल इस सारे गार्डन का दिन का नज़ारा जितना ख़ूबसूरत रहता है, शाम में यही नज़ारा रंगबिरंगी रोशनी से खिल उठता है।

इस उद्यान में शीशमहल, रंगमहल और जलमहल नाम की तीन वास्तुओं का निर्माण किया गया है। साथ ही यहाँ पर एक चिड़ियाघर भी है।

देखिए, बातों बातों में दिन ढल भी गया। अब यहीं से रंगबिरंगी रोशनी से खिल उठे पिंजोर गार्डन को नज़रें भर कर देखते हैं और उससे बिदा लेते हैं। चंडीगढ़ के इन फ़ेंफड़ों से हमने काफ़ी ताज़ी हवा हमारे फ़ेंफड़ों में भर ली है। तो अब अगला पड़ाव कहाँ होगा? थोड़ी देर रुकते है। फिर पता चल ही जायेगा, हफ़्ते भर के बाद।

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